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जम्मू-कश्मीर में बदल जाएगा राजनीतिक परिदृश्य

डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का एक देश, एक विधान और एक प्रधान का संकल्प 5 अगस्त, 2019 को उस समय पूरा हो गया था जब केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 ए द्वारा दिए गए विशेष दर्जे को एक झटके में निरस्त कर ऐतिहासिक भूल को ठीक करने वाला ऐतिहासिक कदम उठाया था।

डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का एक देश, एक विधान और एक प्रधान का संकल्प 5 अगस्त, 2019 को उस समय पूरा हो गया था जब केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 ए द्वारा दिए गए विशेष दर्जे को एक झटके में निरस्त कर ऐतिहासिक भूल को ठीक करने वाला ऐतिहासिक कदम उठाया था। अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू-कश्मीर राज्य पर भारतीय संविधान की अधिकतर धाराएं लागू नहीं होती थीं लेकिन अब जम्मू-कश्मीर के लोगों को वह सभी अधिकार प्राप्त हो गए हैं जो पूरे देश में लागू हैं। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में काफी बदलाव नजर आ रहे हैं। 
लद्दाख को अलग कर केन्द्र शासित बना दिया गया और साथ ही जम्मू-कश्मीर को भी केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया गया। सबसे बड़ा बदलाव अब यह होने जा रहा है कि परिसीमन आयोग के प्रस्तावों के अनुरूप जम्मू को पहली बार कश्मीर घाटी के बराबर का हक मिल जाएगा। परिसीमन आयोग ने जम्मू-कश्मीर में 7 सीटें बढ़ाने का प्रस्ताव दिया है। जम्मू संभाग में 6 सीटें बढ़ेंगी जबकि कश्मीर संभाग में एक सीट बढ़ेगी। कुल 90 विधानसभा सीटों में से जम्मू की सीटों की संख्या 43 हो जाएगी और घाटी की सीटों की संख्या 47 हो जाएगी। पहली बार कश्मीरी पंडितों के लिए भी 2 सीटें और अनुसूचित जनजातियों के लिए 9 सीटें रिजर्व रखने का प्रस्ताव है। इसका अर्थ यही है कि जम्मू-कश्मीर में अब विधानसभा चुनाव कराए जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। परिसीमन की जरूरत क्यों थी इसके लिए हमें अतीत में जाना होगा। 
आखिर जम्मू-कश्मीर में अब तक लागू जम्मू-कश्मीर में विधानसभा का गणित ऐसा रहा कि हर परिस्थिति में कश्मीर घाटी पर केन्द्रित पार्टियों का ही वर्चस्व रहा। इससे जम्मू और लद्दाख को भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला। विधानसभा में जम्मू की भागीदारी कम होने से उसके हितों को नजरंदाज किया जाता रहा। जो भी ​नियम, कानून या योजनाएं बनाई गई वो केवल घाटी की जनता के लिए ही बनी। जम्मू की आवाज को हमेशा अनसुना किया गया। यही कारण रहा ​कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में मुख्यमंत्री कश्मीर घाटी से ही चुनकर आता रहा है। कई दशकों तक नेशनल कांफ्रैंस और पीडीपी के बगैर किसी की भी सरकार कभी नहीं बन पाई। कश्मीर में दो परिवारों एक शेख अब्दुल्ला का परिवार और दूसरा मुफ्ती मोहम्मद सईद परिवार का ही राजनीति में वर्चस्व रहा। दोनों ही परिवार बारी-बारी से जम्मू-कश्मीर पर विधानसभा के इसी गणित के आधार पर शासन करते रहे। इसी गणित का अर्थ यही था कि जम्मू का व्यक्ति कभी मुख्यमंत्री हो ही नहीं सकता था।
