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हमारा अनूठा संसदीय लोकतंत्र

आज सोमवार से संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू हो रहा है जिसमें वित्त विधेयक पारित किये जाने के साथ ही अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा होगी परन्तु पहले चरण की राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को लेकर हुई चर्चा का नजारा हमारे सामने है।

आज सोमवार से संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू हो रहा है जिसमें वित्त विधेयक पारित किये जाने के साथ ही अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा होगी परन्तु पहले चरण की राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को लेकर हुई चर्चा का नजारा हमारे सामने है। संसदीय लोकतन्त्र में यदि संसद को ही अप्रासंगिक बनाने की कोशिश इसमें मौजूद सत्ता या विपक्ष के किसी भी पक्ष द्वारा की जाती है तो इसे अपनी ‘बुनियाद’ पर खुद ही कुल्हाड़ी चलाने की मानिन्द देखा जाता है और समझा जाता है कि जिस संसद में देश के 130 करोड़ लोगों से अधिक के चुने हुए प्रतिनिधि बैठे हैं वह निरूपाय हो गई है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद को हर हालत में जीवन्त बनाये रखने के लिए जो व्यवस्था खड़ी की उसमें सर्वाधिक महत्ता विपक्ष को दी और यहां तक कहा कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है (डा. भीमराव अम्बेडकर 26 नवम्बर, 1949)। इसके लिए संसद के सदस्यों के विशेषाधिकार तय किये गये जिन्हें दल-गत आग्रहों से ऊपर उठकर प्रत्येक सांसद को दिया गया। इनमें सबसे बड़ा अधिकार संसद के भीतर किसी भी सांसद को बेखौफ होकर अपनी आवाज उठाने का अधिकार है। इसके लिए संसद के भीतर जो व्यवस्था की गई वह भी सत्तारूढ़ किसी भी दल की सरकार के प्रभाव से निर्लिप्त रहने की गई और लोकसभा अध्यक्ष को सांसदों के अधिकारों का संरक्षक बनाया गया और संसद के भीतर किसी भी संसद सदस्य के दिये गये वक्तव्य को किसी भी प्रकार की न्यायिक जांच के दायरे से बाहर रखा गया और अध्यक्ष को इस बाबत वे न्यायिक अधिकार दिये गये जिससे वह सांसद के किसी भी विवादास्पद वक्तव्य की संसद की कार्यवाही चलाने के लिए बने नियमों के भीतर न्यायिक समीक्षा कर सकें। ये नियम स्वयं सांसदों द्वारा ही बनाये गये क्योंकि संसदीय लोकतन्त्र में संसद सार्वभौम है। परन्तु अध्यक्ष की न्यायप्रियता और निष्पक्षता को सिद्ध करने के लिए भी सांसदों को ही अधिकृत किया गया और उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का हक भी उन्हें दिया गया। 
स्वतन्त्र भारत की पहली संसद में ही 1956 में अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था जो कि गिर गया था परन्तु संसद के उच्च सदन राज्यसभा के लिए उपराष्ट्रपति को सभापति का पदेन सभापति अर्थात अध्यक्ष बनाने की परंपरा डाली गई। इस सदन को ‘राज्यों की परिषद’ कहा गया। इस सदन में पहुंचने वाले सदस्य विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा ही चुने जाते हैं। अतः राज्यों के संघ (यूनियन आफ इंडिया) के प्रतिनिधियों के इस सदन के सभापति पद पर उपराष्ट्रपति को बैठाने का मूल मन्तव्य यही था कि भारत के संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के सहायक उपराष्ट्रपति की छत्रछाया में देश की संसद राष्ट्र की एकता का प्रतिबिम्ब बनी रहे। इसके साथ ही केवल राष्ट्रपति के आदेश पर ही संसद का सत्र प्रारम्भ या इसका सत्रावसान किया जाता है, अतः राष्ट्रपति संसद के प्रमुख अंग होते हैं। परन्तु संसद के बजट सत्र के पहले चरण के दौरान राज्यसभा में जो कुछ भी घटा उसे लेकर आज सर्वाधिक चर्चा उपराष्ट्रपति महोदय जगदीप धनखड़ को लेकर ही हो रही है। इसकी वजह यह भी है कि राज्यसभा के बाहर भी संसद की कार्यवाही के सम्बन्ध में उन्होंने कई बयान दिये। 
