भारत के मध्यकालीन इतिहास में केवल दो ही एेसे नायक हुए हैं जिनकी तुलना शक्ति, साहस व चतुरता के प्रतीक ‘शेर’ या ‘चीते’ से की गई। एक ‘पंजाब’ के महाराजा रणजीत सिंह और दूसरे ‘मैसूर’ के सुल्तान टीपू। रणजीत सिंह को शेरे पंजाब कहा गया तो टीपू सुल्तान को मैसूर का ‘चीता’। दोनों के नाम से ही उस समय भारत पर कब्जा करने वाली ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौजें कांपती थीं और इनके साम्राज्य को किसी भी तरह छल-बल से हड़पना चाहती थीं। यह महत्वपूर्ण है कि टीपू सुल्तान और महाराजा रणजीत सिंह में से टीपू सुल्तान का शासनकाल पहले रहा और यह मैसूर रियासत के साये में दक्षिणी भारत के क्षेत्रो में रहा। यह भी संयोग ही कहा जाएगा कि 18वीं सदी के अंत 1799 में टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद भारत के उत्तरी भाग पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के तेजस्वी शासन का प्रारम्भ होना शुरू हुआ जो 1846 तक उनकी मृत्यु के बाद कुछ समय तक रहा लेकिन दक्षिण में टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के खिलाफ जो युद्ध तकनीक व रणकौशल दिखाते हुए उनकी फौजों के छक्के छुड़ाए और उनका साथ देने वाली मराठा रियासतों व निजाम हैदराबाद को जिस तरह पस्त किया वह एक नजीर के तौर पर पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के काम आया होगा, एेसा अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि टीपू सुल्तान ने ही अंग्रेजी सेना से लड़ने के लिए फ्रांसीसी सैनिक अफसरों की मदद ली और उस समय इस देश के नायक ‘नैपोलियन बेनोपार्ट’ जैसे योद्धा से सम्पर्क साधा तथा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अंग्रेजों की मुखालफत करने के लिए अरब के मुस्लिम शासकों तक को अपने पक्ष में लेने की तजवीजें रखीं। इस मुहीम में उसने अंग्रेजों के किसी हिमायती को नहीं बख्शा फिर चाहे वह हिन्दू रहा हो या मुसलमान मगर अंग्रेज मूल रूप से छल- कपट का इस्तेमाल युद्ध तकनीक के रूप में करने में माहिर थे। इसी की बदौलत कम्पनी ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को 1756 में हराया था और उनका साम्राज्य अपने कब्जे में किया था अतः टीपू सुल्तान के खिलफ भी अंग्रेजों ने यही तकनीक घुमा-फिरा कर लागू की। टीपू के पिता नवाब हैदर अली द्वारा मैसूर राज्य का विस्तार किया गया था और उसने केरल में मालबार व कोझीकोड को अपने राज्य मेें मिला लिया था साथ ही कोडगू, त्रिशूर व कोच्चि पर विजय प्राप्त कर ली थी।
अंग्रेजों ने टीपू के खिलाफ इन इलाकों में ही विद्रोह कराने की कोशिश की और इसके साथ ही मराठा राजाओं की मदद से हिन्दू व इसाइयों को अपने साथ खड़ा होने के लिए प्रेरित किया जिसकी वजह से टीपू सुल्तान ने इन इलाकाें के लोगों को अंग्रेजों की तरफदारी करने की सजा उनका धर्म बदलवा कर दी परन्तु इसके समानान्तर ही उसने मराठा शासकों द्वारा उसके अपने राज्य में हिन्दू जनता को त्रस्त किये जाने और उनके देवस्थानों को तोड़े जाने का तीव्र प्रतिकार किया और हर हिन्दू देवस्थान व मठ आदि का पुनर्निर्माण कराया और अपनी राजधानी श्रीरंगपत्तनम को शृंगेरी मठ का सेवक घोषित किया। टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों को उनकी ही युद्धकला से मात देने के लिए यूरोपीय पद्धति पर अपनी सेनाओं का गठन किया और पहली बार युद्ध में ‘राकेट’ का