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हिन्दी भाषा पर सियासत

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हिन्दी दिवस बीत गया। देशभर में कार्यक्रम हुए। राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने हिन्दीभाषी लोगों से कहा कि देश में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए वे क्षेत्रीय भाषाओं और उन्हें बोलने वालों को और जगह दें और सम्मान दें। कई दशक पहले हिन्दी आधिकारिक भाषा बन चुकी है। इसके बावजूद देश के कई हिस्सों में हिन्दी को आज भी लगातार विरोध का सामना करना पड़ रहा है। राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि हिन्दीभाषी लोगों को किसी तमिलभाषी व्यक्ति का अभिवादन वड़कूम कहकर, सिख का अभिवादन सतश्री अकाल कहकर और मुस्लिम का अभिवादन आदाब कहकर करना चाहिए। उन्हें किसी तेलगूभाषी व्यक्ति को गारु कहकर सम्बोधित करना चाहिए।

हिन्दी दिवस पर अनेक कार्यक्रम हुए। हिन्दी के नाम पर कई सरकारी कार्यक्रमों में हिन्दी में कामकाज को बढ़ावा देने वाली घोषणाएं की गईं। कहीं-कहीं हिन्दी की दुर्दशा पर घडिय़ाली आंसू भी बहाए गए लेकिन दूसरे ही दिन सब अपने-अपने काम में लग गए। मुक्तिबोध के एक लेख का शीर्षक था-‘अंग्रेजी जूते में हिन्दी को फिट करने वाले ये भाषायी रहनुमा’। यह लेख उस प्रवृत्ति पर चोट है जो कि हिन्दी को दोयम दर्जे की भाषा मानते हैं और हिन्दी की शब्दावली को विकसित करने के लिए अंग्रेजी को आधार बनाना चाहते हैं। वास्तविकता तो यह है कि ज्यादातर भारतीय अंग्रेजी के मोहपाश में बुरी तरह जकड़ चुके हैं। काफी कुछ सरकारी कामकाज अंग्रेजी में होता है, दुकानों के साइन बोर्ड अंग्रेजी में, रेस्तराओं और होटलों के मेन्यु भी अंग्रेजी में, इन्साफ भी अंग्रेजी में मिलता है।

अंग्रेजी भारतीय मानसिकता पर पूरी तरह से हावी है। हमारे यहां सभी बड़े-बड़े लोग हिन्दी के नाम पर लम्बे-चौड़े भाषण देते हैं किन्तु अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं। यह सही है कि अंग्रेजी का ज्ञान आज जरूरी है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम अपनी भाषाओं को ताक पर रख दें। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में आज भारत का डंका बज रहा है। हर कोई इसी क्षेत्र में जाना चाहता है। क्या यही चहुंमुखी विकास का अर्थ है। दुनिया के लगभग सारे विकसित और विकासशील देशों में वहां का काम अपनी भाषाओं में होता है। यहां तक कि बहुत सारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अंग्रेजी के अलावा और भाषाओं के ज्ञान को महत्व देती हैं। केवल हमारे यहां ही हमारी भाषाओं में काम करना छोटा समझा जाता है।

हिन्दी दिवस मनाना और भाषण देना रस्म अदायगी बनकर रह गया है। दु:ख तो इस बात का भी है कि देश में हिन्दी को लेकर सियासत भी की जाती है। दो माह पहले कर्नाटक में हिन्दी के विरोध में जो घटनाएं घटीं, वे अब भले ही शांत हो गई हों मगर उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। एक कन्नड़ संगठन ने बेंगलुरु शहर के दो मैट्रो स्टेशनों पर लगे त्रिभाषी नाम वाले बोर्डों, जिन पर अंग्रेजी, कन्नड़ और हिन्दी में उनके नाम लिखे थे, उन पर हिन्दी में लिखे नामों को पोत डाला। इसके साथ ही बेंगलुरु शहर की कुछ ऐसी दुकानों पर लगे हिन्दी साइन बोर्डों को भी पोत डाला गया। इसके बाद सोशल मीडिया पर दक्षिण भारतीयों ने एकजुटता दिखाते हुए उत्तर भारत के हिन्दीभाषी लोगों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। हिन्दी के खिलाफ जहर उगला गया। हिन्दी भाषा की तुलना उपनिवेशवाद से करते हुए दलीलें दी गईं कि इस भाषा का आधिपत्य स्थापित करने के लिए उसे गैर हिन्दीभाषी राज्यों पर जबरन थोपा जा रहा है। आजादी के 70 वर्षों बाद की हिन्दी का विरोध क्यों हो रहा है, इसका औचित्य तो नजर नहीं आता।

देश के कई शहरों में आज आपको हर राज्य के लोग मिल जाएंगे। आबादी भी काफी घुल-मिल गई है लेकिन सियासत आज भी जारी है। तेलगूदेशम सरकार ने सभी साइन बोर्ड तेलगू में लगाने का फैसला किया तो मध्य प्रदेश सरकार ने सभी बोर्ड हिन्दी में लगाने का फैसला किया है। भाषा एक बेहद भावनात्मक मुद्दा है। आजादी के बाद राज्यों का पुनर्गठन भी भाषा के आधार पर हुआ। मद्रास एस्टेट के विभाजन से तमिलनाडु, आंध्र और कर्नाटक बना, मुम्बई के गुजराती भाषा के लोगों के लिए गुजरात बना और मराठी भाषा बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र बना। भाषा के आधार पर पंजाब और हिमाचल का विभाजन भाषायी आंदोलन काफी खतरनाक साबित हुए।

देश के पहले गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचार्य ने देश आजाद होने से पहले 1937 में हिन्दी अनिवार्य कर दी थी। इसका प्रबल विरोध हुआ था तो अंग्रेज गवर्नर ने उनकी सरकार का फैसला बदल डाला था। जब 1965 को तमिलनाडु में हिन्दी के विरोध को लेकर दंगे भड़के तो 70 लोग मारे गए थे। हिन्दी के विरोध को लेकर द्रविड़ पार्टियों ने अपनी राजनीति चमकाई। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का गैर हिन्दीभाषी राज्यों को दिया गया आश्वासन ही हिन्दी के आड़े आ गया। हिन्दी भाषा कोई हिंसा या सियासत की भाषा नहीं, यह तो पूरे देश को सूत्र में पिरोने वाली भाषा है। जरूरत है उत्तर भारतीय दक्षिण भारतीय भाषाओं का सम्मान करें और दक्षिण भारतीय उत्तर भारतीयों की भाषा का सम्मान करें कभी हिन्दी पर सियासत न हो, तभी राष्ट्र एक सूत्र में बंधा रह सकेगा। हम सभी हिन्दी और अपनी भाषाएं अपनाएं। हिन्दी तो जनमानस की भाषा है।

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