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पायलट की ‘परकैंच’ उड़ान

राजस्थान में राजनीतिक नाटक का पटाक्षेप अपेक्षित तर्ज पर ही हुआ है। सचिन पायलट को कांग्रेस पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष पद के साथ ही उपमुख्यमन्त्री पद से भी मुअ​ि​त्तल कर दिया है।

राजस्थान में राजनीतिक नाटक का पटाक्षेप अपेक्षित तर्ज पर ही हुआ है। सचिन पायलट को कांग्रेस पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष पद के साथ ही उपमुख्यमन्त्री पद से भी मुअ​ि​त्तल कर दिया है। उनके साथ ही दो अन्य मन्त्रियों को भी बर्खास्त कर दिया गया है जो पायलट के खेमे में रह कर मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत  के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा रहे थे। सचिन पायलट ने जिस तरह बागी तेवर अपनाते हुए पूरी कांग्रेस पार्टी को चुनौती दी और गहलोत सरकार के समक्ष संकट पैदा किया उसे देखते हुए उनकी यह सजा जायज मानी जायेगी क्योंकि पार्टी आलाकमान द्वारा उन्हें मनाने की पूरी कोशिश की  गई परन्तु उन्होंने राज्य में मुख्यमन्त्री बदलने की ही मांग रख डाली। यह मांग तब जायज मानी जाती जब कांग्रेस विधायकों में नेतृत्व के प्रति असन्तोष होता, परन्तु श्री गहलोत के पक्ष में कांग्रेस के अधिसंख्य विधायकों के होने पर इसे केवल व्यक्तिगत रंजिश की श्रेणी में ही डाला जा सकता है। बेशक पायलट के साथ 16 कांग्रेसी विधायकों का समर्थन बताया जा रहा है परन्तु विधायक दल का नेता पार्टी के भीतर वही बनता है जिसे बहुमत हासिल हो।
 श्री पायलट ने दूसरी गलती यह भी की कि वह दोनों ही पदों पर बने रह कर अपनी पार्टी की सरकार के खिलाफ ही संकट खड़ा कर देना चाहते थे। यदि उनमें आत्मविश्वास होता और उन्हें विधायकों का समर्थन प्राप्त होता तो वह पार्टी मंच पर आलाकमान से गुप्त मतदान द्वारा अपने और श्री गहलोत के बीच विधायक मंडल दल की बैठक में चुनाव कराने की मांग कर सकते थे, परन्तु उन्होंने एेसा न करके घर के झगड़े को चौराहे पर लाकर तमाशा करना बेहतर समझा। इसे राजनीतिक अपरिप​क्वता ही कहा जायेगा कि जिस पार्टी ने उन्हें 26 वर्ष की उम्र में सांसद बनने का अवसर दिया और 32 वर्ष की उम्र में केन्द्रीय मन्त्री बनने का सौभाग्य प्रदान किया तथा 42 वर्ष की उम्र में उपमुख्यमन्त्री बनाया उसे ही उन्होंने रुसवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और श्रीमती प्रियंका गांधी तक की पेशकश को ठुकरा दिया। कांग्रेस की यह परंपरा रही है कि जब किन्हीं दो नेताओं में किसी पद को लेकर रंजिश इस हद तक बढ़ जाती है कि दोनों में से कोई भी एक के नाम पर राजी न हो तो संसदीय दल या विधानमंडल दल में गुप्त मतदान से दोनों के भाग्य का फैसला कर लिया जाता है परन्तु शर्त यही रहती है कि झगड़ा पार्टी के भीतर तक ही सीमित रहे। ऐसा हमने 1966 में तब देखा था जब लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद प्रधानमन्त्री पद को लेकर स्व. मोरारजी देसाई अड़ गये थे और स्व. इन्दिरा गांधी को चुने जाने के खिलाफ उन्होंने कांग्रेस के भीतर अपनी आवाज बुलन्द की थी और मांग की थी कि उन्हें ही प्रधानमन्त्री  बनाया जाना चाहिए। तब कांग्रेस अध्यक्ष स्व. कामराज नाडार ने संसदीय दल की बैठक बुला कर सांसदों के बीच गुप्त मतदान कराया था जिसमें श्री मोरारजी देसाई भारी मतों से पराजित हुए थे और इन्दिरा जी नेता चुनी गई थीं व प्रधानमन्त्री बनी थीं।
