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केरल का पुलिसिया कानून

लोकतन्त्र में आलोचना या असहमति अथवा मत विभिन्नता या मत विविधता का महत्व उसी प्रकार होता है जिस प्रकार इन्द्रधनुष में सात रंगों का।

लोकतन्त्र में आलोचना या असहमति अथवा मत विभिन्नता या मत विविधता का महत्व उसी प्रकार होता है जिस प्रकार इन्द्रधनुष में सात रंगों का। सातों प्राकृतिक रंगों को मिला कर ही इन्द्रधनुष अपनी छटा बिखेरता है और प्रकृति का मनोरम चित्रांकन करता है।
लोकतन्त्र दुनिया की सबसे श्रेष्ठ प्रशासन प्रणाली इसीलिए कहा गया क्योंकि इसमें प्रत्येक मतदाता की हिस्सेदारी होती है, चाहे उसने सत्ता पर बैठने वाले दल को अपना वोट दिया हो अथवा विपक्ष में रहने वाले राजनीतिक दल के प्रतिनिधियों को चुना हो।
चुने हुए सदनों में जो लोग भी पहुंचते हैं उन्हें वहां पहुंचाने की ताकत केवल आम मतदाता के हाथ में ही होती है। अतः इस प्रणाली के तहत चुने हुए सदन किसी भौतिक इन्द्रधनुष से कम नहीं होते जिनमें सभी वैचारिक रंगों में रंगे लोग शामिल होते हैं, परन्तु केरल की वामपंथी पिनयारी विजयन सरकार ने विरोध या आलोचना के स्वरों को दबाने के लिए किसी व्यक्ति के प्रति अपशब्दों या आक्रामक तेवरों वाली नुक्ताचीनी का सहारा लेते हुए राज्य की पुलिस के कानून में संशोधन करके तथाकथित गैर वाजिब टिप्पणी करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार करके उस पर दस हजार रु. तक का जुर्माना करने और तीन साल तक की सजा देने का प्रावधान किया।
आश्चर्यजनक रूप से यह काम मुख्यमन्त्री ने एक अध्यादेश के जरिये किया जिस पर राज्यपाल महोदय ने हस्ताक्षर भी कर दिये। भारत के खुले लोकतन्त्र में इस प्रकार के उपाय दमनकारी ही कहे जाते हैं क्योंकि इनके माध्यम से सरकारें अपने विरुद्ध उठने वाली आवाजों को दबाना चाहती हैं।
ऐसा प्रयास 80 के दशक में बिहार के कांग्रेसी मुख्यमन्त्री स्व. डा. जगन्नाथ मिश्र ने भी किया था मगर तब उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा था क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की अलम्बरदार आजादी के बाद से उनकी ही पार्टी कांग्रेस रही थी। हालांकि इमरजेंसी के दौर में स्व. इंदिरा गांधी ने इस स्वतन्त्रता को पूरी तरह समाप्त कर दिया था परंतु बाद में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था कि प्रैस पर सेंसरशिप लागू करना उनकी बहुत बड़ी गलती थी।
इतिहास कुछ सीखने और सबक लेने के लिए होता है और भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों को तो इस बारे में बहुत ज्यादा सावधान होने की जरूरत है क्योंकि संसद से लेकर सड़क तक ये पार्टियां सरकारी नीतियों और कार्यकलापों की जम कर आलोचना करती हैं।
अतः अपने शासन के दौरान केरल में वे ऐसे ही कार्यों की वकालत किस तरह कर सकती हैं? दूसरे एेसे कानून को अध्यादेश की मार्फत लाना लोकतन्त्र में जुर्म तक कहा जा सकता है क्योंकि ऐसा करके सरकार पुलिस का इस्तेमाल लोकतन्त्र को पंगु बनाने के लिए ही करती है परन्तु प्रसन्नता की बात है कि श्री विजयन ने घोषणा कर दी है कि इस नये कानून के इस्तेमाल पर वह फिलहाल रोक लगा रहे हैं और विधानसभा में इस पर विस्तृत चर्चा कराने के बाद ही कोई अंतिम फैसला लेंगे।
