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संसद, किसान और कृषि क्षेत्र

किसान जिन तीन कृषि कानूनों को निरस्त या रद्द करने की बात कर रहे हैं उसका अधिकार केवल संसद के पास है क्योंकि ये तीनों कानून संसद में बहुमत से सरकार ने बनाये हैं।

किसान जिन तीन कृषि कानूनों को निरस्त या रद्द करने की बात कर रहे हैं उसका अधिकार केवल संसद के पास है क्योंकि ये तीनों कानून संसद में बहुमत से सरकार ने बनाये हैं।  इन तीनों कानूनों में एक शब्द का संशोधन भी संसद की मर्जी के बिना नहीं हो सकता। संसद द्वारा बनाये गये कानून की समीक्षा करने का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को ही है। उसकी समीक्षा संवैधानिक कसौटी पर होती है अतः पूर्व में ऐसा कई बार हो चुका है जब संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को देश की सबसे बड़ी अदालत ने असंवैधानिक करार दिया और संसद ने वैसे कानून को संविधान संशोधन करके पुनः बनाया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1969 में किया गया बैंक राष्ट्रीयकरण व इसके बाद पूर्व राजा-महाराजाओं का प्रिविपर्स उन्मूलन कानून है जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने बहुमत से अवैधानिक करार दिया था। दोनों ही मामलों में संविधान संशोधन का सहारा लेकर संसद ने पुनः इन कानूनों को लागू किया। अतः कृषिमन्त्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर का यह कहना जायज है कि किसानों के साथ वार्ता का अगला दौर 11 जनवरी को इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका की सुनवाई के बाद 15 जनवरी को होगा। परन्तु मूल प्रश्न यह है कि किसानों की मांग पर वार्ता बार-बार टल क्यों रही है? सरकार वर्तमान कानूनों में संशोधनों के लिए जब तैयार है तो  इस पर भरोसा किया जाना चाहिए। जाहिर है दोनों पक्ष जिद पर अड़ चुके हैं जिसकी वजह से वार्ता के नौ दौर हो जाने के बावजूद कोई नतीजा नहीं निकल रहा है। मगर लोकतन्त्र का मूल सिद्धान्त होता है कि संसद के माध्यम से सरकार द्वारा किये गये फैसले जनभावनाओं व अपेक्षाओं के अनुरूप होते हैं। किसानों से जुड़े कानून कोई सामाजिक कानून नहीं है बल्कि विशुद्ध रूप से आर्थिक कानून हैं। इनका सीधा सम्बन्ध देश की साठ प्रतिशत से अधिक आबादी की आर्थिक स्थिति से है और इस मुद्दे पर यदि भारत में राजनितिक युद्ध होता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि राजनीति का मुख्य उद्देश्य आम जनता की भलाई और राष्ट्र के उत्थान से होता है। 
समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया समेत जनसंघ के विचारक माने जाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि लोकतन्त्र में राजनीति सत्ता कब्जाने के लिए नहीं बल्कि लोककल्याण के लिए होती है जिसे ‘लोकनीति’ भी कहा जा सकता है। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की बहुदलीय व्यवस्था में सभी दल इसी सिद्धान्त के आधार पर मतदाताओं को भरमाने का काम करते हैं। अतः स्व. चौधरी चरण सिंह ने 1969 में अपनी पृथक पार्टी ‘भारतीय क्रान्ति दल’ बना कर कृषि व ग्रामीण क्षेत्र की जनता को जोड़ा तो राजनीति की दिशा और दशा को जमीन की तरफ मोड़ दिया और पूरे उत्तर भारत में सभी पार्टियों के लिए कठिन चुनौती पेश कर दी। इस राजनीति को किसान राजनीति नाम दिया गया जिसका विस्तार बाद में ग्रामीण राजनीति के रूप में हुआ। कहा जा रहा है कि किसानों के वर्तमान आन्दोलन में राजनीति की दिशा बदलने की क्षमता है।
यह कोई मजाक नहीं है कि जिस हिन्दोस्तान में 1947 में केवल पांच हजार ट्रैक्टर थे आज उनकी संख्या बढ़ कर 53 लाख से भी ज्यादा हो चुकी है। इसका अर्थ यही है कि किसानों में कृषि व्यवस्था के संरक्षणात्मक आर्थिक तन्त्र के भीतर समृद्धि बढ़ी है। पंजाब, हरियाणा व प. उत्तर प्रदेश के किसानों में जो सम्पन्नता आयी है उसके पीछे न्यूनतम समर्थन मूल्य से लेकर कृषि उपज मंडी व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यही वजह है कि आन्दोलन में इन क्षेत्रों के किसान ही सबसे ज्यादा बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। नये कृषि कानूनों से इनमें शंका पैदा हो गई है कि इनके आने से पुरानी व्यवस्था नाकारा हो जायेगी। यह प्रश्न तो हर भारतीय के दिमाग में बिजली पैदा करता ही है कि जब खुले बाजार में एक लीटर पानी की बोतल 20 रुपए की बिकती है तो बिहार जैसे राज्य में किसान का एक किलो धान आठ-दस रुपए में क्यों बिकता है।
 दरअसल न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली के तहत किसान अपनी उपज का मूल्य परोक्ष रूप से स्वयं ही तय करता है क्योंकि 1966 से गठित कृषि मूल्य आयोग तथ्यात्मक रूप से उसकी कृषि लागत का आंकलन करके उपज का मूल्य तय करता है, परन्तु सरकार की मजबूरी यह है कि पूरे आर्थिक तन्त्र को बाजार की शक्तियों पर छोड़ कर वह कृषि क्षेत्र को संरक्षणवादी व्यवस्था का गुलाम बने रहना नहीं देख सकती। एक न एक दिन तो कृषि क्षेत्र को भी इस व्यवस्था का अंग उसी तरह बनाना होगा जिस तरह पेट्रोलियम क्षेत्र बना है। मगर पेट्रोल के दाम सीधे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार से बंध चुके हैं। किसान संगठनों को यह भी अंदेशा है ​कि कालान्तर में जो भी सरकार आएगी वह कृषि का खुले बाजार से जोड़ने के बाद इससे होने वाली आय पर आयकर भी लगायेगी। अतः बहुत जरूरी है कि सरकार और किसान बैठकर सौहार्दपूर्ण वातावरण में इन सभी आशंकाओं का निवारण करें। क्योंकि आने वाले समय में कृषि क्षेत्र का विकास बिना निजी निवेश के नहीं हो सकता।

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