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तोहफों की राजनीति

एक समय था जब दक्षिण के राज्यों के राजनीतिक दलों खासतौर पर द्रमुक और अन्नाद्रमुक द्वारा सत्ता सुख की खातिर चावल और अन्य खाद्य पदार्थ मुफ्त बांटने की लोकलुभावन घोषणाएं आम बात थीं।

एक समय था जब दक्षिण के राज्यों के राजनीतिक दलों खासतौर पर द्रमुक और अन्नाद्रमुक द्वारा सत्ता सुख की खातिर  चावल और अन्य खाद्य पदार्थ मुफ्त बांटने की लोकलुभावन घोषणाएं आम बात थीं। दक्षिण भारत की राजनीति में मुफ्त की राजनीति बदलते दौर में बिजली-पानी मुफ्त, मुफ्त लैपटॉप के साथ मुफ्त स्कूटी तक पहुंच चुकी है। यह सवाल पहले भी उठता रहा है कि आखिर मुफ्त वस्तुएं या सुविधाएं उपलब्ध कराने का वादा लोकतंत्र की मूल भावना के अनुकूल है या प्रतिकूल। वैसे तो केन्द्र हो या राज्य सरकारें सभी सब्सिडी की राजनीति करती आई हैं लेकिन समस्या यह है कि चुनाव जीतने के​ लिए राजनीतिक दलों ने मुफ्त घोषणाओं को अपना पैटर्न बना लिया है। वर्ष 2018 में मद्रास हाईकोर्ट ने दक्षिण भारत से शुरू हुई मुफ्त की राजनीति पर गम्भीर टिप्पणी की थी। कोर्ट की टिप्पणी निश्चित रूप से चेताने वाली थी, जो निसंदेह समाज में फैल रही विसंगति की ओर इशारा था। क्योंकि कर्म ही पूजा संस्कृति वाले देश में महज सत्ता के लिए राजनीतिक दल चुनावी वादों के रूप में मुफ्त की राजनीति को प्रश्रेय दे रहे हैं। एक समय वह भी था जब चुनाव से ठीक पहले आने वाला बजट लोकलुभावन होता था। बजट केन्द्र का हो या राज्य सरकारों का उनमें लोकलुभावना घोषणाएं की जाती थीं। रियायतें होती थीं, टैक्स में छूट होती थी। बजट को लेकर आम आदमी में उत्सुकता होती थी लेकिन अब बजट का महत्व ही खत्म हो चला है क्योंकि राज्य सरकारों की मुफ्त की घोषणा की स्कीमों ने लोगों की आदतें ही ​बिगाड़ डाली हैं। राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त में उपहार देने के वादों का मामला  एक बार फिर देश की सर्वोच्च अदालत के सामने आया। शीर्ष अदालत में दायर जनहित याचिका में मुफ्त की घोषणा करने वाले राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन रद्द करने वाले राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेेन रद्द करने की मांग की गई थी। याचिका में कहा गया है ​िक चुनाव आयोग के नियमों के बावजूद ना​गरिकों के पैसों का दुरुपयोग किया जा रहा है। इससे एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ें हिल रही हैं। इससे चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता खराब होती है। मुफ्त उपहार देने की प्रवृत्ति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के अस्तित्व के​ लिए सबसे बड़ा खतरा है बल्कि इससे संविधान की भावना भी आहत हुई है। 
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान मतदाताओं को मुफ्त उपहार देेने का वादा करने वाले राजनीतिक दलों पर चिंता व्यक्त की थी और इसे गम्भीर मुद्दा बताते हुए कहा था कि इसके नियमित बजट पर असर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में केन्द्र और चुनाव आयोग से जवाब मांगा था। एक धारणा जोर पकड़ चुकी है कि मुफ्त की घोषणाएं मतदाताओं को वोट देने के लिए सीधी रिश्वत है। चुनाव आग ने सुप्रीम कोर्ट में अपना हल्फनामा दायर कर यह स्पष्ट कर दिया है कि वह राज्य की नीतियों और फैसलों को नियमित नहीं कर सकता, जो जीत हासिल करने वाली पार्टी  की ओर से सरकार बनाने पर लिए जा सकते हैं। चुनाव आयाेग ने यह भी स्पष्ट किया कि उसके पास यह अधिकार नहीं है कि इस मामले पर किसी पार्टी का पंजीकरण रद्द कर दिया जाए। इस तरह की कार्रवाई कानूनी प्रावधानों को सक्षम किए बिना शक्तियों का अतिक्रमण होगा। मुफ्त उपहार देना राजनीतिक दलों का नीतिगत फैसला है। चुनाव आयोग का कहना है कि अदालत राजनीतिक दलों के लिए दिशा-निर्देश तैयार कर सकती है तब चुनाव आयोग कोर्ट कार्रवाई करने में सक्षम होगा। भारत के निर्वाचन आयोग के हाथ एक तरह से बंधे हुए हैं। जब तक उसे कानूनी अधिकारी नहीं दिए जाते तब तक वह बिना लाठी के थानेदार ही बना रहेगा। 
अब सवाल यह है कि छूट और मुफ्त में जमीन और आसमान का अंतर होता है। मुफ्त शिक्षा, मुफ्त स्वास्थ्य और मुफ्त बीमा या कमजोर वर्गों को कम दर पर राशन उपलब्ध कराया जाए तो इसे मुफ्त की राजनीति का हिस्सा नहीं माना जा सकता। रियायत और छूट लोक कल्याणकारी सरकार में मानदंडों में शामिल हैं। लोक कल्याणकारी राज्य पर नागरिक के हितों की सुरक्षा का दायित्व होता है। छूट और मुफ्त में अंतर तब शुरू हो जाता है जब यह छूट किसी वर्ग विशेष तक सीमित दी जाती है। इससे सामाजिक व्यवस्था पर घातक असर पड़ता है। मुफ्त के उपहारों के वादों को पूरा करने के लिए सरकारी खजाना खर्च करते हैं। सरकार को राजस्व आम आदमी के करों से प्राप्त होता है। जो धन विकास की योजनाओं पर खर्च होना चाहिए वह अन्य मदों पर खर्च हो जाता है। एक सवाल अजगर की तरह मुंह फैलाए खड़ा है कि देश का टैक्सदाता वर्ग कब तक मुफ्तखोर बहुसंयख्यक समाज पालता रहेगा। जिस वर्ग को दस-बीस वर्षों से मुफ्त में खाने की आदत पड़ जाएगी, वह कभी मेहनत की कमाई करने की सोचेगा ही नहीं। ऐसी राजनीति पर गम्भीरता से चिंतन करने की जरूरत है।  
श्रीलंका की आर्थिक हालत भारत के लिए सबक है। श्रीलंका की स्थिति बिगड़ने में चीन के कर्ज जाल के साथ-साथ उसकी लोकलुभावन नीतियां भी ​​जिम्मेदार हैं। कर्ज में डूबे श्रीलंका में सरकार ने मुफ्तखोरी वाली योजनाएं चला कर अर्थव्यवस्था को गर्त में पहुंचा दिया। अब समय आ गया है​ क हम सोचें कि क्या खैरात बांट-बांट कर अर्थव्यवस्था को चलाया जा सकता है? क्या हम ऐसा करके एक ऐसी पीढ़ी तैयार नहीं कर रहे जो खुद को पंगु बना लेगी। दरअसल हम ऐसे समाज तैयार कर रहे हैं जो उत्पादक नहीं होगा। आखिर समाज को और व्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने की हम कब सोचेंगे। फैसला जनता को करना है क्या उचित है और क्या अनुचित।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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