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प. बंगाल में चुनावी बिसातें

प. बंगाल के बारे में एक तथ्य सर्वप्रमुख है कि अविभाजित भारत में ही इसे देश का ‘दिमाग’ कहा जाता था जबकि संयुक्त पंजाब को देश का ‘बल’ अर्थात ताकत समझा जाता था।

प. बंगाल के बारे में एक तथ्य सर्वप्रमुख है कि अविभाजित भारत में ही इसे देश का ‘दिमाग’ कहा जाता था जबकि संयुक्त पंजाब को देश का ‘बल’ अर्थात ताकत समझा जाता था। मगर मजहब के सौदागर मरहूम मुहम्मद अली जिन्ना की हिमाकत देखिये कि 1947 में अंग्रेजों के साथ साजिश रच कर उसने इन दोनों प्रान्तों को बांट कर ही नाजायज मुल्क पाकिस्तान का निर्माण कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इस भयंकर मानव त्रासदी का घाव तब थोड़ा भरा गया जब 1971 में बांग्लादेश का निर्माण पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने अपनी मूल बांग्ला संस्कृति की रक्षार्थ किया। अतः यह बेवजह नहीं है कि भारत में अभी तक सबसे ज्यादा नोबेल पुरस्कार बंगाल वासियों को ही मिले हैं। स्वतन्त्र भारत की राजनीति में प. बंगाल के लोगों की भूमिका इस प्रकार रही है कि इन्होंने लोकतन्त्र में अपनी भूमिका को सर्वोपरि मान कर हमेशा सत्ता के ऐसे समीकरण गढे़ जिनसे किसी भी विचारधारा की जमीन पर पूरी तरह तसदीक हो सके। अतः इस राज्य में वामपंथियों का लगातार 34 वर्ष तक सत्ता में बने रहना कोई चमत्कार नहीं था बल्कि मतदाताओं द्वारा कम्युनिस्ट विचारधारा की पक्की परख थी।
कम्युनिस्टों के समयानुरूप लोकतान्त्रिक प्रणाली में लोक अपेक्षाओं पर खरा न उतरने की वजह से 2011 में इतना जबर्दस्त विद्रोह हुआ कि 1996 में ही बनी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस धुंआ उड़ाती हुई सत्ता पर काबिज हुई। बिना शक ममता दी की पार्टी मूल रूप से कांग्रेस से ही अलग हुई पार्टी थी मगर उन्होंने वामपंथियों के शासन के विकल्प के रूप में एक ठोस तजवीज रखी जिसे लोगों ने स्वीकार कर लिया। ममता दी की शासन व्यवस्था 2016 में भी लोगों को पसन्द आयी और इन चुनावों में उन्हें पहले से भी ज्यादा बड़ी जीत हासिल हुई परन्तु 2021 की कहानी कुछ दूसरी है जिसमें वामपंथी शासन की कार्यप्रणाली के घुस जाने का आरोप केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी लगा रही है। बेशक वर्तमान चुनावों का एजेंडा  हर सप्ताह इस प्रकार बदल रहा है कि राज्य के मतदाता का विमर्श स्पष्ट नहीं हो पा रहा है परन्तु एक बात साफ है कि चुनावों में असली लड़ाई ममता दी व भाजपा के बीच ही होगी।
इस विमर्श को बदलने के लिए राज्य में वामपंथियों व कांग्रेस तथा फुरफुरा शरीफ के इमाम की नई पार्टी के बीच गठजोड़ की घोषणा की गई है जिससे ममता विरोधी वोटों का बंटवारा हो सके और भाजपा के खाते में ये वोट थोक के हिसाब से न जा सकें। दूसरी तरफ भाजपा ने जो चुनावी चौसर बिछायी है उसमें वामपंथियों की हिस्सेदारी इसलिए संभव नहीं है क्योंकि उसे प. बंगाल के लोग पहले ही पूरी तरह परख कर अपना पल्ला झाड़ चुके हैं। रोचक पहलू यह है कि राज्य में वामपंथी विचारधारा का नामोनिशान बाजारमूलक अर्थव्यवस्था ने इस तरह हल्का कर दिया है कि पूंजीवाद का विरोध समाप्त हो चुका है अतः सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि इस गठबन्धन में वामपंथी अब कांग्रेस के सहारे तैरना चाहते हैं क्योंकि वह भाजपा की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचक है जबकि मूल बाजारवाद से उसका कोई सैद्धांतिक विरोध नहीं है।
