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नागरिकता पर राजनीतिक कलह

इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि देश में नागरिकता को लेकर राजनीतिक दलों में व्यापक खींचतान शुरू हो गई है। यह खींचतान मुख्य रूप से सत्तारूढ़ भाजपा सरकार एवं विपक्षी पार्टियों के बीच कुछ सैद्धांतिक मुद्दों को लेकर हो रही है।

इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि देश में नागरिकता को लेकर राजनीतिक दलों में व्यापक खींचतान शुरू हो गई है। यह खींचतान मुख्य रूप से सत्तारूढ़ भाजपा सरकार एवं विपक्षी पार्टियों के बीच कुछ सैद्धांतिक मुद्दों को लेकर हो रही है। विपक्ष को डर है कि नागरिकता रजिस्टर तैयार करने को लेकर ऐसी  विधि अपनाई जा सकती है जिससे देश के गरीबों व अल्पसंख्यकों को कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। यह दिक्कत भारतीय मूल का निवासी होने के बारे में आवश्यक दस्तावेजों के न होने पर पैदा हो सकती है या अपने पुरखों के प्रमाणित भारतीय नागरिक होने के बारे में हो सकती है।
 भारत की नागरिकता का पहला और मूल प्रमाण उसके भारत में जन्म लेने का होता है परन्तु प्रौढ़ या बूढ़ी हो रही पीढ़ी के समय में जन्म प्रमाणपत्र लेने के बारे में कभी चिन्ता नहीं की गई। खास कर गरीब व मजदूर वर्ग के अपेक्षाकृत अनपढ़ लोगों के पास ऎसे किसी प्रमाणपत्र की अपेक्षा करना भी उचित नहीं है। सरकार ने आधार कार्ड बनवाने को राष्ट्रीय अभियान बना कर गरीब व अनपढ़ लोगों के हाथ में भी भारत के निवासी होने का दस्तावेज तो दिया है परन्तु आधार कार्ड केवल किसी भी व्यक्ति के भारत में रहने का प्रमाण ही माना गया है। वह भारत की नागरिकता का प्रमाण नहीं है जबकि आधार कार्ड की मार्फत कोई भी व्यक्ति  किसी भी सरकारी मदद, योजना में भागीदार होने का हकदार होता है।
 यह पहचान पत्र तो जरूर है मगर केवल भारत के निवासी होने का, भारतीय नागरिकता का यह पहचान पत्र अपनी निदेशिका में ही नहीं माना गया है। प. बंगाल की मुख्यमन्त्री  ममता बनर्जी का मूल विरोध इसी बात को लेकर है कि जब आधार कार्ड तक नागरिकता का प्रमाण नहीं है तो गरीब व मजदूर या अनपढ़ तबके के लोग किस तरह अपनी नागरिकता सिद्ध करेंगे। इनमें से अधिसंख्य लोग किसी अदालती कामकाज या अन्य सरकारी कामकाज के लिए अपने जन्म होने का ऐलान शपथ पत्र देकर ही काम चलाते हैं। अतः राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने से पूर्व सरकार को इसकी विधि का ब्यौरा देशवासियों को पहले से ही बताना होगा जिससे किसी भी प्रकार के भ्रम का निवारण समय होते हो सके। 
किन्तु केन्द्र सरकार ने आज पूरे देश में (केवल असम को छोड़ कर ) राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने का फैसला किया है। राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर या जनगणना का काम 2010 में भी हो चुका है। 2021 में पुनः जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने का कार्य पहले से ही निश्चित है परन्तु प. बंगाल व केरल की राज्य सरकारों ने इस काम को करने से भी मना कर दिया है। इस रजिस्टर को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का पहला चरण समझा जा रहा है जिसकी वजह से दो राज्यों ने यह कदम उठाया है। असल मुद्दा यह है कि पूरे भारत में नागरिकता को लेकर बेचैनी क्यों फैल रही है? 
