संसद का बजट सत्र अभी चालू है जबकि आगामी वित्त वर्ष 2023-24 का बजट पारित हो चुका है। ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि बजट पारित होने की औपचारिकता पूरी हो जाने के बाद बजट सत्र भी सोमवार या मंगलवार को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो जायेगा। सवाल उठ रहा है कि क्या संसद के विभिन्न सत्रों का आयोजन अब केवल कोई औपचारिकता मात्र ही रह गई है क्योंकि भारत में संसद का सत्र साल में केवल 55 या 56 दिन ही हो पाता है। जबकि इससे पहले पिछले दशक तक यह मांग होती रहती थी कि संसद का सत्र साल में कम से कम एक सौ दिन जरूर होना चाहिए। मगर सरकारें बदलती रहीं संसद की बैठकें भी कम होती रहीं। भारत को दुनिया का संसदीय प्रणाली का सबसे बड़ा लोकतन्त्र माना जाता है। इसका मतलब यही है कि हमारी जो संसदीय परंपराएं हैं वे इतनी स्वस्थ हैं कि संसद के भीतर हर विषय पर जमकर बहस-मुहाबिसा होता है। मगर हम देख रहे हैं कि ऐसा नहीं हो पा रहा है और संसद का अधिकतम समय शोर-शराबे में ही जाता है और संसद के सुचारू रूप से न चलने का दोष सत्तारूढ़ व विपक्ष एक-दूसरे पर मढ़ने से पीछे नहीं रहते। यह तरीका कहीं न कहीं संसदीय प्रणाली को भीतर से नुकसान पहुंचा रहा है और लोगों का विश्वास संसद के प्रति कम हो रहा है जो हमारे लोकतन्त्र के लिए बहुत हानिकारक है।
लोकतन्त्र में संसद जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों का सबसे ऊंचा सदन होता है और इसकी ताकत भी इस हद तक होती है कि इसे सार्वभौमिक कहा जाता है। मगर संसद की सार्वभौमिकता की रक्षा इसमें पहंुचने वाले सांसद ही करते हैं क्योंकि उन्हें देश के लिए कानून बनाने का अधिकार होता है मगर केवल कानून बनाना या विधेयक पारित करना ही संसद का काम नहीं है बल्कि देश की परिस्थितियों के साथ ही इसके आम लोगों के जीवन परिवर्तन लाना भी इसका परम कर्त्तव्य होता है। इस बारे में लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर का यह कथन आने वाली पीढि़यों के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करता रहेगा जो उन्होंने संसद व इसके सदस्यों के बारे में कहे थे। उन्होंने कहा था कि आने वाली पीिढ़यां किसी संसद का आंकलन इस आधार पर नहीं करेंगी कि उसके सदस्यों ने कितने विधेयक पारित किये बल्कि इसके आधार पर करेंगी उन्होंने आम हिन्दोस्तानियों के जीवन में क्या-क्या सकारात्मक बदलाव किये।
अतः भारत के सांसदों को स्व. मावलंकर के इन विचारों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और उसके बाद खुद अपने आपसे ही सवाल करना चाहिए कि क्या वे अपने कर्त्तव्य की पवित्रता को निभा रहे हैं और जिन मतदाताओं ने उन्हें चुन कर भेजा है उनके साथ न्याय कर रहे हैं। सवाल किसी पक्ष का नहीं है क्योंकि संसद में पहुंचने के बाद हर पक्ष के सांसद के अधिकार बराबर होते हैं और सभी को सरकार से सीधे सवाल पूछने का अधिकार मिला होता है। मगर हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए इनके अध्यक्ष या सभापतियों की जो संवैधानिक व्यवस्था की उसके अन्तर्गत संसद के सदस्यों के अधिकारों के वे ही संरक्षक होते हैं। अतः उनका भी यह दायित्व बनता है कि संसद के भीतर हर प्रमुख मुद्दे पर रचनात्मक बहस का वातावरण बने। इस काम में अध्यक्ष का सहयोग करने की जिम्मेदारी प्राथमिक रूप से सत्तारूढ़ पक्ष पर इसीलिए डाली गई जिससे संसद की सार्थकता हर सूरत में बनी रहे। मगर अब जो वातावरण बन रहा है उसमें हर स्तर पर ढिलाई नजर आ रही है जो कि लोकतन्त्र के लिए ठीक नहीं कही जा सकती। यदि कल को जनता अपने सांसदों से यह पूछे कि बजट सत्र के दौरान उन्होंने क्या किया तो दोनों पक्षों के सांसदों को ही कहना पड़ेगा कि उन्होंने जमकर शोर-शराबा और नारेबाजी की। इसमें सबसे बड़ा खतरा संसद की गरिमा पर ही मंडराता है जिससे जनता का भरोसा डोलता है। इस भरोसे को किसी भी तरह से नहीं डोलना चाहिए क्योंकि जनता ही लोकतन्त्र की असली मालिक होती है और संसद में बैठने वाला हर सदस्य जनता का मालिक नहीं बल्कि सेवक होता है।
हर पांच साल बाद जनता चुनावों में इन्हीं सेवादारों को मजदूरी उनकी सेवा के अनुरूप देती है। यह बात संसद सदस्यों को हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए क्योंकि चुनावों में जनता पूरे पांच साल का हिसाब मांगती है। इसके साथ ही भारत का लोकतन्त्र केवल चुनावी औपचारिकता नहीं होती बल्कि हर कदम पर आम आदमी को सशक्त करने की प्रणाली होती है। इसी प्रणाली के तहत 75 सालों में हर भारतीय ने अपनी मेहनत से उस भारत को आज दुनिया के 20 औद्योगिक देशों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया है जिसमें 1947 के दौरान एक सुई तक का उत्पादन नहीं होता था। क्या यह कोई छोटी उपलब्धि है कि 1947 में जिस भारत का वार्षिक बजट मात्र 259 करोड़ रुपए का था आज 45 लाख करोड़ रु. से अधिक का है। यह सब कुछ हमने इसी संसदीय प्रणाली के तहत प्राप्त किया है। अतः संसद की सार्थकता बनाये रखने के लिए हर संसद सदस्य को अपने गिरेबान में झांक कर देखना होगा।