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प. बंगाल में राजनीतिक हिंसा?

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव समाप्त हो जाने के एक महीने बाद भी जिस तरह हिंसा जारी है उससे राज्य के राजनीतिक तापमान का अन्दाजा लगाया जा सकता है।

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव समाप्त हो जाने के एक महीने बाद भी जिस तरह हिंसा जारी है उससे राज्य के राजनीतिक तापमान का अन्दाजा लगाया जा सकता है। राज्य की कुल 42 सीटों में से 18 सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह अपने लिए माने जाने वाले इस अभेद्य दुर्ग को ध्वस्त किया है उससे राज्य की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस पार्टी वास्तव में सकते में है परन्तु इसका प्रतिफल हिंसा का वातावरण किसी भी स्तर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। चुनावी हार-जीत का रूपान्तरण यदि हिंसक झड़पों में होता है वह जनादेश का अपमान ही नहीं होता बल्कि लोकतन्त्र की हार भी होता है। विजय चाहे जिस भी पार्टी की हो मगर जीतता अन्त में लोकतन्त्र ही है। 
अतः बहुत आवश्यक है कि प. बंगाल में वह लोकतन्त्र ही विजयी होना चाहिए जिसे पाने के लिए इस भूमि के क्रान्तिकारी विचारकों से लेकर मानवतावादी मनीषियों ने अपनी आहुतियां दी हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में बांग्ला संस्कृति मानवीय इतिहास में वह अनुपम व अप्रतिम स्थान रखती है जिसकी आभा से समूचा हिन्दोस्तान आलोकित होता रहा है। बांग्ला साहित्य ने भारत के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले हिन्दी साहित्य को संवारने और रुचिकर बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई है। 
भारत का यशोगान विश्व मंचों पर गुंजाने में इसी धरती पर पैदा हुई हस्तियों ने समय-समय पर वह काम किया जिनके निशानों को लेकर आज तक हर भारतीय अपना माथा गर्व से ऊंचा रखता है। यह भी हकीकत है कि 1885 में भारत की आजादी के लिए जिस कांग्रेस पार्टी की स्थापना एक अंग्रेज मानवाधिकारवादी ‘सर ए ओ ह्यूम’ के नेतृत्व में हुई थी, यह 1883 में सर ह्यूम द्वारा कोलकाता विश्वविद्यालय के पूरे मेधावी छात्रों के लिखे गये उस पत्र का प्रतिफल था जिसमें उन्होंने भारत के विद्वजनों से अपील की थी कि वे भारतीय नागरिकों के लिए ऐसे राजनीतिक दल की स्थापना करें जो ब्रिटिश राज से उनके अधिकारों के लिए बातचीत करके उनके लिए उनकी सरकार की स्थापना कर सके।
अतः कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष श्री व्योमेश चन्द्र बनर्जी बने थे। संयोग यह भी है कि जनसंघ (भाजपा) के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी बाद में कोलकाता विश्वविद्यालय के ही सबसे युवा कुलपति रहे परन्तु उनकी राजनीतिक विचारधारा हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धान्त से ओतप्रोत थी और उन्होंने हिन्दू महासभा को अपना कर्मक्षेत्र चुना था परन्तु 1947 मंे बंगाल के पूर्वी हिस्से के पूर्वी पाकिस्तान में परिवर्तित हो जाने के बाद प. बंगाल के लोगों ने अपनी बांग्ला पहचान के भीतर ही राजनीतिक विचारधारा को आत्मसात किया और बंटवारे से उपजी कशीदगी को इसी पहचान के भीतर दबा दिया। इसका प्रमाण हमें पूर्वी पाकिस्तान के 1971 में बांग्लादेश बन जाने पर भी मिला, लेकिन विचारणीय मुद्दा यह है कि इस बांग्ला पहचान के भीतर भाजपा ने अपनी विचारधारा के आधार पर यदि बंगाली जनता को मोहित करने में सफलता प्राप्त की है तो उसके कुछ बुनियादी कारण होंगे। 
ये कारण क्या हो सकते हैं उनके बारे में राज्य की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी से बेहतर कोई और नहीं जान सकता? सैद्धान्तिक राजनीति और जमीनी राजनीति में बहुत बड़ा अन्तर होता है। ममता दी ने राज्य से कम्युनिस्टों का शासन समाप्त करने के लिए जो तकनीक अपनाई थी उसका ही रंग बदल कर भाजपा ने उनके खिलाफ प्रयोग किया है परन्तु राज्य में लोकसभा के चुनावी विमर्श का बदलना बताता है कि ममता दी कई ऐसे मोर्चों पर रक्षात्मक मुद्रा में खड़ी हो गईं जो उनकी शासन प्रणाली से ही जुड़े हुए थे। यह मानना बहुत जल्दबाजी होगी कि भाजपा के सैद्धान्तिक विमर्श से बंगाल की जनता इस पार्टी को विजय दिलाने के बावजूद पूरी तरह सहमत है बल्कि यह जमीनी स्तर पर पैदा हुए राजनीतिक क्लेश और तनातनी व विद्वेष का निर्णायक असर ज्यादा है।
इसके साथ ही ये राष्ट्रीय चुनाव थे जिन्हें भाजपा ने प्रधानमन्त्री पद के सशक्त मान्य प्रत्याशी श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा था। सबसे महत्वपूर्ण यह तथ्य था कि ममता दी की मुख्य विरोधी पार्टियों मार्क्सवादी व कांग्रेस ने खुद को चुनावी मैदान में इस तरह पेश कर दिया था कि लड़ाई में उनकी भूमिका पिछली पंक्ति में तैनात सिपाहियों जैसी ही है जिसका व्यावहारिक राजनीति में असर होना ही था। अतः चीजें इतनी उलझी हुई नहीं हैं जितनी दिखाई पड़ रही हैं।सवाल सिर्फ यह है कि अब आगे का रास्ता भाजपा व तृणमूल किस तरह तय करते हैं क्योंकि 2021 में विधानसभा के चुनाव होने हैं। 
सत्तारूढ़ दल होने की वजह से ममता दी को भाजपा की आलोचनाओं की चुनौतियों का सामना करना तो होगा ही क्योंकि अब वही राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी है। जाहिर है मुकाबला तैश या गुस्से में आकर नहीं किया जा सकता और न ही जय श्रीराम का जवाब जय बांग्ला से देकर किया जा सकता है और न ही जय महाकाली का उद्घोष करके भाजपा के विमर्श को हल्का किया जा सकता है। हिंसा पनपने की असली वजह यही है कि बंगाली ही बंगाली के विरुद्ध आकर खड़ा हो गया है। इस स्थिति को बदला जाना चाहिए और सामाजिक पहल के जरिये यह कार्य होना चाहिए। 
प. बंगाल की तुलना किसी भी अन्य राज्य से करना नितान्त मूर्खता है क्योंकि यह तो वह राज्य है जिसमें 1947 में अकेले ‘एक आदमी की फौज’ महात्मा गांधी ने ही साम्प्रदायिक हिंसा को दफन कर दिया था। अतः ममता दी को अपने ही बंगाल की गौरवगाथा को कम करके नहीं आंकना चाहिए। उनका पहला कार्य यही है कि उनके राज्य की पुलिस कानून का पालन करे न कि किसी राजनीतिक दल के निर्देशों का।

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