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पैट्रोल, कोरोना, अर्थव्यवस्था और आम आदमी

कोरोना वायरस के कहर ने जहां एक तरफ भारत की अर्थव्यवस्था को जबर्दस्त धक्का लाॅकडाऊन लागू करने की वजह से पहुंचाया है वहीं दूसरी तरफ अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे पैट्रोलियम तेल के दामों के औंधे मुंह गिरने से इसे ऐसी बिन मांगी सौगात मिली है

कोरोना वायरस के कहर ने जहां एक तरफ भारत की अर्थव्यवस्था को जबर्दस्त धक्का लाॅकडाऊन लागू करने की वजह से पहुंचाया है वहीं दूसरी तरफ अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में  कच्चे  पैट्रोलियम तेल के दामों के औंधे मुंह गिरने से इसे ऐसी बिन मांगी सौगात मिली है जिससे लाॅकडाऊन के नुकसान की आंशिक भरपाई करने में मदद मिल सकती है। कच्चे तेल के भाव 65 डालर प्रति बैरल से 20 व 25 डालर प्रति बैरल के बीच घूमने से भारत के आयात बिल में भारी कमी होगी जो सीधी बचत कहलायेगी। पैट्रोलियम पदार्थों की मांग में भारी कमी के चलते और कच्चे तेल के दामों में आयी कमी की वजह से ही केन्द्र सरकार ने पैट्रोल व डीजल पर उत्पाद शुल्क क्रमशः 13 व 10 रुपए प्रति लीटर बढ़ा दिया है। इससे सरकार की राजस्व हानि नहीं होगी मगर घरेलू बाजार में पैट्रोल व डीजल की कीमतें भी कम नहीं होंगी। कच्चे तेल के भाव गिर जाने से सरकार को सीधे लाभ होगा।
 कुछ अर्थशास्त्रियों का स्पष्ट मत है कि कच्चे तेल की कीमतों में आयी गिरावट से सरकार को वार्षिक आधार पर समग्र लाभ छह लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा का हो सकता है जो लाॅकडाऊन के कारण आयी आर्थिक गिरावट को बराबर करने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है बशर्ते सरकार इतनी धन राशि का  मदद पैकेज छोटे उद्योगों से लेकर कार्पोरेट जगत व कृषि, क्षेत्र से लेकर गरीब व मजदूर जगत को दे दे। भारत प्रति वर्ष 22 करोड़ टन से अधिक कच्चे तेल का आयात करता है जो दुनिया में तीसरे नम्बर पर आता है। कुल आयात बिल कच्चे तेल के भावों और डालर की रुपये में विनिमय दर पर निर्भर करता है। 
पिछले साल भारत ने कुल 120 अरब डालर के लगभग का कच्चे तेल का आयात किया था। जबकि इसका भाव 70 डालर प्रति बैरल के आसपास घूमा था। इस समीकरण को देखते हुए कच्चे तेल के भाव 26 डालर प्रति बैरल के आसपास आ जाने  पर भारत का आयात बिल 50 अरब डालर वार्षिक आधार पर पड़ेगा क्योंकि पैट्रोल की मांग में कमी दर्ज होगी। इसकी वजह लाॅकडाऊन है। लाॅकडाऊन समाप्त होने पर भी अर्थव्यवस्था को गति पकड़ने में समय लगेगा और सामान्य उत्पादनशील गतिविधियां दीवाली से पहले अक्तूबर महीने तक जाकर शुरू हो सकेंगी। अतः सरकार इस बचे धन का उपयोग अर्थव्यवस्था का चक्का घुमाने में ही कर सकती है। लेकिन सरकार ने उत्पाद शुल्क में भारी वृद्धि करके अपने राजस्व की सुरक्षा पहले से ही कर ली है। इसमें किसी बहुत बड़े आर्थिक पंडित की सलाह की जरूरत नहीं है कि आगे का रास्ता क्या होना चाहिए? 
2008-09 में जब विश्व मन्दी का चक्र चला था तो उस समय देश के वित्तमन्त्री पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी थे। उन्होंने तब दुतरफा नीतिगत कार्य किया था। एक तरफ किसानों की उपज का मूल्य बढ़ा दिया था और दूसरी तरफ उद्योग जगत को विभिन्न शुल्क दरों में छूट दी थी। इससे घरेलू बाजार में मांग में वृद्धि हुई थी और कारखानों में उत्पादन की गति कम नहीं हो पाई थी। निर्यात बाजार में माल का उठान न होने के बावजूद भारत ने घरेलू मांग के बूते पर 6.7 प्रतिशत की वृद्धि दर प्राप्त कर ली थी। मगर कोरोना का संकट इससे कहीं बहुत गहरा और घातक है। भारतीय उद्योग को अपना चक्का चलाने के लिए अपने श्रमिकों व कर्मचारियों का पूरा वेतन देना होगा और पुनः बाजार तन्त्र से अपने उत्पादों को बांधना होगा।
 उद्योगों के तीव्र गति से चलने की शर्त बाजार के तन्त्र का पूर्ण गति से सक्रिय होना होगा। इसके लिए कोरोना वायरस पर विजय प्राप्त करनी होगी। अतः बात घूम फिर कर फिर से कोरोना पर आ जाती है, इसलिए कोरोना के जाल को तोड़ने के पुख्ता इंतजाम करके ही अर्थव्यवस्था में जान फूंकी जा सकती है। इस लक्ष्य के लिए देश भर की सरकारें रात-दिन लगी हुई हैं और कोशिश कर रही हैं कि कोरोना को जहां तक संभव हो सीमित करके लगातार सिकोड़ दिया जाये। यह नीति सफल हो रही है क्योंकि अब जो नये संक्रमण के  मामले आ रहे हैं वे 90 प्रतिशत पहले से ही संक्रमित इलाकों से आ रहे हैं। इसके साथ ही 100 मरीजों में से 28 मरीज ठीक होकर अपने घर जा रहे हैं। मगर इससे सन्तोष नहीं किया जा सकता क्योंकि हमें अपनी अर्थव्यवस्था को चलायमान करना है और यह काम प्राथमिकता पर करना है वरना पूरे आर्थिक ढांचे में दीमक लगने का खतरा पैदा हो जायेगा। इसीलिए जरूरी है कि सरकार कोई ऐसा एकमुश्त आर्थिक पैकेज घोषित करे जिससे गांवों व शहरों के छोटे व मंझोले उद्योगों का चक्का घूमना शुरू हो और उसकी गड़गड़ाहट बड़े शहरों में स्थित बड़े उद्योगों तक पहुंचे और वे भी अपने कारखानों की मशीनों में तेल डालना शुरू करें। नीचे से ऊपर की ओर चल कर हम इस लाॅकडाऊन को तोड़ने में सफल हो सकते हैं क्योंकि कोरोना ने गांवों तक पहुंचने की हिम्मत नहीं की है। इक्का-दुक्का जो मामले आये हैं उन पर आसानी से जिला प्रशासन ने काबू पा लिया है। अतः बहुत जरूरी है कि उस गरीब आदमी के हाथ में पैसे पहुंचाये जायें जो अपने श्रम से भारत का विकास करता चला आ रहा है। संयोग यह है कि कोरोना जैसी महामारी ने भी इस आम गरीब आदमी को वह ताकत बख्शी है कि वह फिर से अपने श्रम से इस देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर डाल दे।

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