भारत के महान लोकतन्त्र का तमाशा किसी सूरत में नहीं बनाया जा सकता और इसका स्तर इस कदर नहीं गिराया जा सकता कि पूरा तन्त्र रिया चक्रवर्ती या कंगना रानौत के मसलों पर सिमट कर देश की उन समस्याओं और ज्वलन्त मुद्दों से बेखबर हो जाये जिनका सम्बन्ध राष्ट्रीय गौरव और 130 करोड़ देशवासियों के जनजीवन से है। कंगना रानौत ने यदि देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई की तुलना पाक अधिकृत कश्मीर से करने की जुर्रत की है तो यह उसके दिमागी दिवालियेपन की निशानी है मगर इसके जवाब में यदि महाराष्ट्र सरकार की कर्णधार शिवसेना पार्टी के शासन में चलने वाली वृहन्मुम्बई महानगर पालिका आनन-फानन में कंगना के दफ्तर का अवैध हिस्सा गिराने का फैसला लेती है तो यह उसकी भी सड़क छाप सोच का ही मुहाजिरा है। प्रश्न बेशक अवैध निर्माण का मुख्य है जिस पर कंगना रानौत की मुंहफट बयानबाजी पर्दा नहीं डालती है। अवैध निर्माण तो गिरना ही चाहिए मगर संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार। जब कोरोना महामारी के चलते बम्बई उच्च न्यायालय ने आगामी 30 सितम्बर तक किसी भी प्रकार के निर्माण को ढहाने पर प्रतिबन्ध लगा रखा है तो महानगर पालिका को उसका पालन करना चाहिए था और सब्र से काम लेना चाहिए था।
एक स्वतन्त्र नागरिक होने के नाते कंगना को अभिव्यक्ति का अधिकार है परन्तु राष्ट्र के सम्मान से खेलने का उसे अधिकार नहीं है। फिल्मी इतिहास में अभी तक स्व. देवानन्द ऐसे अभिनेता रहे हैं जिनके राजनीतिक विचारों का आदर साधारण जन भी करते थे। यह बात अलग थी कि उनके विचारों से अधिसंख्य लोग उस समय भी सहमत नहीं थे। 1969 में स्व. देवानन्द का यह बयान बहुत विवादास्पद रहा था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘भारत में मुसलमानों का भारतीयकरण’ होना चाहिए, तब इसे उनकी व्यक्तिगत सोच माना गया था और फिल्मी जगत से इसे अलग रख कर देखा गया था। हालांकि उस समय भारतीय जनसंघ के निवर्तमान अध्यक्ष स्व. बलराज मधोक के विचार भी इसी के अनुरूप थे। बाद में सत्तर के दशक में देवानंद ने अपनी पृथक राजनीतिक पार्टी भी बनाई थी जो पूरी तरह असफल रही थी लेकिन आज के सन्दर्भ में कंगना रानौत जिस प्रकार की भाषा और विचारों का बखान कर रही है उसे भारत के उस महान लोकतन्त्र के आइने में रख कर देखना होगा जिसे मजबूत करने के लिए हमारी पिछली पीढि़यों ने अपनी जान लगा दी थी।
स्वतन्त्रता के बाद 1970 तक बनी हर हिन्दी फिल्म समाज में क्रान्तिकारी बदलाव लाने का खुला सन्देश देती थी और नई पीढ़ी में वैज्ञानिक सोच पैदा करने का यत्न करती थी। आज का फिल्मी संसार जिस प्रकार के वातावरण में चल रहा है उसकी चर्चा करना भी व्यर्थ है। फिल्म अभिनेताओं का सम्मान आम जनता इसी लिए करती है क्योंकि वे समाज को मनोरंजन के जरिये आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं। स्व. पृथ्वी राज कपूर द्वारा अपने राज्यसभा कार्यकाल में दिये गये भाषणों का यदि संकलन प्रकाशित किया जाये तो आज के अभिनेताओं को ज्ञात होगा कि एक अभिनेता का सरोकार राजनीति और समाज से कितना गहरा होता है और उसके मन में राष्ट्रीय नेतृत्व की क्या मूर्ति होती है। राष्ट्रीय नेतृत्व के बारे में स्व. कपूर का राज्यसभा में दिया गया भाषण भारत की राजनीति के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभाव का एेसा आयाम है जिसमें कला और लोक (सामान्य जन) राजकाज में नई ऊर्जा पैदा करते हैं। इसी प्रकार श्री दिलीप कुमार ने भी राज्यसभा में रहते हुए जो योगदान दिया वह बताता है कि कलाकार कला के क्षेत्र में सामाजिक जिम्मेदारियां निभाने में किसी से पीछे नहीं रहता है। उसके विचारों में राष्ट्र की वे समस्याएं तैरती रहती हैं जिनका ताल्लुक सामान्य लोगों से होता है, परन्तु सस्ती लोकप्रियता पाने की गरज से अभद्र भाषा का प्रयोग करके कोई भी कलाकार स्थायी रूप से लोगों के मन में स्थान नहीं बना सकता। इसके लिए वैचारिक स्तर पर परिपक्वता की जरूरत होती है।
पाठकों को याद होगा कि दो दिन पहले ही मैंने सुशान्त सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती से सम्बन्धित इलैक्ट्रानिक मीडिया पर चल रहे प्रचार युद्ध के बारे में लिखा था और लोकतन्त्र में मीडिया की भूमिका के बारे में कुछ हकीकत रखी थी। प्रश्न यह है कि जब चीन के साथ भारत की राष्ट्रीय सीमाओं पर तनातनी चल रही है और कोरोना करोड़ों युवाओं के रोजगार निगल गया हो तब समूचे टीवी चैनलों का ध्यान कंगना और रिया चक्रवर्ती पर केन्द्रित करना क्या यह नहीं दिखाता कि यह प्रचार माध्यम लोकतन्त्र का तमाशा ही बना रहा है? लोकतन्त्र की मर्यादा कहती है कि कंगना रानौत को मुम्बई के बारे में दिये गये अपने बयान पर सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए क्योंकि मुम्बई जैसा है और जो भी है वह भारत के संविधान से अधिकृत राजनीतिक दलों के शासन के अन्तर्गत चल रहा है और मुम्बई पुलिस संविधान की शपथ लेकर ही कानून व्यवस्था की देख रेख कर रही है।
दूसरी तरफ महाराष्ट्र सरकार का भी कर्त्तव्य बनता है कि वह यह देख कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करे कि सामने वाले की स्थिति क्या है और राजनीतिक वजन कितना है? मगर किया क्या जाये राजनीति का स्तर ही जिस प्रकार गिरा है उसे देखते हुए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि राजनीति में ही किस हैसियत से लोग पैर जमा रहे हैं। यह जायज समस्या लोकतन्त्र के सामने है जिसे केवल इस देश की महान जनता ही दुरुस्त कर सकती है। समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में ‘लोकतन्त्र में जब सियासतदां रास्ता भूलने लगते हैं तो लोग खुद आगे बढ़ कर रास्ता दिखाने लगते हैं।’