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संसद की संवेदनशीलता?

लोकतन्त्र लोक संवेदनाओं से अभिप्रेरित शासन की वह प्रणाली कही जाती है जिसमें सामान्य नागरिक स्वयं की प्रतिष्ठा की प्रतिध्वनि सुनता है और सत्ता में परोक्ष भागीदारी का एहसास भी करता है।

लोकतन्त्र लोक संवेदनाओं से अभिप्रेरित शासन की वह प्रणाली कही जाती है जिसमें सामान्य नागरिक स्वयं की प्रतिष्ठा की प्रतिध्वनि सुनता है और सत्ता में परोक्ष भागीदारी का एहसास भी करता है। यह एहसास उसे उसके मतदाता होने से होता है क्योंकि उसके एक वोट की ताकत से ही हुकूमतें बनती और बिगड़ती हैं। लोकतन्त्र में साधारण नागरिक को मिला यह सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अधिकार होता है। लोकतन्त्र की इस महत्ता और खूबी को स्वतन्त्र भारत में एक फिल्मी गीतकार स्व. शैलेन्द्र ने जितनी सरलता और सामान्य भाषा में समझाने का काम किया वैसा संभवतः बड़े-बड़े साहित्यकार भी नहीं कर पाये।  स्व. राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ का यह गाना स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का परिपूर्ण चित्रण कहा जा सकता है- 
होंगे राजे राजकुंवर हम बिगड़े दिल शहजादे 
हम सिंहासन पर जा बैठें जब-जब करें इरादे 
बढ़ते जायें हम सैलानी, जैसे एक दरिया तूफानी 
सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी…
अतः बहुत स्पष्ट है कि सामान्य लोगों के वोट से संरचित संसद में बनी कोई भी सरकार इसी वोटर के प्रति जवाबदेह होती है। निश्चित रूप से यह जवाबदेही इस ‘वोटर’ द्वारा चुने गये उन नुमाइन्दों की मार्फत होती है जो संसद में भेजे जाते हैं मगर कयामत है कि संसद का बजट कालीन सत्र लम्बे अन्तराल के बाद दो दिन पहले शुरू हो चुका है और अभी तक इसने दिल्ली की हिंसा के शिकार बने 47 नागरिकों की हत्या पर शोक संवेदना का एक शब्द कहना भी उचित नहीं समझा।
दिल्ली की हिंसा पर संसद के दोनों सदनों में बहस को लेकर जो लुका-छिपी का खेल सत्ता और विपक्ष के बीच हो रहा है उसे एक तरफ रखते हुए अगर लोकसभा व राज्यसभा में बेकसूर 47 लोगों की हत्या पर संवेदना का इजहार कर दिया जाता तो पूरे देश में यह सन्देश जाता कि पूरा देश दिल्ली के आदमखोरों के​ खिलाफ एक साथ चट्टान की तरह खड़ा हुआ है। मंगलवार को लोकसभा व राज्यसभा में जिस तरह कोई कामकाज नहीं हुआ और सत्ता व विपक्ष में वाकयुद्ध के स्थान पर शोर-शराबा होता रहा उससे  यही लगता है कि दोनों तरफ अपना-अपना पाला ऊंचा दिखाने की होड़ लगी हुई है मगर यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि संसदीय लोकतन्त्र में सदनों को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सत्तारूढ़ पक्ष की ही होती है। 
अतः उसकी ओर से विपक्ष की उचित मांग मानने की पहल भी होनी चाहिए। संसद की भूमिका को शोर-शराबा करके कमतर नहीं किया जा सकता और न ही इसे इकतरफा चलाया जा सकता है। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष दोनों ही आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए लोकतन्त्र कभी निरंकुश नहीं हो सकता। इस पर जनमत का ही अंकुश हर स्तर पर इस तरह रहता है कि सरकार के हर छोटे से लेकर बड़े काम तक की तस्दीक संसद में हो सके। यही खूबसूरत व्यवस्था लोकतन्त्र कहलाती है। इससे भी ऊपर इसमें दलीय बहुमत का शासन नहीं होता बल्कि संविधान का शासन होता है।  बेशक सरकार लोकसभा में बहुमत के आधार पर ही गठित होती है मगर शासन संविधान का ही रहता है। खबर यह मिल रही है कि संसद के दोनों सदनों में दिल्ली हिंसा पर होली अवकाश के बाद बहस होगी। 
