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किसान आन्दोलन और समाज

किसान आन्दोलन के 83वें दिन में प्रवेश करने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार अन्नदाताओं का यह विरोध-प्रदर्शन कब तक चलेगा?

किसान आन्दोलन के 83वें दिन में प्रवेश करने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार अन्नदाताओं का यह विरोध-प्रदर्शन कब तक चलेगा? किसानों के बारे में सर्वप्रथम यह स्पष्ट होना चाहिए कि किसानी का व्यवसाय कोई वाणिज्यिक गतिविधी नहीं है बल्कि मानवता की सेवा के लिए अपनाया गया पेशा है क्योंकि किसान की मेहनत से जो भी उपज होती है वह समस्त सृष्टि का भरण-पोषण करती है। दुनिया के किसी भी देश में जब खेती की बात होती है तो यह सवाल खड़ा होता है कि खेती करने से किसान के परिवार का भरण-पोषण सुविधापूर्वक हो पाता है कि नहीं ? भारत के सन्दर्भ में यह और भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी पांच हजार साल से भी ज्यादा पुरानी संस्कृति में कृषि को ‘उत्तम’ व्यवसाय कहा गया। इसकी वजह यही थी कि कृषक के सेवाभाव की जिम्मेदारी सम्पूर्ण समाज कृतज्ञता के साथ महसूस करता है। 
वास्तव में मानवता की सेवा का पर्याय ही कृषि कर्म है। यही वजह रही कि स्वतन्त्र भारत में कृषि आय को किसी भी प्रकार के ‘कर’ से मुक्त रखा गया और किसानों को सरकार की ओर से अनुदान देने की प्रथा शुरू की गई जिससे उसके द्वारा उपजाये गये अनाज का बंटवारा कमजोर तबकों में उनकी आर्थिक ताकत के अनुसार हो सके। इस कार्य में भी सरकारों ने लोक कल्याणकारी राज की परिकल्पना के साथ किसानों की उपज को ऊंचे भावों पर खरीद कर उसे गरीब जनता में कम मूल्यों पर वितरित करने की प्रणाली शुरू की जिसे ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ का नाम दिया गया । अतः भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों के एक वोट की ताकत पर गठित सरकारों ने किसानों के प्रति कृतज्ञता का भाव इस प्रकार दिखाया कि उसका घर-बार भी ठीक ढंग से चल सके। सरकारों ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझते हुए इस नीति का पालन किया और 1966 के आते-आते ऐसी प्रणाली विकसित की जिससे अपनी उपज लेकर खुले बाजार में पहुंचे किसान को उसकी मेहनत का भुगतान ऐसे दामों पर हो सके जिससे उसका खेती करने पर मन टिका रहे।
इस प्रणाली को न्यूनतम समर्थन मूल्य का नाम दिया गया। यह व्यवस्था लागू करके सरकार ने खुद जिम्मेदारी उठायी कि वह किसान की मुख्य फसलों का दाम इस प्रकार तय करेगी कि किसी फसल उगाने में उसका जो खर्चा हुआ है या लागत आयी है वह न केवल पूरी हो बल्कि उस पर किसान को पर्याप्त लाभ भी मिले। यह प्रणाली पूरी तरह कारगर साबित हुई और किसानों में आधुनिक कृषि तकनीकें इस्तेमाल करने को प्रेरित करने के लिए सरकार ने व्यापक कार्यक्रम चलाया जिसे कृषि क्रान्ति का नाम दिया गया। इसका सर्वाधिक लाभ संयुक्त पंजाब के किसानों ने उठाया जिसका गुणात्मक असर समूचे पंजाब की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर पड़ा और देखते-देखते ही यह राज्य लघु व मध्यम उद्योगों की स्थापना में भी बाजी मार गया। इस राज्य के लोगों की सकल आय एक बार देश में सर्वाधिक तक आंकी गई। इसका प्रभाव लोगों के जीवन स्तर पर पड़ना स्वाभाविक था, जिसकी वजह से पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों का जीवन स्तर देश के शेष राज्यों के लोगों के जीवन स्तर से काफी ऊपर उठता चला गया। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से इसमें गिरावट दर्ज होनी शुरू हुई है, जिसका मुख्य कारण 1991 से शुरू हुई बाजार मूलक अर्थव्यवस्था है क्योंकि इस अर्थव्यवस्था के नियामकों में कृषि क्षेत्र को लगभग लावारिस बना कर छोड़ा गया और कृषि अनुदान में लगातार कटौती की जाती रही। दरअसल खेती को उद्योग का दर्जा देने की वकालत यही बाजारमूलक अर्थव्यवस्था करती है। 
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में इसकी संभावना इसलिए नहीं है कि सांस्कृतिक रूप से खेती का सीधा सम्बन्ध सीधे सामाजिक व्यवस्था से है। यह सामाजिक व्यवस्था ही सरकार पर जिम्मेदारी डालती है कि वह देश के आय स्रोतों का बंटवारा किसानों की वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए करे जिससे समस्त मानव जाति अपनी मूलभूत खाद्य आवश्यकताओं की तरफ से निश्चिन्त हो सके। भारत की विशेषता को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से बेहतर शायद कोई और नहीं जान सकता था , इसीलिए उन्होंने आजादी से पहले ही अपने पत्र ‘हरिजन’ में लेख लिख कर कहा था कि लोकतन्त्र में सरकारों की पहली जिम्मेदारी लोगों की जीवनाेपयोगी जरूरतों को सुलभ कराने की रहेगी। अतः आन्दोलकारी किसान जो यह मांग कर रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी या संवैधानिक दर्जा दिया जाये। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में विचारणीय इसलिए है कि बाजार की ताकतें सामाजिक जिम्मेदारियों को नकारती हैं और किसी भी वस्तु का मूल्य ‘मांग व आपूर्ति’ के सिद्धान्त पर तय करती हैं जबकि किसान की फसल बाजार में केवल आपूर्ति के हिस्से का पालन ही करती है, जिसकी वजह से न्यूनतम समर्थन प्रणाली लागू की गई थी।  मगर किसान आंदोलन का जैसे-जैसे वक्त बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे ही सामाजिक परिस्थितियां जटिल होती जा रही हैं और आंदोलन समाज के अन्य वर्गों का भी ध्यान खींच रहा है। इस स्थिति का निवारण केवल किसानों और सरकार के बीच बातचीत से ही हो सकता है। बेशक दोनों पक्षों के बीच अभी तक वार्ताओं के 11 दौर हो चुके हैं और संसद में भी इस विषय पर चर्चा हो चुकी है मगर नतीजा कुछ नहीं निकल रहा है। इसके उलट जगह-जगह किसान पंचायतों के दौर चल रहे हैं जिससे किसानों में रोष और बढ़ रहा है। अतः वक्त की नजाकत कहती है कि निर्णायक वार्ताओं का दौर अब शुरू होना चाहिए और समस्या का कारगर हल निकाला जाना चाहिए। 
आदित्य नारायण चोपड़ा

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