राजनेता और पाखंड एक-दूसरे से जुड़े हैं और सोलह आने एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह स्थिति हर जगह है। जहां तक हमारे देश की बात है तो यहां वादों के बीच की खाई वास्तव में पाटने योग्य नहीं है। कांग्रेस पार्टी सत्ता में आने के तुरंत बाद संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का वादा करने में अपनी विडंबना नहीं देख पा रही। सवाल यह है कि मौजूदा लोकसभा चुनावों में एक तिहाई महिलाओं को अपना उम्मीदवार नामांकित करने से उसे किस चीज ने रोका। प्रावधान को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाए जाने का इंतजार क्यों किया जाए? इसे स्वेच्छा से क्यों नहीं लागू किया जाए? और अगर ऐसा कांग्रेस करती तो निस्संदेह बीजेपी बैकफुट पर आने को मजबूर हो जाती।
इस संदर्भ में, पिछले साल की तीक्ष्ण आलोचना को याद करें, जब एक विशेष सत्र में संसद ने महिला आरक्षण विधेयक को पारित किया था। आलोचना करने वालों में कांग्रेस पार्टी सर्वाधिक मुखर थी। कांग्रेस ने सत्तारूढ़ दल पर नौटंकी करने का आरोप लगाते हुए पूछा था कि इन आरक्षणों को 2026 में शुरू होने वाली परिसीमन प्रक्रिया के अंत में प्रस्तावित करने के बजाय सीधे क्यों नहीं लागू किया जा सकता है। वास्तव में, कुछ आलोचक तो इस बात से इतने नाराज थे कि 106वें संशोधन अधिनियम, जिसे महिला आरक्षण विधेयक के नाम से जाना जाता है, में केवल 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव है जबकि 97 करोड़ मतदाताओं में से लगभग आधी महिलाएं हैं। हमेशा की तरह, इस मर्तबा भी विपक्ष किसी भी सूरत में आलोचना करने के अपने चिरपरिचित धर्म को निभा रहा था।
लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी द्वारा अब तक घोषित किए गए उम्मीदवारों में 13 प्रतिशत से भी कम महिलाएं हैं। ऐसे में पार्टी के लिए अपने चुनावी घोषणापत्र में यह दावा करना क्या हास्यास्पद नहीं लगता कि वह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को तुरंत एक तिहाई टिकट देगी। महज़ दिखावा, है ना? वहीं, ज्यादा शोर-शराबा किए बिना, भाजपा ने महिलाओं को 66 सीटें यानी अब तक घोषित टिकटों में से 17 फीसद टिकट देकर थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया है। महिला उम्मीदवारों की अंतिम संख्या तब पता चलेगी, जब पार्टी सभी सीटों के लिए सूची घोषित करेगी। जहां 2014 के चुनाव में बीजेपी के 428 उम्मीदवारों में 38 महिलाएं थीं, वहीं 2019 में यह संख्या 436 उम्मीदवारों में से 55 हो गई थी। कुल मिलाकर, निवर्तमान लोकसभा में कुल 543 सदस्यों में से 78 महिलाएं सदस्य थीं। यानी महिला प्रतिनिधित्व 14.3 प्रतिशत था। उम्मीद है कि नए सदन में यह प्रतिशत बढ़ेगा।
क्षेत्रीय दलों द्वारा महिलाओं का प्रतिनिधित्व, चाहे वह समाजवादी पार्टी हो या राजद या फिर इस मामले में बसपा प्रमुख मायावती की पार्टी ही क्यों न हो। इन सभी राजनीितक दलों में उनकी महिला विधायकों के नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। इसकी मुख्य वजह उनके जीतने की क्षमता में कमी है, इसलिए आरक्षण की बात कहना एक सुविधाजनक बहाना है। जब तक आप स्थानीय सरकार के स्तर पर महिलाओं को राजनीति में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते तब तक यह संभावना नहीं है कि आपको विधानसभा और संसदीय चुनावों के लिए अनुभवी उम्मीदवार मिलेंगे। नगर निकायों को आदर्श रूप से राज्य और केंद्रीय विधानसभाओं के लिए महिलाओं को तैयार करने के लिए एक प्रशिक्षण मैदान के रूप में काम करना चाहिए।
महिलाओं को विभिन्न व्यवसायों में उचित स्थान न मिलने के पीछे सामाजिक-आर्थिक और ऐतिहासिक कारक हो सकते हैं। पर खुशी की बात है कि आजादी के 75 साल बाद लड़कियों के उच्च शिक्षा ग्रहण करने के खिलाफ पुरानी धारणाएं और परंपराएं लैंगिक समानता की राह पर जा रही हैं। उदाहरण के तौर पर महिला क्रिकेट की सफलता पर गौर करें, जहां अब महिलाएं काफी आगे हैं। लेकिन एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक तरीके से लैंगिक समानता तब खुद पर जोर देगी जब हमारी राज्य और केंद्रीय विधायिकाएं बड़ी संख्या में महिला सदस्यों से गूंजती हैं, जब महिलाओं को घर और बाहर जीवन के सभी क्षेत्रों में समान माना जाता है।दरअसल ऐसी कोई चीज नहीं है जो पुरुष हासिल कर सकते हैं, महिलाएं नहीं कर सकतीं। अगर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में वरिष्ठ पदों पर महिलाओं की संख्या पर ध्यान दें, तो वह काफी अच्छी है। हमारे राजनेता यह मानते हैं कि लोकसभा या राज्य विधानसभा के लिए महिलाओं के लिए टिकट पाने की बजाय चांद पर उतरना आसान है। लेकिन रॉकेट विज्ञान के विपरीत राजनीति के लिए किसी शिक्षा, किसी प्रशिक्षण या किसी अनुभव की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिए पुरानी मानसिकता को चुनौती देने की आवश्यकता कभी अधिक नहीं रही।
– वीरेंद्र कपूर