जाहिर है कि स्वयं सरकार में शामिल विभिन्न वामपंथी दलों ने भी इस कानून को लोकहित के विरुद्ध माना है और इस सम्बन्ध में तीखी प्रतिक्रियाएं जारी की हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा ने तो यहां तक कह दिया है कि उनकी पार्टी सत्ताधारी वाम मोर्चे की बैठक में यह मामला पुरजोर तरीके से उठायेगी परन्तु मूल प्रश्न कम्युनिस्ट वैचारिकता का भी है।
इस विचारधारा के अनुसार शासन प्रणाली एक दलीय (टोटलिटेरियन) आधार पर होनी चाहिए। अर्थात सत्ता में बैठे लोगों के कार्यकलापों पर नुक्ताचीनी नहीं की जानी चाहिए परन्तु आजाद भारत में प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने कम्युनिस्टों को संसदीय लोकतन्त्र में शिरकत करने की इजाजत तभी दी थी जब उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मुतल्लिक बने कानून (अनुच्छेद 19) की उप धारा में यह संशोधन कर दिया था कि भारत में केवल वही राजनैतिक पार्टी चुनाव लड़ पायेगी जो हिंसक माध्यमों से सत्ता बदलने में विश्वास न रखती हो और जिसका विश्वास भारत की चुनाव प्रणाली के माध्यम से शान्तिपूर्वक तरीके से सत्ता बदलने में हो।
इसके बाद ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय संविधान की कसम उठा कर चुनावों के माध्यम से सत्ता परिवर्तन करने को स्वीकृति दी थी। अतः मार्क्सवादी पार्टी के नेता मुख्यमन्त्री विजयन को इस ऐतिहासिक हकीकत को ध्यान में रखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कानून के साथ छेड़छाड़ करनी चाहिए थी। इस सिलसिले में भाजपा के नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का एक सार्वजनिक भाषण सन्दर्भ में लेने योग्य है।
अटल जी एक चुनावी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा, ‘भाइयो मैं रूस भी गया हूं और चीन गया हूं।’ चीन में मैंने देखा कि लोग अखबार नहीं पढ़ते हैं। राजनैतिक चर्चाएं नहीं करते हैं, वे बस इतना जानना चाहते हैं कि उनके कल के कार्य से सरकारी अफसर नाराज तो नहीं हैं। वहां हर व्यक्ति कम्युनिस्ट है।
अगर नहीं भी है तो भी उसे दिखाना पड़ता है कि वह कम्युनिस्ट है। ये लोग सुबह-सुबह सरकारी दुकानों पर ब्रेड लेने के लिए लम्बी-लम्बी लाइनें लगाते हैं। उनका जीवन एक मशीन की तरह चलता है। हमारा भारत एक जीवन्त लोकतन्त्र है जिसमें किसी गरीब आदमी को भी चुनाव लड़ कर सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने का अधिकार है। कहने का मतलब यह है कि कम्युनिस्टों की मूल प्रणाली में नागरिक स्वतन्त्रता की कोई अवधारणा नहीं है, इस वास्तविकता को केरल की वामपंथी सरकार को पहचानना होगा और भारत की लोकतान्त्रिक परंपराओं के अनुसार ही अपनी विचारधारा में संशोधन करते हुए खुली संविधानपरक खुली नुक्ताचीनी की आजादी प्रत्येक नागरिक को देनी होगी।
यह आजादी भारतीयों को सौगात में नहीं मिली है बल्कि अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लम्बा संघर्ष करके हमारे पुरखों ने इसे हासिल किया है। अतः श्री विजयन को इस अध्यादेश को विधानसभा में भ​ी ले जाने की जरूरत नहीं है।
-आदित्य नारायण चोपड़ा

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