राज्य में जिन 30 प्रतिशत अल्पसंख्यक मतदाताओं को रिझाने की गरज से फुरफुरा शरीफ के इमाम इस गठबन्धन में घुसे हैं, उनकी भूमिका मात्र गठबन्धन के चुनावी मंचों की सज्जा बढ़ाने से ज्यादा इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि मुस्लिम समुदाय स्वतन्त्र भारत के इतिहास में कभी भी मजहबी उलेमाओं या इमामों के फेर में फंसने से बचता रहा है और अपना सियासी कार्ड बहुत सावधानी के साथ हिन्दू लीडरों की रहनुमाई में चलता रहा है। अतः सिर्फ प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को अपशब्द कहने वाली पार्टियों व नेताओं को लीडरी की कमान मिलनी मुश्किल है। दीवार पर यह इबारत लिख दी गई है कि प. बंगाल में असली मुकाबला मुख्यमन्त्री ममता दी व प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के बीच ही होना है। यह बात अलग है कि भाजपा सीएम पद के लिए योग्य चेहरे को लेकर अपनी रणनीति भी जरूर बनाए बैठी है। इधर प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री अमित शाह इस प्रकार की कोशिश कर रहे हैं जिससे केन्द्र की लोक हितकारी परियोजनाओं को चुनावी विमर्श के केन्द्र में लाकर ममता दीदी को हाशिये पर खड़ा किया जा सके। बेशक फिलहाल इस राज्य के चुनावों में प्रचार के स्तर पर ऐसे मुद्दों काे हवा दी जा रही है जिनका समन्वित रूप से राज्यतन्त्र का लेना-देना न रह कर स्थानीय प्रशासनिक तन्त्र से मतलब रहता है लेकिन प्रायः हर चुनाव के शुरू में ऐसा ही होता है और असली विमर्श तब उभरता है जब  बात सकल प्रशासनिक प्रणाली की होती है।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने विकास और भ्रष्टाचार का जो जिक्र प. बंगाल की सरकार के बारे में किया था, वही विमर्श अन्ततः इस राज्य के लोगों के बौद्धिक चक्षुओं पर प्रभावी होकर चुनाव के नतीजों को तय कर सकता है। इसकी वजह बंगाल की वह महान संस्कृति है जो उन्हें मानव प्रेम का सन्देश हर दिशा और कोण से देती है, यहां तक कि बंगाल के तीज-त्यौहार भी मूल रूप से धर्म की पूजा पद्धति को महत्व नहीं देते। विविधताओं से भरे भारत में प्रत्येक राज्य की राजनैतिक संस्कृति भी विविधता से भरी हुई है और कुशल राजनीतिज्ञ वही कहलाता है जो इस विविधता के बीच अपने राजनैतिक दर्शन की स्थापना करता है। अतः भाजपा जिस राष्ट्रवाद को चुनावी विकल्प बनाने की तरफ बढ़ रही है उसके परिणाम बेहतर हो सकते हैं क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनावों में मतदाताओं ने इस विचारधारा को स्वीकार्यता प्रदान करते हुए ही लोकसभा की 42 में 18 सीटें भाजपा को दी थीं परन्तु विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय स्तर पर विचारधाराओं की लड़ाई को मुद्धा तभी बनाया जा सकता है जब ममता दी का मुकाबला पूरी बौद्धिकता के साथ किया जाये।  वामपंथी-कांग्रेस गठबन्धन को तो सबसे पहले भाजपा से ही टक्कर लेनी होगी ।

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