इस्तेमाल करके अंग्रेजों तक के होश उड़ा दिए। उसका इरादा पूरे भारत से अंग्रेजों का सफाया करने का था और इसीलिए उसने अरब के मुस्लिम शासकों से सम्पर्क साध कर संयुक्त युद्ध करने का प्रस्ताव रखा था और फ्रांस की मदद लेने की पेशकश की थी क्योकि अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में उस समय कांटे की लड़ाई चल रही थी और अरब देश भी इसकी चपेट में थे मगर टीपू ने अपने राज्य का चहुंमुखी विकास करने के लिए एक योग्य शासक की तरह व्यापार व कृषि को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न उपाय किए। पुराने बांधों का उद्धार किया और नई सिंचाई सुविधाओं का निर्माण कराने के साथ ही रेशम उद्योग को स्थापित किया तथा खेती छोड़कर दूसरे धन्धे अपनाने के लिए आम जनता को प्रेरित किया।
वह मूल रूप से मुस्लिम होते हुए भी मैसूर या कर्नाटक की हिन्दू निष्ठ संस्कृति के प्रति समर्पित रहा और कट्टरपंथियों को उसने अपने दरबार में कोई जगह नहीं दी। मैसूर का दशहरा पर्व उसके शासन में शान से मनाया जाता रहा। अब महाराजा रणजीत सिंह का पंजाब में शासन देखिये। उन्होंने आगरा से लेकर काबुल तक अपने राज्य का विस्तार किया और इस साम्राज्य में पड़ने वाली विभिन्न मुस्लिम रियासतों के साथ बराबर का न्याय करते हुए अपनी सेनाओं को टीपू सुल्तान की तर्ज पर ही यूरोपीय तकनीकों से सजाया और फ्रांसीसी सैनिक सिपहसालारों को नियुक्त किया मगर उनके राज में अफगानिस्तान से लगते कुछ कबायली इलाकों ( जो अब पाकिस्तान में हैं ) में 1830 के लगभग मुस्लिम उलेमाओं ने ‘जेहाद’ छेड़ा था। इस जेहाद में उत्तर प्रदेश जैसे दूरदराज के इलाकों के कट्टरपंथियों ने भी हिस्सा लिया था मगर उनका यह प्रयास पूरी तरह असफल हो गया क्योकि महाराजा के शासन में हिन्दू–मुस्लिम भेदभाव नहीं था और उनके दरबार में मुस्लिम औहदेदारों का भी पूरा सम्मान था। पूरा जम्मू-कश्मीर महाराजा साहब के नियन्त्रण में ही था। उन्होंने भी अपनी प्रजा की भलाई के लिए राजस्व सुधार किए। अब यह बहुत ही महत्वपूर्ण एेतिहासिक घटनाक्रम है। अंग्रेजों का साथ देने में मराठा रियासतें सबसे आगे रहीं।
टीपू सुल्तान ने चार युद्ध लड़े और सभी में दक्षिण भारत की सबसे बड़ी रियासत ‘निजाम हैदराबाद’ भी उनके साथ रही। महाराजा रणजीत सिंह ने भी अंग्रेजों से कई बार लोहा लिया और हर बार मराठा सैनिक अंग्रेजी फौज का साथ देते रहे। पहले अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को परास्त करके उसकी मैसूर रियासत को कम्पनी का दास बनाया और बाद में महाराजा रणजीत सिंह की पंजाब रियासत को तो 1846 में उनके पुत्र दिलीप सिंह को गद्दी पर बिठाकर उसे बाकायदा खरीदा। उत्तर और दक्षिण के इन दो ‘शेरों’ के खत्म हो जाने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1857 में दिल्ली की गद्दी पर बैठे मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में लड़ी गई केन्द्रीय लड़ाई को आसानी से जीत लिया और 1860 में भारत की हुकूमत कम्पनी ने ब्रिटेन की ‘महारानी विक्टोरिया’ को बेच दी। इसलिए टीपू सुल्तान को जो लोग आज इतिहास के उस विकृत नजरिये से पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जिसे अंग्रेजों के पिट्ठुओं ने लिखा है वे भारत की आम जनता के साथ घोर अन्याय कर रहे हैं। वह दक्षिण भारत का ‘शेर’ था और हमेशा रहेगा। उसका लक्ष्य भारत से विदेशी शासन समाप्त करना था।