वर्ष 1947 में जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय हुआ था, उस समय जम्मू-कश्मीर में महाराज हरिसिंह का शासन था। दूसरी ओर कश्मीर घाटी में मुस्लिमों के बीच स्कूल मास्टर से राजनीतिज्ञ बने शेख अब्दुल्ला काफी लोकप्रिय थे, जबकि महाराजा हरि सिंह की जम्मू और लद्दाख में लोकप्रियता थी। मैं उस इतिहास में नहीं जाना चाहता कि उस समय के राष्ट्रीय नेतृत्व ने क्या-क्या भूलें की और अनुच्छेद 370 लागू कर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा किन परिस्थितियों में दिया गया। इतिहास से स्पष्ट है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को बरदहस्त शेख अब्दुुल्ला के सिर पर था। इसलिए नेहरू ने महाराजा हरिसिंह की जगह शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री बना दिया। महाराजा ​हरिसिंह की शक्तियों  को समाप्त कर ​दिया गया। महाराजा हरिसिंह इसके बाद कभी अपने गृह राज्य नहीं लौट पाए। शेख अब्दुल्ला ने मनमानियां शुुरू की दी थीं। 1951 में जब जम्मू-कश्मीर की विधानसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई तो उन्होंने घाटी को 43 विधानसभा सीटें दीं और जम्मू को 30 ​विधानसभा सीटें दीं और लद्दाख को केवल 2 विधानसभा सीटें दी गईं। यानि कश्मीर को जम्मू से 13 विधानसभा सीटें ज्यादा मिलीं। वर्ष 1995 तक जम्मू-कश्मीर की यही स्थिति रही। 
1995 में परिसीमन आयोग की रिपोर्ट लागू की गई तो राज्य की 12 सीटें और बढ़ा दी गईं। विधानसभा में 87 सीटें हो गई थीं। इनमें कश्मीर के खाते में 46 और जम्मू के खाते में 37 और लद्दाख के खाते में चार सीटें आईं। कुल 111 सीटें हुईं जिनमें से 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर के लिए छोड़ी जाती रही, जहां कभी चुनाव नहीं होते। इसके बाद भी अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार ही शासन करता रहा। शेख अब्दुल्ला के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने ​फिर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने, ​फिर उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनीं।
तब से कहा जाने लगा था।
‘‘कश्मीर में तस्वीरें बदलती रही हैं,
लेकिन आइना वही रहता है।’’
बीच-बीच में गठबंधन सरकारें भी बनती रहीं। वैसे तो हर राज्य में दस वर्ष में परिसीमन कराने का प्रावधान है लेकिन साजिशों के तहत 2002 में नेशनल कांफ्रैंस की अब्दुल्ला सरकार ने ​विधानसभा में एक कानून बनाकर परिसीमन को 2026 तक रोक दिया था। इसके​ लिए अब्दुल्ला सरकार ने ​विधानसभा में जम्मू-कश्मीर रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1957 और जम्मू-कश्मीर के संविधान के सेक्शन 42(3) में बदलाव ​किया था। हालांकि 2002 की जनगणना के आधार पर सभी राज्यों को परिसीमन हुआ लेकिन जम्मू-कश्मीर में नहीं हुआ। यह सवाल उठता रहा है कि कश्मीर घाटी  और जम्मू के बीच मतदाताओं की संख्या में कुछ लाख का ही फर्क है तो कश्मीर के हिस्से में ज्यादा ​विधानसभा सीटें क्यों? अब जबकि परिसीमन आयोग की ​सिफारिशें आ गई हैं तो जम्मू संभाग, जहां हिन्दू बहुल आबादी है, से भी जम्मू-कश्मीर को मुख्यमंत्री मिल सकता है। महबूबा मुफ्ती और फारूक उमर अब्दुल्ला ने परिसीमन आयोग की रिपोर्ट का विरोध किया है। अब सम्भव है कि परिवारवाद की राजनीति का अंत हो जाए और राष्ट्रवादी ताकतों का उदय हो। जम्मू-कश्मीर के हित में ऐसा होना बहुत महत्वपूर्ण होगा और कश्मीर को ऐसी नई सुबह का इंतजार रहेगा। जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी ताकतों का प्रभाव कमजोर हो चुका है और आतंकवाद भी पूरी तरह दम तोड़ने के कगार पर है। उम्मीद है कि कश्मीर फिर धरती का जन्नत बन जाएगा।

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