भारत का संघीय ढांचा संविधान में इस तरह मजबूत बनाया गया कि भारत को राज्यों का संघ कहा गया और सुनिश्चित किया गया कि केन्द्र सरकार की छत्रछाया में राज्यों को वे सभी अधिकार दिये जायेंगे जिनका सम्बन्ध उनमें रहने वाले लोगों की जीवन शैली से लेकर आर्थिक संरचना से हो।
इस व्यवस्था को मजबूत रखने के लिए संसद का द्विसदनीय गठन किया गया जिन्हें राज्यसभा व लोकसभा कहा गया। इसमें भी राज्यसभा को राज्यों की परिषद के रूप में स्थापित करते हुए उच्च सदन कहा गया।
यह उच्च सदन लोकसभा द्वारा पारित प्रत्येक विधेयक की तस्दीक राज्यों के नजरिये से इस प्रकार करता है कि केन्द्र द्वारा बनाये गये किसी भी कानून के पालन की अनुपालना में राज्यों के हितों से टकराव न हो मगर हमने देखा कि किस प्रकार माल व वस्तु कर (जीएसटी) प्रणाली को लागू करते हुए राज्यों के लगभग सभी वित्तीय अधिकार उस जीएसटी परिषद के पास चले गये जिसका गठन संसद से बाहर किया गया।
संसद के प्रति इस परिषद की कोई जवाबदेही नहीं रखी गई। भारतीय संसदीय लोकतन्त्र का यह अभी तक का सबसे बड़ा कोई भी संविधान संशोधन कहलाया जायेगा क्योंकि इसमें संसद को ही इसके दायरे से बाहर कर दिया गया परन्तु इसे लागू करने के लिए राज्य स्वयं जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने खुशी-खुशी अपने वित्तीय अधिकारों को परिषद को दिया।
अतः यह बेवजह नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार के दौरान जब कांग्रेस जीएसटी को लाना चाहती थी तो विपक्ष में बैठी भाजपा ने इसका पुरजोर विरोध किया और जब केन्द्र में भाजपा का शासन आया तो कांग्रेस ने इसका विरोध किया। अतः भारत के संघीय ढांचे में पहला सबसे बड़ा परिवर्तन जीएसटी ढांचा लाया मगर अब इसके हानि लाभ देश के सामने आने लगे हैं और कुछ राज्य सरकारें तो इस प्रणाली की उपयोगिता पर सवालिया निशान भी लगाने लगी हैं।
इसकी वजह यह है कि इस प्रणाली में प्रमुख केन्द्रीय भूमिका केन्द्र सरकार की ही है। परिषद में दो तिहाई वोट राज्यों के और एक तिहाई वोट केन्द्र के होने के बावजूद राज्यों की राजनैतिक विविधता उनकी एकजुटता में बाधा हो जाती है। ठीक यही स्थिति अब कृषि सम्बन्धी उन तीन विधेयकों पर बनती नजर आ रही है जिन्हें अध्यादेश के रूप में कोरोना काल में लागू किया गया था और आज लोकसभा में विधेयक रूप में पेश किया गया।
कृषि का सम्बन्ध निश्चित रूप से किसी राजनैतिक दल की समस्या नहीं हो सकती बल्कि यह भारत की समस्या है और इस मुद्दे पर दलगत भावनाओं से ऊपर उठ कर काम होना चाहिए। इस सन्दर्भ में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों और उनके अपने अधिकारों का मामला भी आकर जुड़ रहा है।
कृषि चूंकि मूल रूप से राज्यों का विषय है। अतः यह सवाल उठना वाजिब है कि कहीं कृषि ठेका प्रथा चालू करने से लेकर कृषि उपज के मूल्यों के निर्धारण तक के मुद्दों से राज्यों के विशेषाधिकार तो नहीं जुड़ेे हुए हैं।
कृषि के क्षेत्र में एक देश एक बाजार के सिद्धान्त को हम लागू नहीं कर सकते हैं क्योंकि भारत की भौगोलिक विविधता और फसलों की विभिन्नता को देखते हुए लोगों की खान-पान की आदतों का एकीकरण किसी सूरत में नहीं किया जा सकता। अतः कृषि की विविधता को हमें राज्यों की अपनी-अपनी संस्कृति के हवाले करना ही होगा और उसी के अनुरूप किसानों के संरक्षण की व्यवस्था करनी होगी। इसके साथ ही भारत के किसानों को विश्व बाजार के प्रभावों से भी बचाना होगा।
हकीकत यह है कि भारत में प्रति एकड़ कृषि पैदावार आज भी अमेरिका के मुकाबले एक चौथाई ही बैठती है जबकि अमेरिका के मुकाबले 20 गुना अधिक लोग भारत में खेती पर निर्भर करते हैं। इसके साथ ही भारत में गरीबी की स्थिति को देखते हुए समाज के विपन्न वर्ग तक उसकी जेब की पहुंच में अन्न उपलब्ध कराना भी सरकार का दायित्व है।
भारत का संविधान इस देश में कल्याणकारी राज की स्थापना का वचन देता है। अतः संसद के भीतर सत्ता और विपक्ष के सदस्यों के बीच इस मुद्दे पर जो भी बहस हो वह भारत की जन कल्याणकारी सरकार के नजरिये से ही हो तभी हम किसी सर्वमान्य हल की तरफ पहुंच सकेंगे।
इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना बहुत जरूरी होगा कि कृषि क्षेत्र में राज्यों का सशक्तीकरण हो क्योंकि ऐसा होने से ही उस राज्य के लोग सम्पन्नता की तरफ बढ़ना शुरू करेंगे।
राज्यों के मजबूत होने से ही भारत की मजबूती सुनिश्चित होगी और यह तभी होगा जब प्रत्येक राज्य का किसान सम्पन्न और मजबूत होगा क्योंकि इसका बेटा ही फौज में भर्ती होकर भारत की सीमाओं की रक्षा करता है। भारत की संसद में भी एक तिहाई से अधिक सांसद कृषि पृष्ठभूमि से ही आते हैं। अतः संसद में वही आवाज गूंजनी चाहिए जो भारत के खेतों में गूंजती है।