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संसद का सत्र और किसान

संसद का संक्षिप्त वर्षाकालीन सत्र आज से शुरू हो रहा है। देश की गंभीर परिस्थितियों को देखते हुए यह सत्र मात्र विधेयक पारित करने या नये कानून बनाने की औपचारिकताएं पूरा करने वाला नहीं होना चाहिए

संसद का संक्षिप्त वर्षाकालीन सत्र आज से शुरू हो रहा है।  देश की गंभीर परिस्थितियों को देखते हुए यह सत्र मात्र विधेयक पारित करने या नये कानून बनाने की औपचारिकताएं पूरा करने वाला नहीं होना चाहिए बल्कि देश के लोगों की परिस्थितियां बदलने वाला होना चाहिए। स्वतन्त्र भारत में ऐसी परिस्थितियां आज तक नहीं बनीं जब किसी महामारी की वजह से सामाजिक दूरी को जीवन शैली का अंग बना दिया गया हो और इसकी वजह से पूरा आर्थिक तन्त्र इस तरह चरमरा गया हो कि सकल विकास वृद्धि की दर नकारात्मक घेरे मे पहुंच कर 24 प्रतिशत नीचे गिर गई हो। जाहिर है कि कोरोना संक्रमण के चलते पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था उधड़ चुकी है और सामान्य नागरिक अपनी रोजी-रोटी की सुध खो चुके हैं।
 17 करोड़ लोगों का बेरोजगार हो जाना और 40 करोड़ लोगों का गरीबी की सीमा रेखा की देहरी पर खड़े हो जाना बताता है कि भारत एेसे संकटकाल से गुजर रहा है जिसमें समूचे राजनीतिक तन्त्र को एक सिरे से जनता की समस्याओं को सुलझाने का तरीका ढूंढना चाहिए और सत्ता व विपक्ष का भेद भूल कर भारत को पुनः पटरी पर लाने के प्रयास करने चाहिए परन्तु कोरोना काल में ही कृषि क्षेत्र के लिए जारी किये गये अध्यादेशों  का विरोध जिस तरह जमीन पर विभिन्न राज्यों के किसान कर रहे हैं उससे यह लगता है कि संकट के इस दौर में पक्ष-विपक्ष की रणनीति जारी रहेगी। खास कर पंजाब विधानसभा में जिस तरह इन अध्यादेशों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया है उससे स्पष्ट होता है कि पूरे मामले पर राज्यों के अधिकारों और केन्द्र के एकाधिकार का मसला भी आड़े आ सकता है। बेशक कृषि भारतीय संविधान में राज्य सूची में आता है और राज्य सरकारों को अधिकार है कि वे अपने क्षेत्र में खेती व किसानों की दशा सुधारने के लिए आवश्यक कदम उठायें और एेसे कारगर उपाय करें जिससे किसान की माली हालत सुधरे और उसकी उपज का बेहतर मूल्य उसे प्राप्त हो।
 इस बाबत केन्द्र सरकार भी विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से ऐसे कदम उठाती है जिससे किसान की उपज का उचित मूल्य मिले और इस सम्बन्ध में कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी घोषित करती है, परन्तु नये अध्यादेश में जिस तरह कृषि मंडी समितियों को समाप्त करके पूंजीपतियों के भरोसे कृषि बाजार को छोड़ने के प्रावधान किये गये हैं और ठेके पर खेती कराने की प्रथा को चालू करने की व्यवस्था की जा रही है उसका प्रबल विरोध किसान समुदाय कर रहा है और हरियाणा राज्य में सड़कों तक पर उतर आया है। किसान का सड़कों पर उतरना भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसी भी सूरत में शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता क्योंकि पूरी दुनिया में सिर्फ भारत ही ऐसा देश है जिसमें किसान को धरती के भगवान की संज्ञा से अलंकृत किया गया है। इसकी मुख्य वजह यह है कि किसान का श्रम जब  प्रकृति से मिल कर एकाकार हो जाता है तो धरती पर नव संरचना का शृंगार बिखर जाता है और यह मानव  के लिए जीवन दायी उपहार होता है। इस गूढ़ तत्व को हमारी संस्कृति में इस तरह महत्ता दी गई कि किसान को धरती का भगवान कहा गया।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो किसान की जमीन पर पैदा हुई उपज से समूची अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है और औद्योगीकरण की तरफ बढ़ता है। विकास और कृषि का आधुनिकीकरण दोनों एक साथ चलते हैं। अतः  किसान का सम्पन्न होना विकास की मूल शर्त होती है। कृषि को स्वतन्त्र भारत में राज्य सूची में डालने के पीछे भी मुख्य उद्देश्य यही था जिससे स्थानीय जलवायु प्रभावों के चलते इस क्षेत्र की दशा में अधिकाधिक सुधार किया जा सके।
 भारत की जमीनी हकीकत को देखते हुए ही 2006 में कृषि उत्पादन प्रबन्धन समिति (एपीएमसी) एक्ट लाया गया था और इसके तहत किसान की उपज को उसके नजदीक ही घोषित समर्थन मूल्यों पर बेचने की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि यदि वह चाहे तो किसी दूर की मंडी में भी बेच सकता है और एक राज्य से दूसरे राज्य में उपज को ले जाने पर भी कोई प्रतिबन्ध न रहे, परन्तु नये अध्यादेशों के तहत मंडी समितियों के स्थान पर सीधे बड़े व्यापारी किसान से उपज खरीद कर उसे किसी भी स्थान पर भेज सकते हैं। इससे कृषि के बाजार में सीधा पूंजीपतियों का आधिपत्य होने का बड़ा खतरा पैदा हो सकता है और किसान की उपज का मूल्य बाजार की शक्तियों के अनुरूप इस प्रकार तय होने लगेगा कि मांग व सप्लाई के समीकरण उस पर लागू होंगे जबकि जाहिर तौर पर बाजार में किसान की फसल आने पर सप्लाई इस कदर होगी कि व्यापारी मनमाने ढंग से कीमत तय करेंगे। इसके साथ ही ठेके की खेती की प्रथा यदि शुरू होती है तो किसान अपनी ही जमीन का मालिक होने के बावजूद अपने खेेतों पर ही मजदूर बन जायेगा और अनुबन्ध अवधि में उसकी फसल खराब होने का मुआवजा ठेका देने वाली कम्पनी को मिलेगा। 
दरअसल भारत के संविधान लेखकों और देश के निर्माताओं ने खेती को इसी कारण बाजार के प्रभावों से अलग रखने का फैसला किया था जिससे अंग्रेजों की दासता में दो सौ वर्षों तक रहे  भारत के किसानों से गुलामी का भाव पूरी तह छूट जाये और वे अपनी जमीन व उपज के उसी तरह मालिक होने का अनुभव करें जिस तरह कोई जमींदार किया करता था। इन सभी मुद्दों पर विचार करते हुए हमें कृषि क्षेत्र के बारे में किसी भी प्रकार के संशोधानात्मक उपाय करने चाहिएं। सत्ता और विपक्ष को अपनी भूमिका किसानों के हित में ही तय करनी चाहिए।  भारत में सब कुछ इन्तजार कर सकता है मगर कृषि क्षेत्र नहीं क्योंकि इसमें ही भारत बसता है।

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