भारत के पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही खत्म होने के बाद आये आधे-अधूरे लोकतंत्र की विडम्बना यही रही कि कोई भी प्रधानमंत्री अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। राजनेताओं ने अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते राजनीतिक अस्थिरता फैलाई। बंदूक से निकली क्रांति के चलते राजा ज्ञानेन्द्र को सत्ता त्यागनी पड़ी, 21 नवम्बर 2006 को तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला और माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जो देश और लोगों की प्रगति के लिए लोकतंत्र और शांति के लिए प्रतिबद्ध था। 10 अप्रैल 2008 को संविधान सभा का चुनाव हुआ। 28 मई 2008 को नवनिर्वाचित संविधान सभा ने 240 साल पुरानी राजशाही को खत्म करते हुए नेपाल को एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया। नेपाल का हिन्दू राष्ट्र का दर्जा खत्म हो गया। राजशाही के दौरान नेपाल में राजाओं की पूजा हिन्दू देवी-देवताओं समान होती थी। हिन्दू देश का दर्जा खत्म होने की टीस हिन्दुओं के मन में अभी तक कायम है।
विडम्बना यह रही कि मतभेदों की वजह से संविधान सभा नया संविधान नहीं बना सकी और उसका कार्यकाल कई बार बढ़ाना पड़ा। आखिरकार वर्ष 2015 को एक संविधान को स्वीकृति मिल पाई, लेकिन नेपाल में लोकतंत्र बहाल तो हो गया परन्तु उसमें लगातार अस्थिरता बनी रही। तब से लेकर अब तक दस सरकारें नेपाल में शासन कर चुकी हैं। 20 नवम्बर को हुए नेपाल के चुनावों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। इसलिए अब सियासी पेच फंसता नजर आ रहा है। नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने नई सरकार बनाने का आमंत्रण देते हुए देश के सभी राजनीतिक दलों को सरकार बनाने के लिए सात दिन का समय दिया है। चुनावों में शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस और पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व वाली सीपीएन माओइस्ट सैंटर के गठबंधन ने जीत तो हासिल की लेकिन वह बहुमत के आंकड़े से दूर ही रहा। अब गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा इस पर मामला फंसता नजर आ रहा है।
देउबा आैर प्रचंड ने चुनाव से पहले गठबंधन बनाते समय बारी-बारी से सरकार का नेतृत्व करने के लिए एक समझौता किया था। लोकतंत्र का तकाजा तो यही है कि चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी नेपाली कांग्रेस सरकार का नेतृत्व करें लेकिन सत्ता के गलियारों से छनछन कर आ रही खबरें बता रही हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड ने देउबा से मुलाकात कर देश का अगला प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जता दी है। उन्होंने देउबा से जानना चाहा है कि वह कैसे आगे बढ़ना चाहते हैं। प्रचंड चुनावों से पहले ही सार्वजनिक मंचों पर खुद को कार्यपालिका प्रमुख के दावेदार के तौर पर पेश करते रहेे हैं और साफ कहते रहे हैं कि सरकार बनाने की कुंजी उनके पास है। राजनीति में महत्वाकांक्षाएं रखना बुरी बात नहीं लेकिन देखना यह होगा कि नेपाल कहीं फिर से सियासी अस्थिरता का शिकार न हो जाए। समय-समय पर अलग-अलग नामों से जाने गए प्रचंड उन चुनिंदा नेपाली नेताओं में से एक हैं जो लगातार 32 सालों से पार्टी का शीर्ष पद संभाल रहे हैं। वह दो बार नेपाल के प्रधानमंत्री भी रहे। 25 साल तक भूमिगत रहने वाले प्रचंड के नेतृत्व में 10 साल तक सशस्त्र संघर्ष भी चला और इसी संघर्ष के चलते नेपाल में राजशाही का खात्मा हुआ।
माओवादी इस संघर्ष को जनयुद्ध के रूप में देखते हैं। प्रचंड संघर्ष के दिनों में भारत में रहते रहे हैं। उन्होंने अपनी बेटियों की शादी लखनऊ में की थी। लेकिन प्रचंड अपने भारत विरोधी रुख के लिए भी जाने जाते हैं। सन 2008 में जब वह पहली बार नेपाल की सत्ता पर काबिज हुए तो उस वक्त उन्होंने भारत विरोधी रुख अपनाते हुए लगातार चीन के साथ संबंधों को मजबूत किया। उन्होंने स्थापित परम्परा को तोड़ते हुए बीजिंग ओलिंपिक के बहाने सबसे पहले चीन की यात्रा की। उन्होंने 1950 की भारत-नेपाल शांति संधि में बदलाव के लिए आवाज उठाई। नेपाल में नए संविधान लागू किए जाने के बाद मधेसियों के उग्र आंदोलन के लिए भारत को ही जिम्मेदार ठहराया। प्रचंड ने भारत के विरुद्ध जहर उगलने का कोई मौका नहीं छोड़ा। बदलती परिस्थितियों में प्रचंड को भारत की याद उस समय आई जब नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी में दरार पड़ गई। केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री पद पर रहते कई मुद्दों पर प्रचंड के उनसे मतभेद पैदा हो गए। ओली सरकार को गिराने के बाद प्रचंड ने इस वर्ष 17 जुलाई को भारत की यात्रा की थी और उन्होंने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और विदेश मंत्री एस जयशंकर से भी मुलाकात की। ओली की सरकार गिरने के बाद शेरबहादुर देउबा प्रचंड के समर्थन से ही प्रधानमंत्री बने थे। अब सवाल यह है कि प्रचंड की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पूरी होगी या फिर नेपाल में लोकतंत्र फिर दोराहे पर खड़ा होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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