कुछ दिवस पूर्व पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की पुण्य तिथि बड़ी खामोशी के साथ गुजर गई। पंडित दीन दयाल उपाध्याय का अमूल्य योगदान रहा है, भारत की संस्कृति, शिक्षा और ईमानदारी की राजनीतिक मर्यादा पर नाज है। संघ सर भाजपा ने अपने कुछ कर्णधारों को जो उनका अधिकार था। इस सूची में, सावरकर सर्वोपरि हैं, जिनको अब तक, कम से कम पिछले सात वर्ष में भारत रत्न की प्राप्ति हो जानी चाहिए थी, जिससे, वास्तव में यह राष्ट्रीय सम्मान गौरवान्वित होता।
इन नामचीन हस्तियों का अतुल्य बलिदान था भारत की आजादी में ही नहीं, बल्कि भारत को भारत बनाने में। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी परिवार में जन्म से लेकर राष्ट्र की उच्चतम विभूति बनकर विरोहित हुए। उनकी यात्रा शून्य से शिखर तक यात्रा है। पंडित जी एक सुलझे हुए इंसान, सफल पत्रकार, कुशल संगठक, लेखक, कवि, संपादक, प्रचारक, विचारक, प्रवक्ता, स्वयंसेवक, महामंत्री और प्रधान सब कुछ रहे। वे आज की राजनीति के दक्ष सियासतदानों की भांति खिलाड़ी नहीं, राजनीति के शिल्पी थे। उन्होंने राजनीति को रामसुख से नहीं समाज सुख से जोड़ने का प्रयास किया। उनका सपना था कि समाज के सबसे निर्धन व्यक्ति को राजनीतिक लाभ मिलना चाहिए जो कि प्रायः देखने में नहीं आता। संघ के माध्यम से ही उपाध्याय जी राजनीति में आये।
21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। गुरुजी (गोलवलकर जी) की प्रेरणा इसमें निहित थी। 1952 में इसका प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ। उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने। इस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से 7 उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किये। डॉ. मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा- "यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।" इस अधिवेशन में उपस्थित सभी प्रतिनिधियों ने करतल ध्वनि से एकात्म मानव दर्शन को स्वीकार किया। इसकी तुलना साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद से नहीं की जा सकती। एकात्म मानववाद को किसी वाद के रूप में देखना भी नहीं चाहिए। इसे हम एकात्म मानव दर्शन कहें तो ज्यादा उचित होगा, किन्तु आधुनिक पद के चलते यह एकात्म मानववाद के रूप में प्रचलित है।
एकात्म मानववाद एक ऐसी धारणा है जो सर्पिलाकार मण्डलाकृति द्वारा स्पष्ट की जा सकती है जिसके केंद्र में व्यक्ति, व्यक्ति से जुड़ा हुआ एक घेरा परिवार, परिवार से जुड़ा हुआ एक घेरा -समाज, जाति, फिर राष्ट्र, विश्व और फिर अनंत ब्रम्हांड को अपने में समाविष्ट किये हैं। इस अखण्ड मण्डलाकार आकृति में एक घातक में से दूसरे फिर दूसरे से तीसरे का विकास होता जाता है। सभी एक-दूसरे से जुड़कर अपना अस्तित्व साधते हुए एक-दूसरे के पूरक एवं स्वाभाविक सहयोगी हैं। इनमें कोई संघर्ष नहीं है। आज की राजनीति तत्कालवादी है मगर पंडित जी की राजनीत चिरकालवादी थी।
राष्ट्र गौरव पंडित दीनदयाल जी की राष्ट्र को अभिनय अमूल्य देन है, एकात्म मानववाद। एकात्म मानववाद एक समन्वयकारी जीवन दर्शन है। पेट को आहार, ह्रदय को प्यार, मस्तिष्क को विचार और आत्मा को संस्कार जिस जीवन दर्शन के माध्यम से मिल सकता है, उसी का नाम है एकात्म मानववाद। धर्म, अर्थ काम और मोक्ष इन चारों का समुच्चय करके नर से नारायण बनाने की परिकल्पना पंडित दीनदयाल जी ने एकात्म मानववाद में की है। पंडित जी जन्मत: नहीं कर्मत: महान थे। वे अपने वंश परम्परा के अन्तिम रत्न थे। उन्हें दल का मस्तिष्क कहा जाता था। पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की थी और पं. दीनदयाल उपाध्याय ने उसकी प्राण प्रतिष्ठा की थी। सनातन धर्म की युगानुकूल व्याख्या एकात्म मानववाद के रूप में दुनिया को देने वाले इस स्मृतिकार ने अपने भाषण के अंत में कहा था जब तक हम भारत में एकरसता, कर्मठता, समानता, संपन्नता, ज्ञान वक्ता एवं सुख और शान्ति की सप्त जाह्नवी का पुष्प प्रवाह नहीं ला पाते, हमारा भागीरथ तप पूरा नहीं होगा। भले ही दीन दयाल को भारत रत्न नहीं दिया गया, मगर उनका योगदान इन सभी पुरस्कारों से सर्वोपरि है। जय हिंद !
– फ़िरोज़ बख्त अहमद