पाकिस्तान की समझ में यह अच्छी तरह आ जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के मामले में किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है और न ही यह अंतर्राष्ट्रीय विवाद का मुद्दा है। दीवार पर लिखी हुई इबारत यह है कि 1947 में भारत से टूटकर पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद महाराजा हरिसिंह की तत्कालीन स्वतन्त्र रियासत जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की हैसियत एक हमलावर मुल्क की थी जिसका मुकाबला महाराजा की प्रार्थना पर भारत की जांबाज दिलेर फौजों ने किया था और पाकिस्तानी हमलावरों को पीछे खदेड़ दिया था।
एवज में महाराजा ने अपनी पूरी रियासत का विलय भारतीय संघ में करने के कागजात पर दस्तखत कर दिये थे किन्तु तत्कालीन भारतीय प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू पाक के रवैये को लेकर तब राष्ट्रसंघ में चले गये थे और उसने युद्ध विराम का प्रस्ताव कर दिया था जिसकी वजह से आज का पाक अधिकृत कश्मीर पाकिस्तान के नियन्त्रण में ही रह गया था मगर इस हकीकत को कोई नहीं बदल सकता कि यह हिस्सा भी महाराजा की रियासत का ही भाग था।
बेशक राष्ट्रसंघ ने पूरे जम्मू-कश्मीर में ‘जनमत संग्रह’ कराने का प्रस्ताव किया था किन्तु यह भी सच है कि इस प्रस्ताव को भारत ने तभी रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए घोषणा कर दी थी कि मूल रूप से ऐसा प्रस्ताव अंग्रेजों द्वारा भारत को आजाद किये जाने से सम्बन्धित उस ‘भारत सरकार कानून’ के खिलाफ है जिसमें किसी भी देशी रियासत को भारत या पाकिस्तान में से किसी भी एक स्वतन्त्र देश में स्वयं को विलीन करने या खुद मुख्तार बने रहने की इजाजत दी गई थी।
अतः साफ तौर पर भारत का कानूनी रुख 26 अक्टूबर 1947 के बाद से यह रहा कि पाकिस्तान ऐसा हमलावर मुल्क है जिसने उसके एक हिस्से पर गैर कानूनी तरीके से जबरन कब्जा किया हुआ है। दीगर बात यह थी कि जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ के एक राज्य के रूप में मान्यता देते हुए तत्कालीन नेहरू सरकार ने संविधान में उल्लिखित उस अनुच्छेद के अन्तर्गत नहीं रखा जो केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को निर्धारित करता है बल्कि उसके लिए अलग से एक अनुच्छेद 370 को संविधान में जोड़ते हुए लिखा गया कि यह ‘अस्थायी-सामयिक’ प्रावधान है।
अतः इस अनुच्छेद को भारत की सरकार जब चाहे समय की मांग के आधार पर समाप्त कर सकती थी और इसके लिए भारतीय संविधान के नियमानुसार क्रियात्मक रास्ता अपना सकती थी। वर्तमान मोदी सरकार ने यही कार्य नियमानुसार किया है और ऐसा करने की शक्ति संविधान से ही ली है। अतः अनुच्छेद 370 को रफा-दफा करना हर दृष्टि से पूरी तरह भारतीय संघ का आन्तरिक मामला है जिसे दुनिया की किसी भी अदालत में न तो चुनौती दी जा सकती है और न ही कोई अन्य विश्व पंचायत इस बारे में अपनी कोई भी राय रख सकती है।
किसी भी स्वतन्त्र, सार्वभौम प्रभुसत्ता सम्पन्न ‘गणतान्त्रिक’ राष्ट्र का संविधान हर चुनौती से ऊपर होता है लेकिन जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में पाकिस्तानी हिमाकत की रोशनी में यह तथ्य भी बहुत महत्वपूर्ण है कि 1972 में भारत-पाक शिमला समझौता हो जाने के बाद ‘इस्लामाबाद’ की हर हुकूमत को इस अहद से तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी ने बांध दिया था कि वह दोनों मुल्कों के बीच के किसी भी मसले को केवल आपसी बातचीत से अमन-चैन के माहौल में हल करेगा।
