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राजनीतिक एजेंडे का युद्ध?

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अब से ठीक एक साल बाद देश में लोकसभा चुनाव होंगे। अतः यह पूरा वर्ष सरकार से लेकर विपक्षी दलों के लिए राजनीतिक कलाबाजियों का होगा मगर इन चुनावों में वही पक्ष विजयश्री का वरण करेगा जो आम जनता के बीच अपना स्पष्ट राजनीतिक एजेंडा रखकर दूसरे पक्ष का उस पर जवाब मांगेगा। अतः यह एजेंडा रखने का प्रयास दोनों ओर से ही शुरू हो गया है। भाजपा का एजेंडा जाहिर तौर पर मजबूत नेतृत्व के साथ राष्ट्रवाद के चारों तरफ घूमता नजर आ रहा है और वह अपने विभिन्न सहायक दलों की तरफ से इसी बाबत राजनैतिक बहस को शुरू करना चाहती है। जिस तरह आतंकवाद को लेकर हिन्दू और मुस्लिम पहचान को निशाने पर लिया जा रहा है वह इसी तरफ एक निर्णायक प्रयास लगता है मगर यह बहस का मुख्य केन्द्र इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि सत्ता में रहते भाजपा इसे नागरिकों के बीच में धर्म की पहचान के साथ बांधने की भूल नहीं कर सकती। यदि भाजपा यह जोखिम उठाती है तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध चलाई जा रही मुहिम का मुंह भारत की तरफ ही वापस मुड़ जायेगा और तब भारत किसी और के नहीं बल्कि पाकिस्तान के निशाने पर आ जायेगा जहां इसी साल के जून महीने में राष्ट्रीय एसेम्बली के चुनाव हो रहे हैं। पाकिस्तान की आन्तरिक राजनीति में भारत का यह राजनीतिक एजेंडा वहां के कट्टरपंथी इस्लामी तबकों के हाथ में कारगर अस्त्र की तरह होगा जिसकी बुनियाद पर वे भारत विरोधी एजेंडे को वहां का चुनावी एजेंडा बनाने की कोशिश करेंगे। दोनों तरफ के कट्टरपंथियों के लिए यह बेशक अनुकूल परिस्थिति होगी लेकिन भारत में इस एजेंडे की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि यहां के विपक्षी दल खासतौर पर कांग्रेस पार्टी अपना एजेंडा किस रूप में और किस आधार पर आम जनता के बीच रखती है। भाजपा की रणनीति को तोड़ कांग्रेस पार्टी को इस तरह ढूंढना होगा कि मतदाताओं का विभाजन धर्म की पहचान के बदले आर्थिक व सामाजिक गैर-बराबरी के आधार पर हो।

इस सन्दर्भ में वर्तमान सरकार के चार साल के शासन ने बहुत ज्यादा सामान कांग्रेस के लिए मुहैया करा दिया है। खासकर दलितों के सन्दर्भ में पिछले कुछ सालों से इस वर्ग के नेता समझे जाने वाले रामविलास पासवान अब यह जरूर कह रहे हैं ​िक दलितों को संरक्षण देने के लिए केन्द्र सरकार अध्यादेश का सहारा ले सकती है। अतः कांग्रेस पार्टी के लिए यह चुनौतीपूर्ण विषय होगा कि वह भाजपा का मुकाबला करने के लिए उसके एजेंडे के समकक्ष अपना कौन-सा एजेंडा रखती है।

जाहिर तौर पर यह एजेंडा विकास व रोजगार का ही एजेंडा हो सकता है जिसका प्रयोग उसने गुजरात के विधानसभा चुनावों के दौरान किया था। यदि भारत में 368 खाली स्थानों के लिए 23 लाख प्रार्थियों के प्रार्थनापत्र आते हों तो समझा जा सकता है कि बेरोजगारी की हालत क्या है? इसका सम्बन्ध सीधे युवा वर्ग से है। पिछले 4 सालों में अकेले युवा वर्ग की आकांक्षाओं पर ही ढेरों पानी इस तरह पड़ा है कि रेलवे ने 96 हजार नौकरियों के लिए आवेदन अब जाकर मांगे हैं जिनके लिए डेढ़ करोड़ अभ्यर्थियों ने आवेदन किया है जबकि रेलवे के दो लाख से ज्यादा पद ठेके के हवाले कर दिये गये हैं। चपरासी और सफाईकर्मी की नौकरी के लिए वकालत व इंजीनियरिंग पास युवा आवेदन करने से नहीं कतरा रहे हैं। यह स्थिति तब है जब भारत से रोजाना 10 हजार कुशल व अकुशल कामगार विदेशों को जा रहे हैं। 2014 से 2017 में केवल 9 लाख रोजगार ही उपलब्ध कराये जा सके हैं। अगर सरकार पकोड़े बेचने के धन्धे को भी संसद में खड़े होकर रोजगार बताने की कोशिश करती है तो इससे यही पता लगता है कि इसकी निगाह में रोजगार की परिभाषा क्या हो सकती है ?

हकीकत यह है कि पूरे देश में अकेले केन्द्र सरकार के अधीन आने वाले विभागों में ही 10 लाख से अधिक स्वीकृत चतुर्थ व तृतीय श्रेणी के पद खाली पड़े हुए हैं। इनमें से कुछ के लिए परीक्षाएं भी हो चुकी हैं और प्रार्थियों का चयन भी कर लिया गया है मगर उनकी नियुक्ति नहीं की गई है। इसके साथ ही विभिन्न राज्यों की पुलिस व सेना में भी अनगिनत स्थान रिक्त हैं। उन पर नियुक्तियों को टाला जा रहा है। रोजगार के मोर्चे पर पूरी तरह अराजकता का माहौल बना हुआ है और सरकार मुद्रा योजना का हवाला देकर युवकों का मजाक उड़ा रही है। अतः जो भी नया एजेंडा निकलेगा वह इन सभी विसंगतियों के बीच से ही निकलेगा। इसकी वजह साफ है कि हम मतदाताओं को हिन्दू और मुसलमान बना चुके हैं अब उन्हें खुद अहसास हो रहा है कि वे तो पहले इन्सान ही हैं और इनके इन्सान होने की भावनाओं को समझा जाना चाहिए।

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