सियासत का 'धैर्य' और 'गुस्सा' - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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सियासत का ‘धैर्य’ और ‘गुस्सा’

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जब कोई देश अपने दुश्मन को सजा देने के लिए उठ खड़ा होता है तो उसकी रहनुमाई करने वाले लोग उसे इस तरह ढांढस बन्धाते हैं कि उनके धैर्य में उनका प्रतिशोध इस तरह समाहित हो जाये कि दुश्मन को हर तरफ अपनी तबाही का डर सताने लगे। देशवासियों को गुस्सा जज्ब करने की ताकीद रहनुमा इसीलिए करता है जिससे दुश्मन को यह पता ही न लग सके कि उस पर हमले की रफ्तार कैसी होगी और किस तरफ से होगी। 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ स्व. इन्दिरा गांधी ने ऐसा कमाल किया था कि वह अमेरिका भी गश खाकर गिर पड़ा था जिसने 1965 के भारत-पाक युद्ध में सीधे तौर पर पाकिस्तान की न केवल मदद की थी बल्कि उसे बेवजह ही भारत से टकराने के लिए उकसाया भी था।

वजह एक ही थी कि अमेरिका भारत की उस तरक्की से रंजिश खा रहा था जो उसने अपने बूते पर संरक्षित अर्थव्यवस्था के तहत चौतरफा प्राप्त की थी। यह पं. नेहरू की दूरदर्शितापूर्ण नीतियों का करिश्मा ही था कि 1962 में चीन से युद्ध हार जाने के बाद उनके जीवित रहते पाकिस्तान के फौजी हुक्मरानों में भारत की तरफ टेढ़ी निगाह करने की हिम्मत नहीं थी बल्कि इसके उलट पं. नेहरू ने 1964 में कश्मीर के नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को नजरबन्दी से रिहा करके पाकिस्तान भेज कर पैगाम दिया था कि हिन्दोस्तान की हदों की तरफ बुरी नजर डालने की कीमत चुकाने में पाकिस्तान की हस्ती बर्बाद हो सकती है।

पं. नेहरू ने यह तब किया था जब पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान जनरल अयूब ने पाक अधिकृत कश्मीर का कुछ इलाका चीन को तोहफे में दे दिया था। पूरी दुनिया में अपनी कूटनीति का लोहा मनवाने वाले पं. नेहरू ने पाकिस्तान को सही राह पर लाने के लिए जम्मू-कश्मीर के ही उस नेता को इस्लामाबाद भेज कर सन्देश दिया था कि अपने कब्जे वाले कश्मीर में उसकी कार्रवाई का सबसे कड़ा विरोध कश्मीरी लोग ही करेंगे जिसने इस सूबे में महाराजा के शासन के विरुद्ध लोकतान्त्रिक युद्ध लड़ा था।

शेख अब्दुल्ला का पाकिस्तान में तब जनरल अयूब ने राजकीय स्वागत किया था और उनकी शान में लाल गलीचे खोल दिये थे मगर शेख साहब ने जब यह साफ कर दिया कि कश्मीरियों और भारत के सम्बन्धों में किसी तरह का बदलाव नहीं आ सकता है और जनरल अयूब को खुद दिल्ली जाकर पं. नेहरू से बातचीत करनी चाहिए और कश्मीर समस्या का स्थायी हल निकालना चाहिए तो उनके वापस भारत होते ही जनरल अयूब ने उन्हें ‘नेहरू का गुर्गा’ करार दे दिया मगर जनरल अयूब तब नई दिल्ली आने के लिए राजी हो गये थे और उनकी यात्रा की तारीख भी जून महीने के बीच में तय हो गई थी मगर दुर्भाग्य से 27 मई को पं. नेहरू का निधन हो गया लेकिन जनरल अयूब ने उनके जनाजे में शामिल होने के लिए अपने विदेश मन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो को नई दिल्ली भेज कर कबूल किया था कि वह पं. नेहरू की शख्सियत के आगे शायद ही टिक पाते।

कश्मीर के कुछ इलाके को जनरल अयूब ने भुट्टो के कहने पर ही चीन को सौगात में दिया था क्योंकि भुट्टो समझते थे कि ताकतवर चीन को हमेशा के लिए दोस्त बनाने का यही सुनहरा मौका है क्योंकि 1962 में चीन ने अक्साईिचन के कुछ इलाके को अपने कब्जे में ले लिया था। अतः पाक अधिकृत कश्मीर के इससे लगे इलाके को चीन को भेंट में देकर पाकिस्तान कश्मीर समस्या को त्रिपक्षीय बना सकता है क्योंकि पाकिस्तान का पलड़ा कश्मीर मुद्दे पर हल्का पड़ सकता है। मगर पं. नेहरू की दूरदृष्टि को इस हकीकत को समझने में देर नहीं लगी और उन्होंने शेख अब्दुल्ला को नजरबन्दी से रिहा करके इसका सफल तोड़ निकाल लिया।

