हिमाचल का राजनैतिक परिदृश्य

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हिमाचल प्रदेश में फिलहाल सुखविन्दर सिंह सुक्खू की सरकार राज्यसभा चुनाव में 68 सदस्यीय विधानसभा में सत्ता व विपक्ष के बीच 34-34 का आंकड़ा आने के बावजूद बच गई है और इसका बजट भी पारित हो गया है। अब विधानसभा का बजट अधिवेशन भी समाप्त हो गया है मगर इसके बावजूद सरकार पर बागी कांग्रेसी विधायकों ने तलवार लटका रखी है। राज्य में जिस प्रकार कांग्रेस की अन्दरूनी कलह उभर कर आयी है उसी की वजह से कांग्रेस का 'दिमाग' कहे जाने वाले इसके प्रत्याशी श्री अभिषेक मनु सिंघवी को राज्यसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा। 68 सदस्यीय सदन में कांग्रेस के 40 सदस्य हैं और विपक्षी दल भाजपा के 25 सदस्य हैं मगर जीत भाजपा प्रत्याशी हर्ष महाजन की हुई। इसके अलावा तीन निर्दलीय विधायकों का भी सुक्खू सरकार को समर्थन प्राप्त है लेकिन कांग्रेस के छह विधायक बागी हो गये औऱ तीनों निर्दलीय भी उनके साथ हो लिए। इस प्रकार विपक्ष के साथ 34 विधायक हो गये और कांग्रेस के साथ भी 34 विधायक ही रह गये। अपने विधायकों को एक साथ न रख पाने का सीधा दोष श्री सुक्खू को दिया जा सकता है मगर इसके पीछे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती प्रतिभा सिंह का गणित भी काम करता दिख रहा है जिनका श्री सुक्खू से 36 का आंकड़ा माना जाता है।
सरकार और संगठन में समुचित तालमेल न रहने की वजह से कांग्रेस को संभवतः ऐसी पराजय का मुंह देखना पड़ा। सुक्खू जमीनी नेता हैं और एक गरीब बस कंडक्टर के सुपुत्र हैं। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें मुख्यमन्त्री का रुतबा बख्स कर उनकी प्रतिभा का पूरा सम्मान किया अतः उनका कर्त्तव्य बनता था कि वह अपनी पार्टी की साख को भी ऊंचा बनाये रखने के लिए पार्टी के भीतरी मतभेदों को सुलझाने के लिए अथक परिश्रम करते। प्रतिभा सिंह के सुपुत्र विक्रमादित्य सिंह ने सुक्खू सरकार से इस्तीफा देकर और बाद में अपना इस्तीफा वापस लेकर कांग्रेस हाईकमान को संकेत दिया है कि उनकी आवाज सुनी जानी चाहिए। मुख्यमन्त्री के सामने लक्ष्य बहुत बड़ा था। उन्हें मालूम था कि राज्यसभा चुनाव में यदि हार का सामना करना पड़ता है तो इसका असर 100 दिन के भीतर होने वाले लोकसभा चुनावों पर पड़ सकता है। इस तरफ पार्टी आलाकमान को भी समय रहते चेत जाना चाहिए था परन्तु कांग्रेस की हालत किसी लुटे नवाब की तरह की होकर रह गई है जिसे बाकी बचा-खुचा लुटने के बाद ही अक्ल आती है।
पूरे उत्तर भारत में हिमाचल की सरकार कांग्रेस की एकमात्र सरकार है। यदि लोकसभा चुनावों से पहले इसमें दल-बदल की वजह से दरार आय़ी है तो उसके लिए भाजपा को दोष नहीं दिया जा सकता। सभी जानते हैं कि राज्यसभा चुनावों में दल-बदल कानून लागू नहीं होता अतः अपने 40 विधायकों को एकजुट रखने की प्राथमिक जिम्मेदारी मुख्यमन्त्री की ही थी। यह जिम्मेदारी तब और बढ़ जाती थी जब 25 सदस्यों वाली भाजपा ने चुनाव में अपना प्रत्याशी हर्ष महाजन को बना दिया था। महाजन पुराने खानदानी कांग्रेसी रहे हैं। उनके पिता स्व. देशराज महाजन भी कट्टर कांग्रेसी थे और हिमाचल प्रदेश के संस्थापक स्व. डा. यशवन्त परमार के मन्त्रिमंडल में रहे थे। जाहिर है कि हर्ष महाजन को अपने कांग्रेसी सम्बन्धों पर भरोसा था। इसी से कांग्रेस को अतिरिक्त सावधानी की मुद्रा में आ जाना चाहिए था। जिसकी वजह से छह कांग्रेसी विधायकों ने निडर होकर उनके पक्ष में क्रास वोटिंग की। मगर इससे कांग्रेस को अपूरणीय क्षति हुई।
राज्यसभा में वह श्री सिंघवी जैसे विद्वान सांसद को नहीं भेज सकी। हिमाचल की जनता ने 2022 के चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत देकर स्पष्ट सन्देश दिया था कि उसका कांग्रेस की नीतियों व नेताओं पर भरोसा है। सुक्खू ने चुनावी वादों को पूरा भी किया और पुरानी पेंशन स्कीम को भी लागू किया तथा गरीब महिलाओं को डेढ़ हजार रुपए महीना वजीफा देना भी चालू किया। सरकार बाकायदा काम कर रही थी और प्राकृतिक आपदा की वजह से हुए नुक्सान को पूरा करने के भी भरपूर प्रयास कर रही थी मगर अपने ही भीतर की आपदा को पहचानने में वह असफल रही।
इस राज्य में भाजपा यदि दल बदल को बढ़ावा देती है तो वह भी जनादेश के खिलाफ किया गया काम ही माना जायेगा जिसका असर लोकसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है। अतः कांग्रेस व भाजपा दोनों को ही अब संभल-संभल कर चलना होगा। साथ ही विक्रमादित्य सिंह को भी अपने बागी तेवरों को नियन्त्रण में रखना होगा क्योंकि विधायक मंडल में आज भी श्री सुक्खू का ही बहुमत है मगर यह आलाकमान को देखना होगा कि पार्टी और सरकार का भविष्य किस नेता के हाथों में ज्यादा सुरक्षित रहेगा।

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