दक्षिण भारत के जिन तीन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें से दो केरल व तमिलनाडु भारत की सकल राजनीति के सन्दर्भ में अत्यन्त महत्वपूर्ण राज्य रहे हैं। तीसरा पुड्डुचेरी अर्ध राज्य है और केन्द्र प्रशासित राज्य है। केरल ऐसा प्रदेश माना जाता है जो भारत की राजनीतिक विविधता का स्वतन्त्रता के बाद से ही अलम्बरदार रहा है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जब आजादी के बाद पूरे भारत में कांग्रेस पार्टी का एकछत्र राज्य था तो केरल ने सबसे पहले भारतीय संविधान के तहत मिली राजनीतिक स्वतन्त्रता का परचम फहराते हुए पूरे देश से अपनी अलग राय रखने का प्रमाण दिया। 1956 में राज्यों का पुनर्गठन होने के बाद जब केरल राज्य अस्तित्व में आया तो 1957 के चुनावों में यहां के लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार सत्ता में काबिज की। दरअसल यह भारत की विविधता का ही प्रमाण था कि किस प्रकार इसके अलग-अलग विभिन्न मतों को मानते हुए और अलग-अलग भाषा-भाषी होते हुए राजनीतिक रूप से भी विभिन्न सिद्धान्तों को अपने विकास का माध्यम मानते हैं। तभी से केरल को भारत की राजनीतिक प्रयोगशाला भी कहा जाने लगा।
दूसरी तरफ तमिलनाडु राज्य एेसा राज्य रहा जिसमें आजादी के पहले से ही जस्टिस पार्टी के माध्यम से सामाजिक बदलाव और दलितों को समान स्तर दिये जाने का आन्दोलन खड़ा हो रहा था। पोंगा पंथी व रूढ़ीवादी परंपराओं के खिलाफ दलित समाज को रामास्वामी नायकर (पेरियार) संगठित कर रहे थे। द्रविड़ संस्कृति की पुरानी जड़ों को समेटते हुए श्री नायकर ने 1944 में जस्टिस पार्टी का नाम बदल कर ही द्रविड़ कषगम पार्टी कर दिया और द्रविड़ राष्ट्र बनाने का सपना लोगों के सामने रखा परन्तु आजादी के आन्दोलन के तेज होने के साथ ही कांग्रेस पार्टी ने तमिलनाडु के सकल राष्ट्रीय हितों को राष्ट्रीय हितों के साथ जोड़ते हुए तमिल जनता का भरपूर समर्थन प्राप्त किया और बाद में द्रविड़ राष्ट्र का पेरियार का सपना दम तोड़ता गया, यहां तक कि उनकी पार्टी से ही उनके प्रमुख शिष्य सी. अन्नादुरै ने अलग पार्टी द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम का गठन किया। यह इसलिए भी जरूरी हो गया था कि स्वतन्त्र भारत में भारत की भौगोलिक एकता को चुनौती देने वाला कोई भी राजनीतिक चुनावों में खड़ा नहीं हो सकता था। सी. अन्नादुरै दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे और जानते थे कि भारत ने जो संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाई है उसमें अलगाववाद के लिए कोई जगह नहीं हो सकती और संविधान के तहत राज्यों को मिले अधिकारों का उपयोग करते हुए तमिलनाडु को अपनी राजनीतिक छवि अलग से चमकानी होगी। अतः उनके साथ पुरानी द्रविड़ कषगम के तपे हुए नेता आते गये और वह राज्य में दलित उत्थान की राजनीति को सिरे चढ़ाते रहे। इसका असर 1967 में जाकर हुआ और यहां के लोगों ने राज्य विधानसभा में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम को पूर्ण बहुमत पहली बार देकर तमिल अस्मिता का झंडा फहराया। तब से लेकर अब तक तमिलनाडु अपनी द्रविड़ पहचान की पार्टियों के साये तले ही चल रहा है जिनमें अन्नाद्रमुक भी खास है। इस पार्टी का 1974 में ही द्रमुक से डूट कर अलग गठन स्व. एम.जी. रामचन्द्रन के नेतृत्व में गठन हुआ। इसके गठन का कारण मूलतः नितान्त व्यक्तिगत था जो स्व. एम. करुणानिधि व रामचन्द्रन के बीच पनपे थे।
भारत की सकल एकता के सन्दर्भ में अगर हम दक्षिण के राज्यों को देखें तो जब पूरे देश में 1967 के चुनावों से पहले समाजवादी नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया गैर कांग्रेसवाद का नारा दे रहे थे तो इस पर ठोस तरीके से तमिलनाडु ही उतरा था क्योंकि केरल तो पहले से ही गैर कांग्रेसवाद के फार्मूले पर चल रहा था। इस तरह चुनावों के बाद नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें गठित हुई थीं मगर अकेला तमिलनाडु राज्य ही ऐसा था जहां किसी एक अकेली पार्टी ने अपने बूते पर पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था। शेष सभी राज्यों में संविद या गठजोड़ की सरकारें बनी थीं और इन गठजोड़ों में जनसंघ व कम्युनिस्ट तक शामिल थे। वर्तमान में चल रहे चुनावों में एक गुणात्मक अन्तर आ चुका है कि 2014 से पहले उत्तर भारत की समझी जाने वाली पार्टी भाजपा इन राज्यों में भी जोर लगा रही है। हालांकि वह दूसरे दलों के साथ गठबन्धन करके ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश में है मगर इससे पता चलता है कि भारत के किसी भी राज्य में अब कोई पार्टी अछूत नहीं रही है। इसे हम राजनीतिक विनिमय का विस्तार भी कह सकते हैं और समय के साथ बदलते सियासी तेवर भी कह सकते हैं मगर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। निष्कर्ष यही निकाल सकते हैं कि कम्युनिस्टों के प्रभाव में रहने वाला केरल जहां सभी विचारों की परख कर रहा है वहीं तमिलनाडु राष्ट्रवाद के ‘पर’ तोल रहा है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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