क्या कयामत का मंजर है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र को ‘लकवे’ का झटका इस बेरहमी के साथ लगा है कि ‘संसद’ सिसकियां लेकर अपना हाल बयान करने में नाकामयाब हो रही है। हिन्दोस्तान के 130 कराेड़ लोगों के नुमाइन्दे रोजाना इसकी चौखट पर जुड़ते हैं और इसकी बेहाली देखकर घर लौट जाते हैं, जिन लोगों के हाथों में चार साल पहले इस मुल्क के लोगों ने हुकूमत की बागडोर सौंपी थी उनकी सरकार को चलने नहीं दिया जा रहा है।
क्या सितम है कि पिछली मनमोहन सरकार को लकवाग्रस्त बनाने वाले लोग आज पूरे लोकतन्त्र को ही लकवाग्रस्त कर देना चाहते हैं। अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया जा रहा है लेकिन हंगामे के कारण उस पर चर्चा नहीं हो रही है। सरकार बार-बार कह रही है कि वह चर्चा कराने को तैयार है लेकिन सदन में व्यवस्था बनी होनी चाहिए अतः संसद में रखे जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव से भागने का सवाल ही कहां उठता है। हिन्दुस्तान का मतदाता बहुत समझदार है और उसकी पैनी नजर राजनीतिज्ञों और उनकी भूमिका पर रहती है। सत्ता भी मतदाता को ज्यादा देर मूर्ख नहीं बना सकती। दूसरी ओर विपक्षी दलों को भी अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए।
संसद को लगातार 12 दिन ठप्प करके वह कोई सराहना प्राप्त नहीं कर रहे हैं। मतदाता जानता है कि ऐसा करके संसद का बेशकीमती समय आैर धन बर्बाद किया जा रहा है। जो लोग हिन्दोस्तान के मतदाता को यह समझाने की जो गलतफहमी पाल कर बैठे हुए हैं कि संसद की कार्यवाही को ठप्प करके वे इसकी जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों पर डाल सकते हैं, दूसरी ओर मतदाताओं की नजर भी इस पर है कि कार्यवाही को ठप्प करने के लिए रोजाना लोकसभा की आसन्दी में आने वाले सांसद किन–किन पार्टियों के हैं।
सत्ता पक्ष आैर विपक्ष में कितने भी दाव-पेंच चले लेकिन यह शर्मसार ही रहा कि चार साल पहले इराक में आईएस आतंकी संगठन द्वारा हलाक किए गए 39 भारतीय नागरिकों की मौत की जानकारी विदेशमंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज द्वारा दिए जाते समय लोकसभा में विपक्ष हंगामा करता रहे। मरने वाले किसी दूसरे देश के नहीं बल्कि भारत मां के बेटे थे। विपक्ष को कम से कम विदेश मंत्री का बयान सुनना चाहिए था। कितना दुःखद है कि देश गमगीन है और विपक्षी दल हंगामा करते रहें। भारत पहले ही आतंक के गहरे जख्म अपने सीने पर लिए हुए है। हंगामों से आतंक का मुकाबला देश कैसे कर पाएगा?
सत्ता पक्ष को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि डा. राम मनोहर लोहिया का वह देश भारत है जिसे सिखाया गया है कि जिन्दा कौमें पांच साल तक इन्तजार नहीं करती हैं। अतः ऐसा संदेश भी नहीं जाना चाहिए कि सरकार अविश्वास प्रस्ताव को टाल रही है और संसदीय प्रणाली की पेचीदगियों का इस्तेमाल कर रही है। लोकतन्त्र तो सत्ता पर बैठने वाले में हिम्मत का वह जोर पैदा करता है कि वह बड़े से बड़े तूफान से भी टकरा जाये, इस मुल्क की सरकारों का इतिहास यही है। जिन लाल बहादुर शास्त्री की दुहाई देते हुए भाजपा थकती नहीं है उन्हीं की सरकार के खिलाफ सिर्फ 18 महीनों में तीन बार अविश्वास प्रस्ताव आये थे।
इन्हें लाया भी गया था जनसंघ के रहमो-करम से। इन्दिरा जी की सरकार का तो जिक्र क्या किया जाये उनकी सरकार के खिलाफ तो 15 बार अविश्वास प्रस्ताव रखा गया, मगर हर बार पूरी बहस हुई और सरकारें भी बचीं। इतना ही नहीं स्व. मोरारजी भाई की पहली कथित गैर-कांग्रेसी सरकार के खिलाफ भी दो बार अविश्वास प्रस्ताव आया। पहला वह पार गये और दूसरे में उनकी सरकार बिना मतदान के ही धराशायी हो गई। इतना ही नहीं 2003 में वाजपेयी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव श्रीमती सोनिया गांधी ने रखा। 23 दलों की उनकी सरकार यह इम्तिहान पास कर गई, मगर हर प्रधानमन्त्री ने अपने ऊपर भरोसा रखा। मेरा निवेदन यह है कि मौजूदा सरकार अपने ऊपर विश्वास रखे।