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क्रिकेट के बहाने पाकिस्तान !

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क्रिकेट के खेल को जिस तरह सियासत का जरिया बनाकर कश्मीर वादी में पाकिस्तान की इंग्लैंड पर हुई जीत का जश्न मनाया गया है वह भारत की संप्रभु सत्ता को चिढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि कुछ दिन पहले ही चैंपियंस ट्राफी के लिए खेले जा रहे क्रिकेट मैचों में भारत की पाकिस्तान पर शानदार जीत दर्ज हो जाने के बाद इसी घाटी में जश्न तो दूर कहीं एक दीया तक जलाने की जहमत भी नहीं उठाई गई थी। यह सरासर भारत के लोगों के दिलों को दुखाने की गरज से ही कुछ पाक परस्त तंजीमों और चुनीन्दा लोगों की शह पर किया गया कारनामा था मगर अफसोस तो तब होता है जब भारत के पैसों पर सारे एशो-आराम फरमाने वाले हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेता ट्वीट करके पाकिस्तानी खिलाडिय़ों की हौसला अफजाई करते हैं और जश्न मनाने को सही ठहराते हैं। कान्फ्रेंस के नेता मीर वाइज मौलवी उमर फारूख ने ऐसा करके रमजान के महीने में नमक के हक को हलाक करके पूरे हिन्दोस्तान की हुकूमत के रुतबे को पामाल करने की नाकारा कोशिश की है।

शायद ये लोग सोचते हैं कि उनके ऐसे अमाल से रियासत जम्मू- कश्मीर की हैसियत में कोई बदलाव आ सकता है तो यह उनकी खामा-ख्याली होगी। कश्मीर का बच्चा-बच्चा जानता है कि उमर फारूख के पुरखे मौलवी यूसुफ शाह के बाहैसियत मीर वाइज 1947 में भारत बंटवारे के समय पाकिस्तान चले जाने के बावजूद कश्मीरी लोगों ने पाकिस्तान को तामीर किये जाने की मुखालफत की थी। उमर फारूख के पिता मौलवी मोहम्मद फारूख 1968 तक नायब मीर वाइज के तौर पर ही काम करते रहे और 1968 में यूसुफ शाह के इन्तकाल फरमाने के बाद ही मीर वाइज बने थे मगर यह भी हकीकत है कि मरहूम मीर वाइज मोहम्मद फारूख के खयालात मौलवी शाह से नहीं मिलते थे। यह किस्सा लिखे जाने की जरूरत इसलिए है कि मौलवी उमर फारूख को यूसुफ शाह या मोहम्मद फारूख के रास्तों में से एक को चुनना है क्योंकि उन्होंने वह दयानतदारी छोड़ दी है जिसके लिए उनके पिता मशहूर थे। दूसरी हकीकत यह है कि कश्मीर में आतंकवाद की शुरूआत मोहम्मद फारूख का मई 1990 में कत्ल किये जाने के बाद से ही जुल्मों-गारत के तौर पर हुई है और पाकिस्तान की तरफ से इसे भड़काने की कोशिशें तेज हुई हैं मगर क्या कयामत है कि रमजान के पाक महीने में कश्मीर का मीर वाइज अपने मुल्क को शर्मिन्दा करने की हरकतें कर रहा है। मीर वाइज का काम लोगों को ईमान की राह पर चलाने का होता है और अपने मुल्क का शैदाई होना भी रसूले पाक का एक फरमान है इसलिए मीर वाइज साहब ने कुफ्र तोलने का गुनाह कर डाला है।

क्रिकेट के बहाने कश्मीरियों को मुल्क की बेइज्जती करने के लिए इस कदर उकसाना कि वे एक दुश्मन समझे जाने वाले मुल्क की जीत पर जश्न मनाने लगें सिर्फ गद्दारी के खांचे में डाला जा सकता है, बेशक यह जहनी तौर पर ही किया गया कारनामा है मगर इसके नतीजे मुल्क की परस्ती की ही निगेहबानी करते हैं। अच्छे खेल पर खुशी मनाना कोई बेशक बुरी बात नहीं है मगर तब क्या हुआ था जब भारत की टीम ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी? क्या भारत के खिलाडिय़ों के खेल की तारीफ कश्मीर के लोगों को नहीं करनी चाहिए थी मगर सारे कश्मीरी ऐसे जश्नों की साजिश में शामिल नहीं थे, कुछ गिने-चुने लोग ही पत्थरबाजों की तर्ज पर अपनी भड़ास निकाल रहे थे और भारत के खिलाफ नारे लगा रहे थे तथा पाकिस्तान के झंडे लहरा रहे थे। ऐसा नहीं है कि घाटी में कभी पहले पाकिस्तान के झंडे चन्द राष्ट्र विरोधी लोगों ने नहीं फहराये। पिछला इतिहास देखा जाये तो पचास, साठ और सत्तर के दशक के शुरू तक यह काम इस सूबे की सियासी जमात जनमत संग्रह मोर्चा की सदारत में दक्षिण कश्मीर के कुछ हिस्सों में अक्सर हो जाया करता था।

तब जनसंघ के नेता स्व. पं. प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में इसका पुरजोर विरोध भी होता था मगर अब हालात बदल चुके हैं, पाकिस्तान वादी में न केवल आतंकवादी भेज रहा है बल्कि कश्मीरी नौजवानों को आतंकवादी भी बना रहा है। ऐसा काम वह अपने कब्जे वाले कश्मीर में दहशतगर्दों की जमातों को पनाह देकर कर रहा है मगर मौलवी फारूख जैसे पाक परस्त लीडरों के पास इस बात का क्या जवाब है कि ऐसे माहौल में भी हजारों कश्मीरी युवा फौज में जाना चाहते हैं यहां तक कि नौजवान युवतियां भी पुलिस में भर्ती होना चाहती हैं। युवा पीढ़ी इंजीनियर से लेकर आईएएस और अच्छे खिलाड़ी बनकर भारत का नाम रौशन करना चाहते हैं। दरअसल देश विरोधी अलगाववादी लोगों और तंजीमों की सांस अब फूलने लगी है और ये अपने गुनाहों की इन्तेहा करने पर तुले हुए हैं। इसी वजह से तो क्रिकेट के बहाने मुल्क के साथ मुखबिरी करने पर आमादा हैं। खुदा ऐसी जहनियत वालों के गुनाहों का हिसाब भी दर्ज किये बिना अपना इंसाफ कैसे करेगा? हुर्रियत कान्फ्रेंस के मौलवी फारूख सरीखे सारे नेता कान लगाकर सुनें, जो कश्मीरी युवा पीढ़ी इस तरह उन्हें सुना रही है,

”चल नहीं पाये जो कल वक्त की रफ्तार के साथ
लग गये ‘वक्त’ के हाथों वे ही ‘दीवार’ के साथ।”

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