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पत्थरों से सर पीटता पाकिस्तान!

1972 में ही यह साफ हो गया था कि कश्मीर मसले से जुड़ी हुई जो भी बातें इससे पहले हुई हैं वे सिर्फ अफसाना हैं और अब आगे मुद्दे की बात शिमला समझौता ही होगा।

चीन के कन्धे पर बैठकर राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद की बन्द कमरे में हुई अनौपचारिक बैठक आयोजित कराने में पाकिस्तान अगर सफल हो जाता है तो इसका मतलब यह कतई नहीं निकलता है कि कश्मीर मामले का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने में इस्लामाबाद को किसी तरह की मदद मिल सकती है, बल्कि उल्टे यह सवाल कशीदगी के साथ भारत उठा सकता है कि पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के तहत किसी दूसरे देश के साथ किये गये अपने वादों को निभाने से पीछे हट रहा है और एक गैर जिम्मेदार मुल्क की तरह बर्ताव कर रहा है। 1972 का शिमला समझौता पाकिस्तान ने भारत के साथ किया था जिसमें यह अहद था कि कश्मीर समेत भारत के साथ सभी विवादित मुद्दे वह केवल बातचीत द्वारा शान्तिपूर्ण तरीके से निपटायेगा। 
अतः 1972 में ही यह साफ हो गया था कि कश्मीर मसले से जुड़ी हुई जो भी बातें इससे पहले हुई हैं वे सिर्फ अफसाना हैं और अब आगे मुद्दे की बात शिमला समझौता ही होगा। इसलिए 1948 के राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव का जो रोना पाकिस्तान अब रो रहा है उसे उसने खुद ही 1972 में जमींदोज कर डाला था। अतः चीन को भी विचार करना होगा कि वह उस मुल्क का हमदर्द बनने की भूल कर रहा है जिसका इतिहास वादा फरामोशी से भरा पड़ा है मगर कूटनीति कहती है कि भारत के ऐतिहासिक पड़ोसी होने की वजह से चीन के साथ हमारे सम्बन्ध इस प्रकार के होने चाहिए कि किसी दूसरे पड़ोसी के साथ हमारे विवाद के चलते वह तटस्थ बना रहे।
इस सन्दर्भ में हमसे कहां चूक हुई है इसका उत्तर हमें मिल चुका है क्योंकि चीन के आर्थिक हित पाकिस्तान से इस तरह बन्धे हुए हैं कि वह सीपैक परियोजना के माध्यम से पूरे एशिया में अपना दबदबा बनाना चाहता है और इस काम में उसी कश्मीर का पाक के कब्जे में पड़ा हुआ हिस्सा काम आ रहा है जिसे पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है। अतः कश्मीर का मसला उठाने में चीन के अपने हित भी साफ दिखाई पड़ रहे हैं इसी वजह से उसे वह शिमला समझौता नजर नहीं आ रहा है जिस पर 1972 में पाकिस्तान की बाजाब्ता सरकार के दस्तखत हैं। 
बेशक चीन सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है मगर रूस, फ्रांस व अमेरिका भी इसके सदस्य हैं आैर उन्हें साफ दिखाई पड़ रहा है कि कश्मीर भारत औऱ पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मसला है जिसे दोनों देशों को आपसी बातचीत से ही हल करना चाहिए मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35(ए) को हटा कर अतर्राष्ट्रीय भौगोलिक सीमाओं के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की है बल्कि बल्कि भारतीय संविधान के प्रावधानों में ही भारत की संसद की मार्फत परिवर्तन किया है जो पूरी तरह दुनिया के किसी भी कानून के तहत एक संप्रभु राष्ट्र का अन्दरूनी मामला है। 
