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संसद सत्ता पक्ष और विपक्ष

देश में नई संसद का निर्माण हो चुका है जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने किया।

देश में नई संसद का निर्माण हो चुका है जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने किया। सत्य है कि हमारे राष्ट्रपति संसद का अभिन्न भाग होते हैं और संसद की कल्पना उनके बिना नहीं की जा सकती क्योंकि संविधान की धारा 79 के तहत संसद राष्ट्रपति और लोकसभा व राज्यसभा से मिलकर बनती है। यही कारण है कि संसद का कोई भी सत्र केवल राष्ट्रपति के आदेश पर ही बुलाया जा सकता है और वही उसका सत्रावसान भी करते हैं परंतु यह भी सत्य है कि संसद की परिकल्पना सत्ता पक्ष और विपक्ष के बिना नहीं की जा सकती। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष का जितना महत्व होता है उतना ही विपक्ष का भी होता है। हर 5 वर्ष बाद देश की जनता जिस लोकसभा का गठन करती है उसमें वह संसद सदस्यों का ही चुनाव करती है और उन्हीं संसद सदस्यों के बीच से कोई सदस्य प्रधानमंत्री बनता है। सदन में बहुमत पाने वाले दल को ही सरकार बनाने का अवसर मिलता है।
अल्पमत में चुने गए राजनीतिक दलों के सदस्य अंततः विपक्ष में बैठते हैं। जिन राजनीतिक दलों के सदस्यों की सरकार बनती है वह जनता द्वारा दिए गए बहुमत के बूते पर ही बनती है। मगर यह सब लिखने का मकसद यही है कि लोकसभा के उद्घाटन के समय विपक्ष का अनुपस्थित रहना मूल रूप से सत्ता पक्ष की कमजोरी तो दिखाता ही है साथ ही विपक्ष की कमजोरी को भी दिखाता है। आखिरकार विपक्ष को नई संसद के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने से क्या हासिल हुआ। बेशक विपक्षी नेता प्रसन्न हो सकते हैं कि उन्होंने संवैधानिक नैतिकता के प्रश्न पर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की मगर इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि जब नई संसद का उद्घाटन हो रहा था तो विपक्ष इस समारोह में ही मौजूद नहीं था। सत्ता पक्ष कह सकता है कि उसने ऐसा कोई काम नहीं किया जो संविधान विरोधी हो क्योंकि संविधान में यह कहीं लिखा हुआ नहीं है ​िक संसद भवन का उद्घाटन करते समय राष्ट्रपति के हाथ में ही नाम पट्टिका की डोर होनी चाहिए थी। राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख है और संसद सार्वभौम है।
संसद की सार्वभौमिकता यहां तक है कि उसके पास उच्च से उच्चतम पद पर बैठे हुए व्यक्ति के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने का या उस पर महाभियोग चलाने का अधिकार है। यह सब संविधान में ही लिखा हुआ है। अतः बेहतर होता सत्ता पक्ष द्वारा और खासतौर से सरकार द्वारा विपक्ष के मौजूद नहीं रहने की वजह पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए था और कोई सर्वमान्य हल निकाला जाना चाहिए था। ऐसे मौके कई बार आए हैं जब राष्ट्रपति के अभिभाषण का विपक्ष ने बहिष्कार भी किया है मगर यह हमारे लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप ही कहा जाएगा क्योंकि राष्ट्रपति जो भी अ​िभभाषण देते हैं वह उस समय की सरकार का आख्यान ही होता है और जो भी सरकार होती है वह उनकी सरकार होती है अतः वह अपनी सरकार के बारे में वक्तव्य देते हैं, जाहिर है विपक्ष को मतभेद हो सकता है। इसमें किसी भ्रम की गुंजाइश बहुत कम रहती है लेकिन जहां तक नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार का प्रश्न है तो इस बारे में अभी तक कोई लोकतांत्रिक परंपरा खोजे भी नहीं मिलती है। निवेदन किया है कि दोनों पक्षों द्वारा चरम कदम उठाए जाने से बेहतर होता कि दोनों के बीच बातचीत होती और ज्यादा बेहतर होता कि इसकी पहल सत्ता पक्ष द्वारा की जाती जिससे विपक्ष के मत को ध्यान से सुनने के बाद कोई हल निकाला जाता। खैर जो होना था हो गया क्योंकि उद्घाटन तो 28 मई को हो चुका है अब देखना यह होगा कि संसद के इस नए भवन में लोकसभा और राज्यसभा कि जो भी बैठकें होती हैं वे संसदीय प्रणाली के तहत चलने वाली कार्यवाही के उच्चतम मानदंडों का अनुसरण करें और हमारे पुरखों ने जो परंपराएं बनाई हैं उन पर चलकर दिखाएं। लोकसभा के नए भव्य भवन का यही उद्देश्य होना चाहिए।
संसद का महत्व तभी है जब इसमें विचारों की गंभीरता बनी रहे और दोनों पक्षों के सदस्यों के बीच विषय मूलक सार्थक बहस हो। हम देख रहे हैं कि संसद की गंभीरता धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है और इसका स्थान शोर-शराबे और नारेबाजी ने ले लिया है। निश्चित रूप से संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है क्योंकि विपक्ष लगातार सरकार को उसकी नीतियों की खामियों और सफलताओं के बारे में जनता से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अवगत कराता रहता है, यह उसका धर्म है क्योंकि जो जनता सत्ता पक्ष के सांसदों को चुनती है वही जनता विपक्ष के सांसदों को भी चुनती है। संसद में बहस का स्तर केवल व्यक्तिगत आधार पर नुक्ताचीनी नहीं होनी चाहिए ब​िल्क सैद्धांतिक और वैचारिक आधार पर जनता के सर्वांगीण हितों के बारे में सार्थक विमर्श होना चाहिए। दोनों ही पक्षों को देखना होगा कि क्या वह यह काम कर रहे हैं अथवा एक-दूसरे पर केवल दोषारोपण ही कर रहे हैं। वैसे भी यह देश उस महात्मा गांधी का है जिन्होंने कहा था कि मैं अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ऊंचे आसन पर बिठाकर सुनना पसंद करूंगा।

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