शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने क्रांति का बिगुल फूंका था। तब पाकिस्तान का नामोनिशान नहीं था। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह को राजगुरु और सुखदेव के साथ लाहौर की जेल में फांसी दे दी गई थी। देश विभाजन के बाद धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान के हुकुमरानों ने भारत के साथ दुश्मनी ही निभाई और अपनी सियासत की दुकानें चमकाने के लिए पाकिस्तान के आवाम का ध्यान भारत विरोध पर केन्द्रित किया। भगत सिंह भारत के नायक तो हैं ही, उसी तरह पाकिस्तान के भी नायक हैं। पाकिस्तान में आज भी ऐसे लोग हैं जो भगत सिंह को अपना हीरो मानते हैं। भगत सिंह की पैदाइश पाकिस्तान में हुई। बचपन से लेकर जवानी तक कुछ वक्त वहीं गुजरा और वहीं फांसी पर चढ़ाए गए। आज की युवा पीढ़ी शायद यह नहीं जानती कि पाकिस्तान के लाहौर से भगत सिंह का गहरा नाता है। लाहौर के डीएवी स्कूल से स्कूलिंग की और बाद में नेशनल कॉलेज लाहौर में एडमिशन ले लिया। लाहौर में ही खड़ा है वो नीम का दरख्त जिसके पीछे खड़े होकर भगत सिंह और उसके साथी जेम्स स्कॉट का इंतज़ार कर रहे थे। हालांकि सामने एसपी ऑफिस से सॉन्डर्स निकला और वहीं ढेर कर दिया गया। इस जगह से कुछ दूर डीएवी कॉलेज था। पार्टीशन के बाद इसका नाम गवर्मेंट इस्लामिया कॉलेज कर दिया गया। सॉन्डर्स को गोली मारने के बाद भगत सिंह इसी कॉलेज की तरफ भागे थे। एक पुलिस वाला उनके पीछे आया। चंद्रशेखर आजाद ने उसे भी गोली मार दी। सॉन्डर्स की हत्या के बाद भगत सिंह ने लोहारी मंडी में अपने एक जान पहचान वाले के यहां रात गुजारी। अगली सुबह दयाल सिंह कॉलेज के हॉस्टल में चले गए। हॉस्टल के सुपरिंटेंडेंट ने चार दिन उन्हें अपने यहां छिपाकर रखा। इस दौरान भगत सिंह रोज़ लक्ष्मी चौक का चक्कर लगाते थे चाट-पकौड़ी खाने के लिए। इस दौरान भगत सिंह ने एक रात ख्वाजा फिरोजुद्दीन के घर भी काटी थी। ख्वाजा फिरोज़ुद्दीन मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के दामाद थे। वही अल्लामा इकबाल जिन्हें मुफक्किर-ए-पाकिस्तान यानी पाकिस्तान का विचारक कहा जाता है और जिनका तराना आज भी हिंदुस्तान में गाया जाता है- सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
पाकिस्तान में हर साल 23 मार्च को भगत सिंह की स्मृति में कार्यक्रम आयोिजत किया जाता है। भगत सिंह मैमोरियल फाउंडेशन नाम का एक संगठन भगत सिंह की यादों को पाकिस्तान में संजोने का काम कई सालों से कर रहा है। यह कार्यक्रम लायलपुर के गांव बंगा में किया जाता है। लायलपुर का नाम अब पाकिस्तान के नक्शे में नहीं दिखाई देता। क्योंकि इस शहर का नाम बदल कर फैसलाबाद कर दिया गया है। पंजाब में खटकड़ कलां गांव को भगत सिंह का पैतृक गांव माना जाता है लेकिन उसके पीछे वजह कुछ और है। दरअसल भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह का जन्म खटकड़ कलां गांव में हुआ था लेकिन वह 1900 में परिवार के साथ लायलपुर चले गए थे लेकिन भगत सिंह की फांसी के बाद वह फिर खटकड़ कलां आकर रहने लगे थे। पाकिस्तान में फाउंडेशन द्वारा शदमान चौक का नाम शहीद भगत सिंह चौक रखने की मांग की गई थी। वर्ष 2012 में पाकिस्तान सरकार तैयार भी हो गई थी लेकिन कट्टरपंथी संगठनों के विरोध के चलते सरकार को पीछे हटना पड़ा। भगत सिंह के पिता द्वारा बनाई गई हवेली को भी राष्ट्रीय समारक का दर्जा देना भी वहां की सरकार ने स्वीकार कर लिया था लेकिन कट्टरपंथी संगठनों के डर से उसकी देखरेख सही ढंग से नहीं हो रही।
भगत सिंह मैमोरियल फाउंडेशन ने दो साल पहले लाहौर हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने भगत सिंह की फ़ांसी का मुकदमा दोबारा खोलने की बात कही थी। इस फाउंडेशन का मानना है कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को गलत मुक़दमे के तहत फ़ांसी दी गई और इस मामले में ब्रिटिश हुकूमत से माफ़ी की मांग भी की थी।
इस वर्ष भी 23 मार्च को भगत सिंह की स्मृति में कार्यक्रम करने की तैयारियां चल रही हैं। लाहौर हाईकोर्ट ने पुलिस को इस कार्यक्रम को फुलप्रूफ सुरक्षा देने का निर्देश दिया है। भगत सिंह को जितना भारत में सम्मान दिया जाता है उतना ही पाकिस्तान में भी उन्हें सम्मान मिल रहा है। दरअसल भगत सिंह निर्विवाद नायकों में से एक हैं और उनके कद का चिंतनशील क्रांतिकारी कोई दूसरा नजर नहीं आता। भारत में समस्या यह भी है कि यहां के राजनीतिक दलों ने शहीदों को भी जाति और धर्म से पहचानना शुरू किया तो भगत सिंह को सिख के रूप में देखा जाने लगा। कम्युनिष्ट उन्हें वामपंथी साबित करने में लगे रहे क्योंकि उन्होंने कार्लमार्क्स को पढ़ा था। जबकि भगत सिंह विशुद्ध राष्ट्रवादी थे। भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर जमी बर्फ पता नहीं कब पिघलेगी लेकिन यह बात सच्ची है कि दोनों देशों का आवाम एक-दूसरे से रिश्ते कायम करने का इच्छुक है। जब करतारपुर कॉरिडोर और अन्य सिख धार्मिक स्थल खोले जा सकते हैं तो भारतीयों को शहीद-ए-आजम से जुड़े स्थानों को देखने की अनुमति तो दी ही जानी चाहिए। काश! पाकिस्तान के हुकुमरान आतंकवाद को सरकार की नीति बनाना छोड़ दें तो उसे खुद आतंकवाद से मुक्ति मिल जाएगी। शहीदों ने आजादी की लड़ाई यह सोचकर नहीं लड़ी थी कि पाकिस्तान अलग देश बनेगा और भारत को लहूलुहान करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा। भारत आज भी अश्वाकउल्ला जैसे मुस्लिम शहीदों को याद करता है, जिन्होंने आजादी के लिए शहादतें दी हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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