इसके बाद विभिन्न राज्यों में कांग्रेस नेतृत्व का मुद्दा सुलझाने में कांग्रेस आलाकमान ने यही रास्ता पार्टी मंच पर कई बार चुन मगर पायलट ने वह रास्ता चुना जिससे पीछे मुड़ना उन्होंने खुद ही असंभव बना लिया। इसका कारण यही हो सकता है कि उनके सामने कुछ एेसे दूसरे बागी कांग्रेसी नेताओं की तस्वीर हो जिन्होंने हाल ही में दूसरे राज्यों में कांग्रेस की सरकारें गिराने का करतब करके अपने निजी हितों को पूरा किया है।
भारत के लोकतन्त्र की कुछ अपनी विशेषताएं हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि किसी राजनीतिक नेता की छवि के बारे में जो अवधारणा जनता बना लेती है उसे पलटना बहुत मुश्किल कार्य होता है, घाघ कांग्रेसी इस हकीकत को जानते हैं जिसकी वजह से राजस्थान के इस पूरे राजनीतिक नाटक के दौरान श्री पायलट की छवि अकड़ू और पार्टी से दगा करने वाले नेता की अनायास ही बन गई है। पायलट के लिए इस छवि को तोड़ना अब पहाड़ हिलाने जैसा होगा। स्व. राजेश पायलट का पुत्र होने की वजह से उन्हें कांग्रेस में मान-सम्मान एक सीमा से ऊपर तक जाकर मिला मगर इससे उनकी अपेक्षाएं भी बढ़ती गईं और वह मुख्यमन्त्री बनने का ख्वाब सिर्फ इसलिए देखने लगे कि 2018 का विधानसभा चुनाव उनकी सदारत में लड़ा गया था जबकि अशोक गहलोत की लोकप्रियता राजस्थान की आम जनता में कहीं बहुत ज्यादा थी। 
यह नहीं भूलना चाहिए कि इससे पूर्व 2014 का लोकसभा चुनाव भी राजस्थान में पायलट की सदारत में ही लड़ा गया था जिसमें पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी। विधानसभा चुनाव जीतने का पारितोषक भी उन्हें मिला और वह उपमुख्यमन्त्री बना दिये गये। राजस्थान मोहन लाल सुखाड़िया और बरकतउल्ला खां का राज्य है जिनके मुख्यमन्त्रित्वकाल में इस राज्य ने विकास व प्रगति के साथ सामाजिक भाईचारे और राजनीतिक पारदर्शिता का इतिहास लिखा है। इस विरासत को जातिगत आइने में ठोकने की किसी भी कार्रवाई को राजस्थानी जनता कभी स्वीकार नहीं कर सकती मगर पूरे प्रकरण से कांग्रेस को भी सबक लेने की जरूरत है। अभी तक की परंपरा रही है कि किसी भी राज्य की अन्तर्कलह को समाप्त करने में आलाकमान का फरमान सभी को शिरोधार्य रहा है मगर पायलट ने इस अवधारणा को गलत साबित कर दिया है। दूसरे पीढ़ीगत नेतृत्व बदलाव के चक्कर में पार्टी के प्रति निष्ठावान नेताओं व कार्यकर्ताओं की अनदेखी करके जिस तरह कुछ कथित ‘बड़े बाप’ के बेटों को सिर पर बैठाया गया वे ही सबसे पहले पार्टी को पैरों तले रोंद कर भाग रहे हैं। कांग्रेस का यह आपदकाल है, इसी समय मित्र व शुभ चिन्तक की सही पहचान होती है। 
‘‘धीरज, धरम, मित्र अरु नारी 
आपद काल परखिये चारी।’’    

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