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पेट को रोलने लगा है पैट्रोल

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अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम 75 डॉलर से ऊपर जाने से पैट्रोल और डीजल की कीमतों में और इजाफा होने के आसार लग रहे हैं। तेजी से बढ़ी पैट्रोल-डीजल की कीमतों ने देश की आम जनता पर कमर तोड़ प्रभाव डाला है। इनकी कीमत बढ़ने से दूसरी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ती हैं जिन्हें आम आदमी अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में इस्तेमाल करता है।

पैट्रोलियम पदार्थों की खुदरा कीमतों में यह बढ़ौतरी पूरे दक्षिण एडिया में सबसे ज्यादा है। इसका मूल कारण है कि भारत सरकार एक्साइज ड्यूटी लगाकर राजस्व इकट्ठा करने का काम कर रही है। पिछले चार वर्षों में पहली अप्रैल, 2014 से पैट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 9.48 रुपए प्रति लीटर से पहली अप्रैल 2018 को 19.48 रुपए प्रति लीटर हो गई है। यह बढ़ौतरी 105 प्रतिशत है।

पैट्रोल की कीमत में से 47.4 फीसदी हिस्सा टैक्स रेवेन्यू में जा रहा है। इसी तरह डीजल की एक्साइज ड्यूटी पहली अप्रैल, 2014 में 3.56 रुपए प्रति लीटर थी जो चार वर्षों में 15.33 रुपए प्रति लीटर पहली अप्रैल 2018 को हो गई। यह वृद्धि 338 फीसदी है। डीजल के खुदरा भाव का 38.9 फीसदी हिस्सा टैक्स के रूप में जा रहा है।

भाजपा की केन्द्र सरकार ने वादा किया था कि जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें घटेंगी तो ड्यूटी भी तेल पर कम की जाएगी परन्तु ऐसा नहीं किया गया। तेल कंपनियों ने तेल की कीमतें कम होने पर उपभोक्ताओं को कोई राहत नहीं दी, अब तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें बढ़ रही हैं लेकिन सरकार ने एक्साइज ड्यूटी कम करने से साफ इंकार कर दिया है।

वैसे एक पखवाड़े से तेल कंपनियों ने पैट्रोल-डीजल के दामों में कोई परिवर्तन नहीं किया है। इसे राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव तक ऐसे ही चलेगा। लोग मानकर चल रहे हैं कि चुनाव खत्म होते ही तेल कंपनियां दाम बढ़ा देंगी और पैट्रोल-डीजल के दाम 80 से सौ रुपए लीटर तक उछल सकते हैं।

सवाल यह है कि जब सरकार ने पैट्रोल-डीजल के मूल्यों को नियंत्रण से बाहर कर दिया है तो फिर दाम अंतर्राष्ट्रीय मूल्य के मुकाबले बढ़ाए क्यों नहीं जा रहे। यदि एकदम से दाम बढ़ाए जाएंगे तो बोझ तो आम लोगों पर ही बढ़ेगा। सरकारें अक्सर वोट की खातिर ऐसे फैसले करती रही हैं।

1998 में भी केन्द्र सरकार ने चुनाव के चक्कर में तेल की कीमतों में बढ़ौतरी को काफी दिनों तक टाले रखा था ले​किन चुनाव के बाद तेल की कीमतों में 40 फीसदी बढ़ौतरी कर दी थी। तब हाहाकार मच गया था आैर आज भी लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। सरकार ने जनता से वसूली कर लाखों रुपए का राजस्व तो इकट्ठा कर लिया लेकिन वह अब राहत देने को तैयार नहीं।

आर्थिक सचिव सुभाष चंद्र गर्ग कहते हैं कि अभी दाम उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं कि एक्साइज ड्यूटी घटाने पर विचार किया जाए। पैट्रोल-डीजल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में बढ़ौतरी स्टॉक की कमी और सीरिया और कोरिया के आसपास व्यापारिक तनाव और भौगोलिक राजनीति के चलते हुई और अब परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान और अमेरिका में तनाव बढ़ रहा है। विश्व में तनाव घटता फिलहाल दिखाई नहीं देता।

अगर ऐसा ही चलता रहा तो पैट्रोल पेट को रोलकर रख देगा। पैट्रोल-डीजल की कीमतों को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग उठी थी लेकिन उस पर भी कोई विचार नहीं किया गया। तेल कीमतों में वृद्धि का भारत पर नकारात्मक असर पड़ सकता है क्योंकि भारत प्रमुख ऊर्जा कमोडिटी के आयात पर अत्यधिक निर्भर है। सरकार कहती है कि एक्साइज ड्यूटी में अगर एक रुपए की कटौती की जाती है तो उसे 13 हजार करोड़ रुपए का नुक्सान होगा। सरकार को ग्राहकों के हित और राजकोषीय जरूरत के बीच संतुलन पर भी ध्यान देना होता है।

केन्द्र सरकार दाम घटाने की मांग पर गेंद राज्य सरकारों के पाले में डाल देती है कि राज्य सरकारें पैट्रोल-डीजल पर वैट को घटाएं। राज्य सरकारें भी अपना राजस्व कम करना नहीं चाहतीं। केन्द्र सरकार ने चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे में कमी लाकर उसे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3.3 प्रतिशत के स्तर पर लाने का लक्ष्य रखा है।

दूसरी तरफ सरकार को यह भी देखना होगा कि कहीं उसके कदम जन-विरोधी तो नहीं माने जा रहे। सरकार बड़े पूंजीपतियों के घरानों को टैक्सों में कई लाख करोड़ की छूट दे रही है। ऐसे में सरकारी खजाना भरने के लिए जनता से धन वसूलना उचित नहीं कहा जा सकता। केन्द्र को राहत देनी ही चाहिए। पैट्रोल-डीजल की कीमतों में स्थिरता के लिए कोई न कोई फार्मूला तय होना ही चाहिए। लोगों की नज़र में कल्याणकारी सरकार वही होती है जो उन्हें राहत पहुंचाए।

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