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दिल्ली की हवा में घुलता जहर

राजधानी दिल्ली में आम लोगों को सांस तक लेने में जिस भारी प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है उस पर देश के सर्वोच्च न्यायालय की चिन्ता वाजिब है

राजधानी दिल्ली में आम लोगों को सांस तक लेने में जिस भारी प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है उस पर देश के सर्वोच्च न्यायालय की चिन्ता वाजिब है क्योंकि नागरिकों से समक्ष जो समस्या वायु की गुणवत्ता को लेकर आ रही है उसका इल्जाम सरकार पर लगा कर भागा नहीं जा सकता और न ही कोई भी सरकार इसके लिए जिम्मेदार है मगर प्रश्न केवल स्थिति को ठीक करने के लिए जरूरी और कारगर कदम उठाये जाने का है, जिसकी तरफ न्यायमूर्तियों ने केन्द्र सरकार का ध्यान आकृष्ठ कराया है। सर्वोच्च न्यायालय चाहता है कि सरकार इस बारे में सभी सम्बद्ध पक्षों की बैठक बुला कर ऐसा हल निकाले जिससे लोगों का जीवन सरल हो सके। सभी जानते हैं कि सांस लेकर ही मनुष्य जीवित रहता है। यह ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके भरोसे जिन्दगी आगे चलती है।  यदि इसमें ही दूषित हवा का समावेश हो जायेगा तो उसका असर सीधे आदमी की जिन्दगी पर पड़ेगा। मगर आदमी बिना भौतिक सुविधाओं के जी भी नहीं सकता है जिसके लिए  आर्थिक गतिविधियों का होना आवश्यक होता है। इसमें औद्योगीकरण प्रमुख होता है जिसके चलते वायु प्रदूषण भी होता है। 
वैज्ञानिक व आधुनिक जीवन के साथ कई विरोधाभासी गतिविधियां भी जन्म लेती रहती हैं जिनके चलते वातावरण प्रभावित होता है और वायु प्रदूषण इसी का प्रमुख अंग होता है। स्वच्छ हवा-पानी आदमी का मौलिक अधिकार होता है जिसकी व्यवस्था सरकारों को ही करनी होती है। जैसे-जैसे हम भौतिक तरक्की करते जाते हैं वेसे-वैसे ही अवरोधी प्रक्रियाएं भी जन्म लेती हैं और इसकी जिम्मेदारी किसी एक वर्ग या समाज अथवा पेशे पर नहीं डाली जा सकती। जिस प्रकार विकास समन्वित प्रक्रिया है उसी प्रकार अवरोधी गतिविधियां भी समन्वित प्रतिक्रिया है। अतः इसे रोकने के लिए संयुक्त व समन्वित प्रयास ही कारगर हो सकते हैं। सवाल यह है कि दीपावली के अवसर पर सर्वोच्च न्यायालय ने ही निर्देश दिया था कि बम-पटाखे न छोड़े जायें। इस पर अमल में कोताही हुई। परिणामस्वरूप दीपावली के अगले दिन ही दिल्ली का वायु प्रदूषण स्तर बहुत ऊंचा चला गया। इसके बाद कुछ दिनों बाद ही स्तर और ऊंचा गया। इसका क्या कारण हो सकता है? अक्सर दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण की जिम्मेदारी पड़ोसी राज्यों के किसानों के कन्धों पर डाल कर कह दिया जाता है कि उनके पराली जलाने से वायु में धुआं घुल जाता है जिसकी वजह से प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है और दिल्ली में सांस लेना मुश्किल हो जाता है। 
मगर भारत में किसानों ने पराली या पुराल हाल के कुछ वर्षों से ही जलानी शुरू नहीं की है बल्कि वे सदियों से एेसा ही करते आ रहे हैं। इसकी वजह यह भी पराली खेतों में ही जलाने से उसकी राख के मिट्टी में मिल जाने से खेतों की उर्वरा शक्ति में भी वृद्धि होती है। यह गेहूं की पराली या पुराल जाड़ों के मौसम  की शुरूआत में ही होती है और उत्तर भारत में इस पुराल का उपयोग गुरु नानाक देव जी के जन्म दिन देव दीपावली पर गंगा व अन्य नदियों के किनारे लगने वाले गंगा स्नान के मेलों में बहुतायत में होता रहा है। ये पराली रेतीले रास्तों पर बिछा कर आवागमन के लिए सुगम बनाने के काम में आती है और  गंगा स्नान पर लगने वाले मेलों के डेरों में बिछा कर यात्रियों के लिए गर्म बिछौना बनाने के काम आती है। इसका उपयोग भी अब कम होता जा रहा है। जिन राज्यों में गंगा स्नान के मेले नहीं लगते हैं वहां के किसान इसे खेतों में ही जला डालते हैं लेकिन हकीकत यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने जिस वैज्ञानिक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा है कि दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने के पीछे पराली के धुएं का केवल 30 प्रतिशत ही योगदान है, शेष 70 प्रतिशत अन्य स्थानीय कारणों से है जिनमें वाहनों का धुआं व भवन निर्माण की गतिविधियां आदि शामिल हैं। अतः न्यायमूर्तियों ने सुझाव दिया कि 70 प्रतिशत प्रदूषण के कारणों को रोकने के लिए गंभीर प्रयास किये जाने चाहिए।
दिल्ली सरकार ने इस तरफ बहुत त्वरित गति से कदम उठाते हुए एक सप्ताह के लिए स्कूल बन्द कर दिये और सरकारी दफ्तरों के कर्मचारियों को घर से ही काम करने के निर्देश दिये जिससे वाहन प्रदूषण में कमी हो सके। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुझाव दिया था कि क्यों न फौरी तौर पर दो दिन का लाॅकडाउन लागू कर दिया जाये। दिल्ली सरकार ने लाॅकडाउन तो लागू नहीं किया मगर तुरत-फुरत आपातकालीन बैठक बुला कर इस बारे में गहराई से विचार करने का प्रस्ताव रखा। सवाल यह है कि ये सब फौरी उपाय हैं, दीर्घकालीन उपाय नहीं। इस बारे में ऐसे ‘मास्टर प्लान’  की जरूरत है जिससे दिल्ली के सीमित क्षेत्रफल और घनी आबादी को देखते हुए ऐसी सन्तुलित व्यवस्था कायम की जाये जिससे भविष्य में पीढि़यों का जीवन सरल बन सके। इस बारे में औद्योगिक नीति व वाहन नीति ऐसी बनाने की जरूरत होगी कि दिल्ली में वायु में कम से कम ‘कार्बन डाइआक्साइड’ घुल सके। इसके साथ भवन निर्माण की गतिविधियों को भी इस प्रकार संचालित करना होगा कि यह कंक्रीट का जंगल न बन सके। दिल्ली की आबादी का घनत्व देखते हुए हमें इस बारे में राजनीति से ऊपर उठ कर कारगर योजना बनानी होगी जिससे यह लोगों के रहने की जगह बनी रह सके। 

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