हर चुनावों में कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है। इस बार भी कुछ नई बातें हो रही हैं जो इन चुनावों को पिछले चुनावों से अलग करती हैं। लोकसभा चुनावों से पहले मुस्लिम धर्म गुरु हो या आप हिन्दू धार्मिक संस्थाओं से जुड़े बाबा हो । वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सियासी फतवे जारी करते रहे हैं। मुस्लिम धर्मगुरु भी हमेशा रंग बदलते रहे और अन्य सम्प्रदायों के गुरु भी रंग बदलते रहे। पंजाब और हरियाणा और उत्तर प्रदेश में डेरा का कितना महत्व रहा पर सबने देखा है। चुनाव से पहले हर बड़ा नेता भागा-भागा डेरों की तरफ जाता था, अपना शीश नवाता था और वोटों की खैरात मांगता था। जैसे-जैसे इनकी पोल खुलती गई और एक के बाद एक बाबा पहुंचते रहे। उसके बाद यह डेरे अपना अस्तित्व बचाने के लिये स्वयं जूझ रहे हैं। अपने प्रमुख बाबाओं के जेल में पहुंचने के बावजूद डेरे आज भी अपना महत्व दिखाने की जुगत भिड़ा रहे हैं लेकिन इतना निश्चित है कि राजनीतिज्ञों और आम जनता ने इनसे काफी दूरी बना ली है।
धार्मिक आस्थाओं के चलते अंध भक्त आज भी डेरा के अनुयाई बने हुये हैं फिर भी समाज ने काफी करवट ली है। इसी तरह मुस्लिम समाज भी करवट बदलता नजर आ रहा है। कभी चुनावों से पहले उलेमाओं के फतवों का अपना एक महत्व था। एक फतवे से चुनाव पलट जाते थे। फतवे अखबारों की सुर्खियां बनते थे। 2019 का लोकसभा चुनाव पहला ऐसा चुनाव दिखाई दे रहा है जब राजनीतिक दल न तो उलेमाओं के पास जा रहे हैं और न ही उन्हें अपने पास फटकने दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण का मतदान होने वाला है लेकिन किसी भी उलेमा का कोई फतवा सामने नहीं आया है। इनकी दुकानें अब बंद हो चुकी हैं। बदलते समय में इनकी बोलती बंद हो गई है। मुस्लिम समाज भी जान चुका है कि यह उलेमा उन्हें गुमराह करते रहे और खुद करोड़ों कमाते रहे। अगर किसी राजनीतिक दल ने उन्हें मोटी पेशकश कर दी तो उसे वोट देने का फरमान जारी कर देते थे।
उन्हें लगता था कि मुस्लिम समाज तो भेड़ों का झुंड है जिधर हांक देंगे झुंड उधर ही चलने लगेगा। कभी किसी दल का समर्थन तो कभी किसी दल का। दलबदलू मुस्लिम धर्मगुरु हमेशा अपना रंग बदलते रहे। कभी भाजपा को हराने के लिये कांग्रेस को वोट देने तो कभी समाजवादी पार्टी को हराने और बसपा को जिताने की अपीलें करते रहे। जब केन्द्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा सत्ता में आई ताे इन्होंने खामोशी अख्तियार कर ली। दिल्ली के शाही इमाम के बारे में कौन नहीं जानता। उन्होंने सियासत में क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाये। लखनऊ के मौलाना तो गजब के रहे। कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जमकर कोसने वाले और उन्हें रोजा रखने की अपील करने वाले मौलाना तो योगी और मोदी के मुरीद हो गये। दरअसल मुस्लिम समाज इन उलेमाओं से रूठ चुका है। कुछ सामाजिक और मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने चेतावनी दी है कि यदि किसी मौलाना ने किसी पार्टी को वोट देने का फतवा जारी किया तो उस मौलाना का बायकाट कर दिया जायेगा। कई मामलों पर मुस्लिम नेताओं ने अपनी चुप्पी तोड़ी है। बदलाव की बयार में पुरानी भ्रांतियां चनकाचूर हो रही हैं। आज का मुस्लिम समाज पहले की अपेक्षा कहीं अधिक जागरूक है।
राजनीति में जो मुस्लिम चेहरे हैं वह ज्यादातर अगड़ी जातियों से हैं। क्षेत्रीय दलों ने मुस्लिमों के बीच बढ़े इस भाव को समझ लिया है। इसीलिये वह पसमांदा मुस्लिमों की राजनीति करने वालों को आगे ला रहे हैं। दलित मुस्लिम भी अब तरक्की चाहता है। मुसलमानों में पिछड़ जाने का एहसास बढ़ा है। आज उनके बच्चे भी कम्प्यूटर सीख रहे हैं। आज राजनीतिक दल कितनी ही हिन्दू-मुस्लिम की सियासत कर लें लेकिन मुसलमानों की राजनैतिक चेतना का सवाल काफी महत्वपूर्ण है। मुस्लिम समाज की एकता का स्वरूप बिल्कुल उनकी धार्मिक एकता के स्वरूप से मिलता-जुलता है। समस्या यह रही कि समाज का जो राजनीतिक नेतृत्व है और जो धार्मिक नेतृत्व है उसने राजनीतिक चेतना को धार्मिक चेतना का पर्याय मान लिया गया। यही कारण है कि धार्मिक चेतना ने विकास के मामले में मुस्लिम समाज को पिछड़ने को मजबूर कर डाला।
जिस दिन मुस्लिम समाज धार्मिक चेतना से अलग हट कर राजनीतिक नजरिये से सोचने लगेगा तो वह जान जायेगा कि आखिर वह पिछड़ा क्यों बना? आजादी के बाद अनेक छोटी-बड़ी मुस्लिम राजनीतिक पार्टियां बनी लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। मुस्लिम हमेशा धार्मिक नेतृत्व पर ही आश्रित बने रहे। अब लगता है कि मुस्लिम समाज बदल रहा है। अब वह धार्मिक फतवों से गुमराह नहीं होने वाला। उसे अपना वोट डालने के लिये फतवों की जरूरत नहीं। वह अपने मन की आवाज पर वोट डालेगा। बेहतर यही होगा मुस्लिम समाज अपनी वास्तविक चुनौतियों से निपटने के लिये स्वयं तैयार रहे।