पीओकेः सच का आइना (4)

पीओकेः सच का आइना (4)
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सचमुच हिन्दुस्तान एक शरीफ मुल्क है। आज अधिकृत कश्मीर में रहने वाले पूरी शिद्दत से इसे कबूल करते हैं। उन्होंने पाकिस्तान के साथ रहकर देख लिया। वह स्वयं एक स्वतंत्र प्रदेश के रूप में भी स्वयं को कभी सुरक्षित महसूस नहीं करते। वह जब भी इसकी कल्पना करते हैं, खौफजदा हो जाते हैं। उनकी नजर में जब भी भविष्य की कोई सुन्दर कल्पना गुजरती है, उसमें दूर-दूर तक पाकिस्तान का कोई भी नाम नहीं होता। वह चाहते हैं जुल्म की उस हकूमत से उन्हें निजात मिल जाए लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा। आखिर क्यों? पाक अधिकृत कश्मीर के लिए सन् 1988 का साल इस परिप्रेक्ष्य में बड़ा विस्मरणीय साल माना जाएगा। शिया मुसलमान कुछ खुली एवं स्वतंत्र विचारधारा के जिस इलाके में रह रहे थे वहां की घटना है। बहुत हद तक कश्मीरियों से इनके विचार मिलते थे। एक मस्जिद में कुछ धार्मिक कार्यक्रम चल रहा था। जैसे ही कार्यक्रम समाप्त हुआ, कुछ फौजी बूटों समेत मस्जिद में प्रवेश कर गए। कोहराम मच गया। कुछ सुन्नी मुसलमानों ने पाकिस्तान में खबर भेजी थी कि इलाके के शिया मुस्लिम और कश्मीरी मिलकर मस्जिद में रोज कुछ न कुछ पाकिस्तान के खिलाफ षड्यंत्र करते हैं। फौजियों ने आव देखा न ताव ए.के.-47 की आवाजों से सारा इलाका गूंज उठा। जो लोग बाहर भागे, वह एक ब्रिगेडियर की रिवाल्वर से आग उगलती गोलियों का शिकार हो गए। सारा फर्श खून से लाल हो गया।

पाकिस्तान ने चुनकर मुशर्रफ नामक ब्रिगेडियर को वहां भेजा था जिसे ऐसे कामों का अनुभव था। आज वही ब्रिगेडियर वक्त की सीढ़ियों को लांघता जिस पद पर आसीन हुआ उसे कौन नहीं जानता। वह है-जनरल मुशर्रफ। उपरोक्त घटना के बाद सारा अधिकृत कश्मीर दो दिन बंद रहा परन्तु एक वर्ष के अन्दर पाकिस्तान का जो दमन चक्र चला, वहां के मूल निवासियों ने यह मान लिया ​कि चाहे पाकिस्तान उन्हें 'आजाद कश्मीर' की संज्ञा देता है परन्तु वास्तव में वह 'बर्बाद कश्मीर' बन चुका है। दूर इलाकों को क्या कहें, आज भी उस इलाके में पीने के पानी का कोई इंतजाम नहीं। जो दरिया नजदीक बहते हैं उन्हें बांधने का काम भी अतीत में जब हुआ तो उसके पानी की दिशाओं का मुंह भी पाकिस्तान की ओर मोड़ दिया गया, इस इलाके में एक बूंद भी पानी नहीं पहुंचा।

वहां के लतीफ हुसैन बताते हैं,''इस इलाके से पाकिस्तान काे करीब 14.70 अरब की आमदनी हो जाती है परन्तु केवल 2 अरब रुपया ही इस इलाके के ​विकास के लिए खर्च किया जाता है।'' नसीम का मानना है-''2 अरब भी नहीं। आधे से ज्यादा पैसा तो खुद पाकिस्तानी खा जाते हैं।'' उस इलाके में एक मशहूर कहावत है,''जहां पाकिस्तान है वहां आतंकवाद है।''सबसे पहले वहां मुशर्रफ ने ही एक नया प्रयोग किया। शिया लोगों के कत्ल के कारनामे जब दूर-दूर तक गूंजने लगे तो मुशर्रफ ने एक नई चाल चली। 'लश्कर-ए-झांगवी' नामक एक उग्रवादी संगठन सबसे पहले यहां वजूद में आया। आरम्भ के ​दिनों में ये लश्कर वर्दी रहित सेना से ही शुरू हुआ और बाद के दिनों में इसकी रचना में थोड़ा परिवर्तन आया। पाकिस्तान में जितने बिगडैल, लुच्चे और लफंगे लोग थे सब इसमें भर्ती किए गए। इनकी कार्यसूची पर एक नजर डालें-दिन के समय औरतों को पर्दे में रहने के भाषण देते थे।

रात को किसी न किसी घर से औरतों को उठाकर ले जाते थे। मुखबिरों के इशारे पर हत्याएं करते थे। 90 के बाद के दशक में बाकायदा निम्नांकित इलाकों में और उग्रवादी आ गए और यह अधिकृत कश्मीर उनका ट्रेनिंग सैंटर हो गया। ये इलाके थे बाटापुरा, गिलगित, सालीकोट, भिम्बर, हाजीपीर, रावलकोट, द्रोमेल, छातार, मंगल बजरी और शरडी। सारे के सारे इलाके धीरे-धीरे भर गए। लोगों को खौफ हो गया। स्थानीय प्रशासन को भी निर्देश मिल गए कि ये ही लोग दौर के आका हैं, अतः इनके ऊपर किसी भी प्रकार का न तो प्रशासन का हुक्म चलेगा और न ही कोई ​नियंत्रण रहेगा। पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तान ने आतंकवाद की खेती की और यहीं से उसने भारत के जम्मू-कश्मीर में आतंक फैलाने का काम किया। पाकिस्तान सारे ​विश्व समुदाय को यह बात समझाना चाहता है कि भारत की सुरक्षा फौजें वहां जुल्म कर रही हैं। अतः वह जुल्म बंद कर दें तो पाकिस्तान भी उग्रवादी भेजना बंद कर देगा। उसकी इस बात को समझने के लिए भला कोई मुल्क कैसे तैयार होगा? कौन मुल्क स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा? आंतरिक सुरक्षा का अधिकार किसी भी मुल्क का अपना अधिकार है, दूसरा उस पर क्यों बोले? लेकिन पाकिस्तान इस पर बोलता है और बराबर झूठा प्रचार करता है।

अटल जी ने पाकिस्तान को उसकी असलीयत बता दी। अटल जी ने संयुक्त राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए कहा था-''जिस प्रकार अलकायदा और तालिबान से बातचीत नहीं की जा सकती, ठीक उसी प्रकार से पाकिस्तान से भी बातचीत नहीं की जा सकती।'' पूरे हाल में अगर अटल जी की जिस टिप्पणी पर तालियां गूंजी, तो वह यही टिप्पणी थी। 1950 के दशक यानी 1957 से अटल जी ने संयुक्त राष्ट्र को देखा है और उसे जाना है। अटल जी ने तो दो टूक संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भी उस दिन उंगली उठाई। उन्होंने कहा, ''संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में ​जिस युद्धविहीन विश्व की कल्पना की गई है, क्या वह कल्पना आज तक साकार हो सकी है? क्या ऐसा विश्व बनाया जा सका है? क्या युद्ध नहीं हो रहा? क्या खून नहीं बह रहा? मोम्बासा से मास्को तक और मुम्बई से बाली तक आज आतंकवाद अपने उफान पर है और मानवता जल रही है।'' (क्रमशः)

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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