हमने देखा है कि संसद के दोनों सदनों में जब सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसद बहस करते हैं तो अध्यक्ष के आसन पर बैठे हुए सभापति न्यूनतम हस्तक्षेप करते हैं। इसकी वजह यही है कि उनका पद एक न्यायाधीश का पद होता है। वह स्वयं सत्ता और विपक्ष में से किसी भी पक्ष के पैरोकारी नहीं कर सकते। क्योंकि एेसा आभास देते ही वह अपने पद से जुड़ी संवैधानिकता से उपजी नैतिकता के विपरीत जा सकते हैं। इसी वजह से सदन के भीतर उनके द्वारा दिये गये निर्णय को अन्तिम माना जाता है। संसद के भीतर इसी वजह से सरकार की सत्ता नहीं चलती और अध्यक्ष का आदेश ही कानून होता है। वह सरकार से निरपेक्ष रहकर अपने दायित्व का निर्वाह करते हैं और उनका पृथक सचिवालय होता है। हालांकि उपराष्ट्रपति सरकार का भाग होते हैं मगर जब वह सभापति के आसन पर विराजते हैं तो देश के समस्त राज्यों के प्रतिनिधियों के संरक्षक हो जाते हैं जिनमें सभी राजनैतिक दलों के सदस्य होते हैं। देश की राजनैतिक विविधता के बीच सत्ता और विपक्ष के सांसदों को अपनी-अपनी आवाज बुलन्द रखने की गारंटी सभापति ही देते हैं जिसकी वजह से सदन के भीतर वह न्यायाधीश की भूमिका में आ जाते हैं और राष्ट्रीय एकता के पुरोधा हो जाते हैं।  यह व्यवस्था हमारे पुरखों ने बहुत मेहनत और मशक्कत करके तथा पूरा दिमाग लड़ाकर बनाई थी। संविधान सभा में द्विसदनीय (बाइ केमरियल) संसद की व्यवस्था के बारे में चली लम्बी बहस इसका उदाहरण है। मगर डा. अम्बेडकर ने एक चेतावनी यह भी दी थी कि जो व्यवस्था हम बना रहे हैं उसे चलाने वाले व्यक्ति ही होंगे, अतः उनकी सदाकत बहुत मायने रखेगी। इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति रहे श्री आर.के. नारायण की वह प्रसिद्ध उक्ति भी हमें याद रखनी चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि लोकतन्त्र ने हमें असफल नहीं किया है बल्कि लोकतन्त्र को हम असफल कर रहे हैं। यह बात उन्होंने राजनैतिक दलों की अवसरवादिता को लेकर कही थी। मगर आज जो मूल सवाल खड़ा हो रहा है वह संसद सदस्यों के सदन के भीतर मिले अधिकारों को लेकर खड़ा हो रहा है। इसी वजह से संसद के दोनों सदनों के अध्यक्षों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है। 
संसद में जो सदस्य भी जाता है उसे जनता ही चुनकर भेजती है अतः इसके भीतर सत्ता पक्ष के सांसद के भी वही अधिकार हैं जो विपक्ष के सांसद के हैं क्योंकि जनता जब वोट डालती है तो वह सत्ता और विपक्ष का चुनाव नहीं करती। सत्ता और विपक्ष तो संसद में आने के बाद ही बनते हैं जिसे सरकार के गठन की प्रक्रिया कहा जाता है और यह सरकार सभी 130 करोड़ से अधिक देशवासियों की होती है। यही तो खूबसूरती है हमारे संसदीय लोकतन्त्र की जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहा जाता है। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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