यही वजह रही कि पाकिस्तान के हुक्मरानों की जुबान पर इसके बाद 1998 तक जम्मू-कश्मीर का नाम तक नहीं आया हालांकि 1989 से लेकर 1998 तक पाकिस्तान की शह पर ही भारत के इस खूबसूरत राज्य में आतंकवाद फैला कर इसे जहन्नुम में तब्दील करने की पुरजोर कोशिश की गई और इस्लामी तास्सुब को फर्ज करते हुए घाटी से हिन्दू कश्मीरी पंडितों को 1990 के बाद से बेदखल किया गया और हुर्रियत कान्फ्रेस जैसी आतंकवादियों की हिमायती और अलगाववादी तंजीम खड़ी की गई।
यह भारत का दुर्भाग्य था कि जम्मू-कश्मीर समस्या का उल्लेख 1972 के बाद पहली बार 1998 में उस गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मंच पर उठाया गया जिसकी अगुवाई शुरू से ही आजाद भारत ने की थी। इस मसले को उठाने का काम भी दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. नेल्सन मंडेला ने किया था जिन्हें 1990 में ‘भारत रत्न सम्मान’ से विभूषित करने का कार्य नई दिल्ली की केन्द्र सरकार ने ही किया था। मंडेला पूरे विश्व में रंगभेदी नस्लवाद के खिलाफ मुिहम चलाने वाले अपने दौर के गांधी के रूप में विख्यात थे।
संयोग से 1998 में देश के प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी थे जो कश्मीर समस्या को समाप्त करने के लिए हुर्रियत के नेताओं से भी बात कर रहे थे और सार्वजनिक रूप से कश्मीरी नेताओं से कह रहे थे कि वह बातचीत के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं, संविधान की सीमा क्या होती है वह इंसानियत और कश्मीरियत के दायरे में बात करने को तैयार हैं परन्तु इसका उलटा असर हुआ और इसके बाद पाकिस्तान के हुक्मरान कश्मीर मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर फिर से उठाने की जुर्रत करने लगे।
1998 में पाकिस्तान ने भी भारत के दूसरे परमाणु परीक्षण के समानान्तर परमाणु परीक्षण करके खुद को एटमी ताकत बनाने की हेकड़ी दिखाई और 1999 के मई-जून महीने में भारत के कारगिल क्षेत्र में घुसपैठ करके भारतीय फौज के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया तो अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा कि कश्मीर परमाणु बम के मुहाने पर बैठा हुआ है। इसी साल के अंत में जब क्लिंटन भारत यात्रा पर आये तो वह संसद के संयुक्त सत्र को सम्बोधित करते हुए यह भी कह गये कि पाकिस्तान को कारगिल से हटने के लिए हमने मजबूर किया था परन्तु आज हालात किस कदर बदले हैं इसका अन्दाजा हर भारतीय को अवश्य होना चाहिए।
प्रधानमन्त्री मोदी आजकल अमेरिका की सात दिन की यात्रा पर हैं और उन्होंने ह्यूस्टन में इस देश के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की उपस्थिति में सिंह गर्जना की ‘आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई करने का समय अब आ गया है।’ उनके इस आह्वान ने डोनाल्ड ट्रम्प के कानों में वह गूंज छोड़ी कि जब पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान ने उनसे भेंट की तो उन्होंने स्वीकार किया कि कश्मीर पर मध्यस्थता करने के मुसल्लिक उन्होंने भारत का ऐसा भीषण आक्रामक रुख देखा है जिसका वहां मौजूद सभी 50 हजार लोगों ने स्वागत किया। अतः वह मध्यस्थता तभी कर सकते हैं जब दूसरा पक्ष भी उनसे इसके लिए इच्छा जाहिर करे।
मेरा कहने का मतलब केवल इतना है कि कूटनीति का केवल एक पक्ष ही नहीं होता बल्कि वह दूसरा पक्ष भी होता है जिसमें आग के दरिया को पार करने के लिए खुद को शोला बना कर तैरना पड़ता है। असली सवाल तो पाकिस्तान के साथ यह है कि वह सबसे पहले आतंकवाद को अपनी सरजमीं से नेस्तनाबूद करे तभी तो उसके साथ भारत बात कर सकता है और अमेरिका के साथ उसका रिश्ता इसी आतंकवाद को खत्म करने के सिरे से बन्धा हुआ है। इमरान खान किस मुंह से डोनाल्ड ट्रम्प से फरियाद करेंगे। मोदी की कूटनीति ने उन्हें ‘न घर का छोड़ा है न घाट का…’ इस जुमले को पाठक चाहें तो खुद पूरा कर सकते हैं।