इसका पाकिस्तान से किसी प्रकार का कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि भारत ने अपने ही एक राज्य की संरचना में संवैधानिक उपायों से संशोधन किया है  परन्तु पाकिस्तान इसे लेकर इस तरह बौखला गया है कि मानों उसकी दुनिया ही उजड़ गई हो। गौर से देखा जाये तो यह हकीकत भी है क्योंकि पाकिस्तान ने अपने वजूद को कायम रखने के लिए अपने यहां एक ‘कश्मीर उद्योग’ स्थापित कर लिया था जिसे उसकी नामुराद फौज दहशतगर्द तंजीमों को पाल-पोस कर चला रही थी और सीमा पार कराकर कश्मीर घाटी में भी जेहादी जुनून के नाम पर यहां भी उसकी शाखाएं खोलने में लगी हुई थी। इसमें जम्मू-कश्मीर में लागू  अनुच्छेद 370 और 35(ए), सुविधामूलक का काम कर रहे थे। 
अतः इनके समाप्त होने से उसके होश फाख्ता हो गये। दरअसल कश्मीर मसले को पाकिस्तान के हुक्मरानों ने जिस तरह अपने वजूद की शर्त बनाया और उसकी फौज ने इसे अपनी रोजी-रोटी का जरिया बनाया उसी वजह से यह आज पत्थरों से सर पटकता नजर आ रहा है और चीन की गोद में बैठकर इसे अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बना देने का सपना पाल रहा है। मगर दीवार पर लिखी इस इबारत को कौन मिटा सकता है कि पाकिस्तान दुनियाभर में दहशतगर्दों की जरखेज जमीन बन चुका है और अपने ही पैदा किये हुए कांटों की बाढ़ से घिर चुका है।
आखिरकार चीन को भी अन्ततः मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी मानना ही पड़ा लेकिन कूटनीति कहती है कि छोटे से छोटे दुश्मन को भी तुच्छ मानना भूल होती है इसलिए इस मोर्चे पर भारत को बहुत सावधान होकर चलना पड़ेगा और अन्तर्राष्ट्रीय मोर्चे पर पाकिस्तान को लगातार गैर जिम्मेदार मुल्क सिद्ध करना होगा। जो भाषा इसके वजीरे-आजम इमरान खान आजकल बोल रहे हैं उसमें भारत का डर उन्हें सता रहा है और वह ऊल-जुलूल घोषणाएं करते नजर आ रहे हैं मगर हकीकत इमरान भी जानते हैं कि भारत की हैसियत पूरी दुनिया में क्या है और यहां के नागरिकों का रुतबा क्या है? 
पाकिस्तान के परमाणु बम से लैस होने की गीदड़ भभकी खुद ही चीख बनकर बालाकोट कार्रवाई के बाद निकल चुकी है अतः रक्षा मन्त्री श्री राजनाथ सिंह का यह कथन ही काफी है कि ‘पहले परमाणु वार न करने की भारत की नीति’ में समय देखकर संशोधन भी हो सकता है, काफी है। पूरी दुनिया जानती है कि भारत ने परमाणु शक्ति का सृजन आत्मरक्षार्थ किया है जब कोई पड़ोसी मुल्क गैर जिम्मेदार हो तो इसका मन्तव्य और भी ज्यादा जिम्मेदारी भरा हो जाता है। मगर पाकिस्तान को समझना चाहिए कि यह 21वीं सदी का भारत है और चीन को भी समझना चाहिए कि यह 1962 का भारत नहीं है। 
बन्द कमरे में हुई सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक का मतलब इतना ही है कि कश्मीर मसले पर इसके सदस्यों के बीच ऐसी चर्चा हुई जिसका कोई आधिकारिक संज्ञान नहीं लिया जा सकता और इसमें हिस्सा लेने वाले सदस्य केवल अपना मत बता सकते हैं और अधिसंख्य सदस्यों का मत यही था कि यह द्विपक्षीय मसला है। यहां तक कि चीन के प्रवक्ता ने भी व्यक्तिगत हैसियत से इस बैठक के बारे में यह भी कहा कि भारत व पाक को इसका आपसी हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए।

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