यदि दोनों पक्ष इस पर रजामन्द हैं तो उसका स्वागत होना चाहिए मगर एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संसद का यह बजट सत्र है और अर्थव्यवस्था उसी देश की मजबूत रहती है जिसमें सामाजिक स्तर पर भाईचारा और सुख-शान्ति हो। इस बात का एहसास सत्तारूढ़ भाजपा को है इसीलिए मंगलवार को इस पार्टी की संसदीय दल की बैठक में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इस तरफ अपनी पार्टी के सदस्यों को सचेत किया है और सर्वत्र सुख-शान्ति का माहौल बनाने के प्रयास करने की सलाह दी है।
हकीकत यह है कि भारत की शासन व्यवस्था के भीतर ही सामाजिक सुख-शान्ति को कायम रखने की प्रणाली अन्तर्निहित है। यह कार्य हमारा संविधान बिना किसी भेदभाव या पक्षपात के करता है किन्तु दिक्कत तब आ जाती है जब प्रशासकीय प्रतिष्ठान लापरवाह होकर पक्षपातपूर्ण या भेदभाव भरा रवैया अपनाने लगते हैं। दिल्ली हिंसा के मामले में पुलिस की भूमिका को लेकर जो विभिन्न प्रकार की आशंकाएं उठ रही हैं, उससे समूचे माहौल के तेजाबी होने में मदद मिलना माना जा रहा है।
दूसरी तरफ एक जिद को पकड़ कर जिस तरह शाहीन बाग में संशोधित नागरिकता कानून का विरोध आंख मींच कर किया जा रहा है, उससे भी सामाजिक अमन और शान्ति को तोड़ने वाले तत्वों की मदद हो रही है। लोकतन्त्र में आन्दोलन या प्रदर्शनों का महत्व होता है और उनका उद्देश्य सत्तारूढ़ सरकार के कानों तक अपनी आवाज पहुंचाना होता है। संवैधानिक मर्यादाएं सभी क्षेत्र में लागू होती हैं। सरकार ने संसद में अपने बहुमत के बूते पर यह कानून बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसकी संवैधानिकता पर सार्वजनिक बहस हो सकती है मगर कोई फैसला नहीं दिया जा सकता। यह फैसला बड़ा से बड़ा आंदोलन चला कर और धरना-प्रदर्शन करके भी कोई नहीं दे सकता। फैसला देने का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को है और वहां यह लड़ाई पहुंच चुकी है तो फिर सड़कों पर इसका फैसला कैसे हो सकता है? 
जाहिर है कि इसके पीछे सियासत का गुणा-भाग चल रहा है जो चाहे-अनचाहे दिल्ली की हिंसा करने में एक औजार की तरह इस्तेमाल हुआ है, हालांकि शाहीन बाग आन्दोलन पूरी तरह अहिंसक ही है मगर इसके बावजूद इससे समाज के एक वर्ग को परेशानी भी हो रही है। अतः जिद को पकड़े रहने में समाज का कोई लाभ नजर नहीं आ रहा है लेकिन संसद का यह दायित्व भी बनता है कि वह शाहीन बाग आन्दोलन का भी संज्ञान ले क्योंकि भारत के मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का समर्थन इसे प्राप्त है जिसे हिन्दू-मुस्लिम का रंग देना राष्ट्रीय हित के खिलाफ होगा मगर सबसे ज्यादा जरूरी है कि संसद दिल्ली की हिंसा का शिकार बने लोगों के प्रति संवेदना के दो शब्द तो बोले क्योंकि संसद कभी संवेदनहीन नहीं हो सकती।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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