आजाद भारत का इतिहास गवाह है कि जब-जब भी राजनीति दिशाहीन होकर गफलत के दौर में फंसी है तो इस देश की आम जनता ने उठकर उसे सही दिशा दी है और राजनीतिज्ञों को मजबूर किया है कि वे भारत की उस अस्मिता और प्रतिष्ठा से खिलवाड़ करने की कोशिश न करें जिसे अंग्रेजों की दो सौ साल की दासता से मुक्त करके आजादी के दीवानों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करके स्थापित किया था।
अंग्रेजों को तब आश्चर्य हुआ था कि पूरी तरह मुफलिस और अनपढ़ समझे जाने वाले भारत के लोग किस प्रकार वयस्क आधार पर प्रत्येक नागरिक को मिले एक वोट के अधिकार का प्रयोग करके अपनी चुनी हुई सरकार बनाकर इस बेतरतीब विविधता से भरे देश को चला सकेंगे और आदिवासी से लेकर अस्पृश्य समझे जाने वाले नागरिकों का जीवन स्तर सम्यक मानवीयता के घेरे में रख कर उनका विकास कर सकेंगे मगर बाबा साहेब अम्बेडकर को जब भारत का संविधान लिखने के लिए महात्मा गांधी ने चुना तो ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन प्रधानमन्त्री एटली को स्वीकार करना पड़ा था कि गांधी की दूरदृष्टि सिर्फ दूर तक ही नहीं देखती बल्कि वह युगों की दूरी को नापने की क्षमता रखती है।
अतः संविधान में जब दलितों व आदिवासियों को आरक्षण दिया गया तो राजे-रजवाड़ों के सामन्ती परिवेश में रहने वाली भारतीय जनता में सामाजिक न्याय के युद्ध की शुरूआत इस प्रकार हुई कि दलितों का हजारों वर्ष से रौंदा हुआ सम्मान वापस आ सके और हिन्दू समाज अपनी संस्कृति में घर किये चतुर्वर्णीय व्यवस्था के अमानवीय पक्ष को पहचान सके। इसके साथ ही एक वोट के समानाधिकार से जिस राजनैतिक क्रांति की शुरूआत भारत ने आजाद होते ही की उससे ऊंचे आसनों पर बैठे कुलीन समझे जाने वाले मठाधीशों की गद्दियां हिल उठीं और भारत अपने नये सफर पर आगे निकलता चला गया मगर इस सफर में उन्हीं लोगों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही जिन्हें गांधी ने आजाद भारत में सदियों की दासता से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था।
अपने एक वोट के अधिकार से इन्हीं लोगों ने समाज के अन्य पिछड़े व दबे-कुचले लोगों के साथ गठजोड़ करके अपनी मनमाफिक सरकारें बनवाने का काम शुरू किया और स्वयं को सवर्ण व कुलीन कहने वाले लोगों के लिए ऐसी चुनौती खड़ी कर दी कि वे केवल इतिहास को बदलते हुए देखें परन्तु पिछले लगभग 25 वर्षों से भारत की राजनीति ने जो रंग बदला है उसने सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया काे ही इस प्रकार पंगु बना दिया है कि दलित व वंचित समाज की एकता जातियों के दायरे में सिमट कर रह गई है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका मंडल आयोग ने निभाई है जिसकी वजह से दलितों के राजनैतिक अभियान का घेरा सिकुड़ता चला गया है। यह विरोधाभास नहीं है कि इसके समानान्तर ही भारत में अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदला और बाजार की ताकतों ने संविधान में प्रदत्त दलितों के आरक्षण के अधिकार को ढीला कर दिया।
क्योंकि सामाजिक बदलाव और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था एक-दूसरे के विलोमानुपाती होते हैं, सामाजिक बदलाव के लिए राजनैतिक ताकत की जरूरत होती है जबकि बाजारीकरण आर्थिक ताकत के माध्यम से इस बदलाव के विरोध में काम करता है। यही वजह है कि आज देश की शिक्षा प्रणाली पूरी तरह आर्थिक स्रोतों की गुलाम हो गई है जिसने गरीबों के बच्चों से स्तरीय शिक्षा पाने का अधिकार लगभग छीन लिया है। यही वजह है कि देश की बढ़ती आबादी के विपरीत घटती सरकारी नौकरियों की वजह से बढ़ती बेरोजगारी ने अफरा-तफरी का माहौल बनाना शुरू कर दिया है किन्तु यह सोचना फिजूल होगा कि इन परिस्थितियों का राजनीति पर असर नहीं पड़ेगा। दरअसल पिछले 25 सालों से चल रहे राजनैतिक चक्र का यह उल्टा पहिया घूमने जैसा है, इसकी गति इस तथ्य पर निर्भर करती है कि सरकारें तोहफे देने की जगह आधारभूत बदलाव के क्षेत्र में किस तरह के काम करती हैं।
हमने पिछले दिनों देखा कि किस तरह राजधानी में विभिन्न प्रदेशों से आये किसानों का प्रदर्शन हुआ था बेशक इन किसानों की एक मांग यह भी थी कि एक बारगी में ही उनका सारा ऋण माफ किया जाये और असली मांग यह थी कि संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर कृषि क्षेत्र की समस्याओं का हमेशा के लिए निपटारा किया जाये और स्पष्ट कृषि नीति का निर्धाण करके बाजारमूलक अर्थव्यवस्था में खेती से जुड़े सभी वर्गों के लोगों का भविष्य सुंदर बनाया जाये। मैं हाल ही में सम्पन्न 5 राज्यों के एग्जिट पोल के संभावित परिणामों का जिक्र नहीं करना चाहता हूं बल्कि अागाह करना चाहता हूं कि भारत के लोग उस राजनीति की तरफ पलटना चाहते हैं जिसमें दलितों और दबे कुचले व वंचितों की मर्जी से सरकारों का गठन होगा। यह प्रक्रिया बहुत जटिल है क्योंकि भारत के विभिन्न राज्यों में जातिगत आधार पर राजनीतिक दलों का प्रभाव इन जातियों के लोगों को अपनी सत्ता का लोहा मनवाने से रोकती है और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आक्रामक भूमिका को हल्का करती है।
इस मार्ग में भारत जैसे देश में अनेक बाधाएं हैं और इन्हीं बाधाओं के चलते भारत 1947 में हिन्दू-मुसलमान के नाम पर बंट गया था। जिन्ना ऐसे मुसलमान थे जिनका अपने दीन से कोई मतलब नहीं था। वह नाश्ते में पोर्क के सेंडविच खाते थे इसके बावजूद आजाद भारत में दलितों की भूमिका इस प्रकार रही कि उन्होंने सत्ता के प्रतिष्ठानों को सबसे पहले वंचितों की चिंता करने के लिए बाध्य किया। हम पांच राज्यों के चुनावों में मतदाताओं की बढ़ती संख्या का जो सैलाब देख रहे हैं यह राजनीति के पलटा खाने का ही प्रमाण साबित होने जा रहा है। इससे ज्यादा चुनाव परिणाम के बारे में और कुछ नहीं कहा जा सकता। केवल इतना जरूर कहा जा सकता है कि हाशिये पर बैठे हुए क्षेत्रिय दलों का सूपड़ा साफ जरूर होगा। इनमें मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अजित जोगी की जनता कांग्रेस शामिल है।