अंग्रेजी शासनकाल से लेकर भारत में जनगणना और जातिगत गणना होती रही है परन्तु ऐसा वातावरण कभी नहीं बना। यह ऐसा मुद्दा भी नहीं समझा गया जिस पर राजनीतिक दल आपस में ही उलझें और इसी पर राजनीति शुरू हो जाये। भारत के धर्म बहुल व जाति बहुल समाज को देखते हुए कभी यह विचार नहीं आया कि इसके नागरिकों की पहचान करने की कोई प्रणाली तैयार की जाये। यह विचार असम की समस्या को लेकर ही पैदा हुआ जहां भारत बंटवारे के बाद से ही बहुत घालमेल हो गया था क्योंकि ‘सिलहट’ जैसा जिला पूर्वी पाकिस्तान में चला गया था इसी वजह से यहां 1951 में नागरिकता रजिस्टर तैयार किया गया और इसके बाद 1971 में बंगलादेश बन जाने के बाद भारी संख्या में शरणार्थियों के आने की वजह से पुनः घालमेल हो गया था जिसकी वजह से 25 मार्च, 1971 को आधार दिन मान कर असम का नागरिक रजिस्टर बनाने का समझौता1985 में असम आन्दोलनकारियों व केन्द्र की राजीव गांधी सरकार के बीच हुआ। 
किन्तु इसके समानान्तर ही विपक्ष में बैठी भाजपा ने अवैध बंगलादेशियों का मामला उठाना शुरू कर दिया। दिल्ली में यह मांग अक्सर इस पार्टी के एक समय में महारथी रहे श्री विजय कुमार मल्होत्रा उठाया करते थे। 2004 से 2009 के बीच जब वह लोकसभा में भाजपा के उपनेता थे तब भी यदा-कदा यह मामला उठा दिया करते थे। अतः कहीं न कहीं ऐसा  आभास रहा कि भारत में अवैध तौर पर विदेशी नागरिक रहते हैं परन्तु घुसपैठियों को निकालने के लिए यदि हम अपने ही मूल नागरिकों से उनके इतिहास के दस्तावेज मांगने लगेंगे तो बेचैनी हो सकती है, किन्तु इसके साथ ही नये संशोधित नागरिकता कानून के जुड़ जाने से स्थिति और भी ज्यादा जटिल हो गई है।
 इसका विरोध भी विपक्षी दल एक स्वर से कर रहे हैं और इसे भारतीय संविधान की भावना के विरुद्ध बता रहे हैं लेकिन इसके साथ ही यह भी हकीकत है कि भारत में अवैध रूप से रहने वाले किसी भी विदेशी नागरिक को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। शरणार्थी और घुसपैठिये में फर्क तो सरकार को करना ही पड़ेगा। माना कि विपक्ष का काम सरकार का विरोध करना होता है मगर उसके विरोध को जब जन समर्थन मिलने लगता है तो मुद्दा विचारणीय हो जाता है। जनसंख्या रजिस्टर जैसे मुद्दे पर ही जब राज्यों से विरोध की आवाज आने लगे तो परिस्थिति की गूढ़ता का हमें संज्ञान लेना होगा। भारतीय संविधान की व्यवस्था के अनुसार केन्द्र सरकार की नीतियों व योजनाओं को लागू करने का काम राज्य सरकारें ही करती हैं। इनमें आपस में तालमेल कायम रहना बहुत जरूरी रहता है। 
भारत की बहुदलीय राजनीतिक प्रशासनिक प्रणाली के चलते लोकहित के कार्यक्रमों में कभी रुकावट नहीं आती है।  हमारा संघीय ढांचा बहुत मजबूती के साथ इस तरह खड़ा किया गया है कि अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें जनहितकारी कार्यों पर एकमत होने में देर न लगायें। अतः वर्तमान परिस्थितियों में मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुला कर विचार-विमर्श के जरिये आम सहमति बनाने की कोशिश की जाये तो इससे भ्रम का वातावरण समाप्त होने में मदद मिल सकती है।

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