भारत का पड़ोसी देश नेपाल एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हो रहा है। इसलिए काठमांडू के हर राजनीतिक घटनाक्रम पर भारत की नजर है। भारत ने हमेशा यही चाहा है कि नेपाल में लोकतंत्र मजबूत हो और वहां स्थिर सरकार बने। भारत की नेपाल में गहरी हिस्सेदारी है, लेकिन नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता भारत को भी चिंतित कर देती है। नेपाल की पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ के नेतृत्व वाली सरकार गठन के दो महीने बाद ही उस समय गहरा झटका लगा जब पूर्व प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने प्रचंड सरकार से समर्थन वापिस ले लिया। ओली की पार्टी के समर्थन वापिस लेने के पीछे प्रचंड द्वारा राष्ट्रपति चुनाव में नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रामचन्द्र पोडयाल का समर्थन करना रहा। पोडयाल की नेपाली कांग्रेस सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा नहीं है। इससे ओली नाराज हो गए। उनकी पार्टी ने आरोप लगाया कि नेपाल के प्रधानमंत्री द्वारा अलग ढर्रे पर काम शुरू करने और राष्ट्रपति चुनाव से पहले बदले हुए राजनीतिक समीकरण के कारण उसे सरकार से समर्थन वापिस लेना पड़ रहा है। नेपाल की स्थिति पर विशेषज्ञों की नजर है और वे प्रचंड सरकार के नफे नुक्सान का आंकलन कर रहे हैं।
प्रचंड के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब सदन में अपना बहुमत साबित करना और विश्वास मत हासिल करना है। विश्लेषकों का मानना है, कि ओली की पार्टी द्वारा समर्थन वापिस लेने के बावजूद प्रचंड के नेतृत्व वाली सरकार को कोई खतरा नहीं है। 275 सदस्यीय नेपाली संसद में यूएमएल के 79 सांसद हैं। नेपाल की संसद में सर्वाधिक सीटें नेपाली कांग्रेस के पास 89 हैं। प्रचंड को सरकार बनाए रखने के लिए 138 सांसदों का समर्थन चाहिए। छोटे-छोटे दलों का समर्थन पाकर प्रचंड के पास काफी समर्थन नजर आता है। राजनीतिक घटनाक्रम में कुछ भी निश्चित नहीं होता। इसलिए जनता समाजवादी पार्टी, जनता पार्टी, प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी और सीपीएन यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी और अन्य छोटे दलों के बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह प्रचंड का समर्थन करेंगी या नहीं। राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में स्थितियां क्या मोड़ लेती हैं कुछ कहा नहीं जा सकता? प्रचंड ने के.पी. शर्मा ओली की सरकार से समर्थन वापिस लेकर उनकी सरकार गिराई थी और नेपाली कांग्रेस से गठबंधन कर शेर बहादुर देऊबा को प्रधानमंत्री बनाया था। नए चुनावों के बाद प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने की लालसा ने जोर पकड़ा और उन्होंने नेपाली कांग्रेस से गठबंधन तोड़ ओली से हाथ मिला लिया। के.पी. शर्मा ओली ने चीन की गोद में बैठकर भारत को काफी परेशान करना शुरू किया था और उनके रहते नेपाल में चीन का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया था। यह नेपाल की विडम्बना ही रही कि माओवादी क्रांति के बाद आजतक वहां स्थिरता कायम नहीं हो सकी है।
नेपाल में 90 के दशक में माओवादियों ने देश में लोकतंत्र कायम करने और एक नए संविधान की मांग करते हुए हथियार उठा लिए थे। 10 साल तक चले गृहयुद्ध का अंत 2006 में एक शांति समझौते से हुआ। इसके दो साल बाद नेपाल में संविधान सभा चुनाव हुए जिसमें माओवादियों की जीत हुई, साथ ही 240 साल पुरानी राजशाही का अंत हो गया। मगर मतभेदों की वजह से संविधान सभा नया संविधान नहीं बना सकी और कार्यकाल का कई बार विस्तार करना पड़ा। आखिरकार 2015 में एक संविधान को स्वीकृति मिल गई। लेकिन नेपाल में लोकतंत्र बहाल तो हो गया पर उसमें लगातार अस्थिरता बनी रही। नेपाल में संसद बहाल होने के बाद से अब तक दस प्रधानमंत्री हुए हैं।
चीन के.पी. शर्मा ओली को ही प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहता है क्योंकि उसके इशारे पर ही ओली ने नेपाल का नया नक्शा जारी कर भारत से सीमा विवाद को हवा दी थी। हालांकि प्रचंड भी कम्युनिस्ट हैं, लेकिन अब वह भारत और चीन में संतुलन बनाकर चल रहे हैं। नेपाल भारत के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि वहां चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य में चीन का दखल बढ़ा तो वह भारत के लिए शुभ नहीं होगा। पिछले तीन दशक में नेपाल में कई तरह के राजनीतिक और सामाजिक उतार-चढ़ाव आए हैं, परन्तु जो नहीं बदला तो वो है पारम्परिक राजनीतिक दलों का नेतृत्व। सन् 1990 में राजनीति के अखाड़े में जो प्रमुख खिलाड़ी हुआ करते थे अब भी मैदान में वही जमे हुए हैं। नेपाल की जनता इन चेहरों से थक चुकी है। नेपाल के मतदाता कई स्थापित नेताओं को नकार चुके हैं। पिछले चुनावों में कई युवा चेहरे सामने आए हैं। आज की राजनीति में नए चेहरों को आजमाना बहुत जरूरी है। बेहतर यही होगा कि नेपाल के राजनीतिक दल नए चेहरों को मौका दें और नई सोच के साथ नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्म करने के लिए आगे आएं तभी वहां लोकतंत्र मजबूत होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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