हकीकत यह है कि जिस दिन 27 मई को पं. नेहरू का निधन हुआ उस दिन शेख अब्दुल्ला पाक अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद शहर में थे और निधन का समाचार तब पहुंचा जब वह वहां एक जनसभा को सम्बोधित करने जा रहे थे। सभा को सम्बाेधित करके शेख साहब वहीं से सीधे दिल्ली आ गये थे। अतः कहा जा सकता है कि यदि पं. नेहरू का​ निधन न होता तो संभवतः कश्मीर समस्या का पूर्ण हल निकल गया होता मगर उनकी मृत्यु के बाद जनरल अयूब ने आंखें बदलीं और नये प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री को कमजोर समझ कर अमेरिका के दिये गये फौजी असलहे की अकड़ पर कश्मीर में ही फौजी कार्रवाई शुरू कर दी।

यह बेवजह का ऐसा युद्ध था जो पाकिस्तान ने अमेरिका की पीठ पर बैठकर लड़ा था और जिसका असली लक्ष्य भारत की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देना था। यही वजह थी कि जब यह युद्ध समाप्त हुआ तो अमेरिका ने नई प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी के ऊपर भारत के बाजार विदेशी कम्पनियों के लिए खोलने के लिए कसकर दबाव डाला मगर इंदिरा जी ने इसके बदले आजाद भारत में पहली बार रुपये का अवमूल्यन करके देश की अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर ला दिया।

यह कार्य बहुत दुष्कर था जिसे इंदिरा गांधी जैसी ही शक्तिशाली प्रधानमन्त्री कर सकती थीं मगर इसके बावजूद वह पश्चिम दुनिया और अमेरिका की आंख का कांटा बनी रहती थीं। यही वजह थी कि जब वह भारत में तेज रफ्तार से अर्थव्यवस्था को संरक्षित और सुरक्षित करने का अभियान चला रही थीं तो ठीक लोकसभा चुनावों से पहले पाकिस्तान ने दो कश्मीरी युवकों को ही अपने यहां आतंकवादी प्रशिक्षण देकर श्रीनगर हवाई अड्डे से एक भारतीय यात्री विमान का अपहरण करा कर उसे लाहौर में फुंकवा दिया था मगर इंदिरा जी ने इसे किसी भी सूरत में चुनावी मुद्दा नहीं बनने दिया और देशवासियों से अपील की कि वे उन ताकतों से सावधान रहें जो भारत के लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ लड़वाकर ही देश की ताकत को कमजोर करना चाहते हैं और इस बहाने भारत को उस रास्ते से भटकाना चाहते हैं जिस पर चल कर वह समावेशी विकास करके आत्मनिर्भरता प्राप्त करना चाहता है।

1971 का फरवरी से लेकर मार्च महीने तक का वह समय बहुत ही संजीदा था। कश्मीर समस्या को पाकिस्तान सुलगा रहा था और जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के समर्थन से चलने वाला उनके सहयोगी मिर्जा अफजल बेग का जनमत संग्रह मोर्चा राज्य के चुनावों में हिस्सा लेकर इसे हवा देना चाहता था। इंदिरा जी ने एक तरफ शेख अब्दुल्ला को 18 महीने के लिए कश्मीर से देश निकाला दिया और दूसरी तरफ मोर्चा पर प्रतिबन्ध लगा दिया और तीसरी तरफ पाकिस्तान के सभी विमानों पर भारतीय हवाई सीमा में उड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

पाकिस्तान इससे भीतर ही भीतर तड़प गया और वे लोग भी तड़प गये जो इस बहाने चुनावों में साम्प्रदायिक फिजां तैयार करना चाहते थे मगर इस सबके पीछे इंदिरा गांधी का भारत के लोगों को इतना ही आश्वासन था कि सरकार अपना काम करेगी और इस तरह करेगी कि पूरे देश में अमन-चैन के कायम रहते ही दुश्मन को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा और हुआ भी यही।

दिसम्बर महीने के आते-आते पाकिस्तान को बीच से चीरकर दो टुकड़ों में बांट दिया गया और पूरा देश भारत की वीर सेना की विजय गाथाओं से गूंज उठा। वह अमेरिका दुम दबाकर बंगाल की खाड़ी में छिपा रहा जिसने बड़ी अकड़ से अपने एटमी जंगी जहाजी बेड़े को इसके पानी में उतारा था। पूरा देश तब कह उठा था ‘‘वो नीली-पीली आंधी है, वो इन्दिरा नेहरू गांधी है।’’ दरअसल यह आचार्य चाणक्य की वह उक्ति थी जिसमें उन्होंने कहा कि सुुदृढ़ साम्राज्य के सम्राट के एक हाथ में आग और दूसरे में पानी होना चाहिए।

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