अयोध्या में श्री राम मन्दिर जन्मस्थल विवाद का मुकद्दमा सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है जिससे यह स्पष्ट है कि अदालत में इस बारे में जो भी फैसला किया जायेगा वह उस भूमि के बारे में किया जायेगा जिस पर 6 दिसम्बर 1992 तक वह इमारत खड़ी हुई थी जिसे बाबरी मस्जिद या ढांचा कहा जाता था। 2010 में इस विवादास्पद स्थल के बारे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनू पीठ ने फैसला किया था कि ढाई एकड़ से ज्यादा इस स्थल को तीन हिस्सों को बांट दिया जाये और एक हिस्सा निर्मोही अखाड़े को , एक हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को और एक हिस्सा वहां विराजमान ‘राम लला’ को दिया जाये। इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया था कि उच्च न्यायालय ने भूमि के विवाद में हिन्दुओं के भगवान राम के बालस्वरूप को एक पक्ष या पार्टी माना था। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और अब उस पर सुनवाई हो रही है।
जाहिर तौर पर यह पूरी तरह धार्मिक मामला है जिसका राजनीति से किसी प्रकार का कोई लेना–देना नहीं होना चाहिए मगर विवादित स्थल पर मन्दिर निर्माण का आन्दोलन ही राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने चलाया और इस तरह चलाया कि इसके आधार पर देश की राजनीति में 1947 के बाद पहली बार व्यापक बदलाव आ गया और राम मन्दिर केन्द्रीय राजनैतिक एजेंडा या विमर्श बन गया। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी मन्दिर या मस्जिद को बनाने का काम राजनीतिक दल का होता है ? दूसरा सवाल यह है कि 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में खड़ी हुई जिस इमारत को राम भक्त आन्दोलनकारियों ने तोड़ा था उसका क्या हुआ? गौर से देखा जाये तो इश दिन के बाद से भारत की राजनीति का स्वरूप बदल गया जिसे विध्वंसात्मक कहा जा सकता है। इसके बाद देशभर में हुए गंगों में हजारों निरीह लोग मारे गये। 6 दिसम्बर 1992 की घटना की जांच के लिए जो लिब्राहन आयोग बनाकर कार्यकाल तीन बार बढ़ाकर रिपोर्ट ली गई और उसे अलमारी में बन्द कर दिया गया। दूसरी तरफ इस घटना की सीबीआई जांच की गई और इसमें भाजपा के तीन नेताओं सर्वश्री लाल कृष्ण अाडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व साध्वी उमा भारती समेत कई अन्य लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई। तीनों नेता पिछली वाजपेयी सरकार में मन्त्री पद पर रहे।
श्री अाडवाणी को तो गृहमन्त्री का पद दिया गया जिनके मन्त्रालय की देखरेख में सीबीआई काम करती है। यह मुकद्दमा अभी भी चल रहा है। पिछले दिनों श्री लिब्राहन ने स्वयं यह मुद्दा उठाया था कि जब अभी तक बाबरी मस्जिद या ढांचा तोड़ने के मुकद्दमे का निपटारा नहीं हुआ है तो किस प्रकार विवादित स्थल के मालिकाना हकों का निपटारा हो सकता है? कानूनी नुक्ते से बात जायज है क्योंकि 6 दिसम्बर 1992 को कानून की धज्जियां उड़ाई गई थीं। भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं इस कदर प्रबल हो गई थीं। सीबीआई ने भाजपा नेताओं के खिलाफ आपराधिक षड्यन्त्र करने की धाराओं में मुकद्दमे दर्ज किये। उनके खिलाफ दायर चार्जशीटों को अदलने–बदलने के मामले भी सामने लाये गये परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर ही इन्हें फिर से शुरू किया गया। अतः अयोध्या मामले में बहुत साफ तौर पर दो नजरिये हैं। पहला कि हिन्दुओं की आस्था को देखते हुए पूरे विवादित स्थल पर मन्दिर बनाया जाये और दूसरा जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद या ढांचे को गिराने में निर्णायक भूमिका निभाई है उनके विरुद्ध देश के कानून के तहत कार्रवाई हो। दूसरा सवाल है कि इनमें से पहला कौन सा हो? जाहिर है कि संविधान के अनुसार देश को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी से किसी भी पार्टी की सरकार बन्धी होती है।
कसूरवार को सजा देना और उसका कानून के सामने सिर झुकाने का काम भी सरकार या उसकी मशीनरी ही करती है। जहां तक आस्था का प्रश्न है उसकी कानून की निगाह में कोई जगह नहीं होती क्योंकि आस्था व्यक्ति सम्बन्धित (रिलेटिव) होती है। हमारे देश मे सैकड़ों बाबा और साधु खुद को भगवान कहते घूम रहे हैं। वे अपने पीछे जिन लोगों का हुजूम खड़ा रखते हैं, उन सबकी आस्था उनमें होती है मगर क्या कानून इसे तवज्जो दे सकता है? मगर इसके बावजूद भगवान राम का भारत में अस्तित्व भारत में सांस्कृतिक मुद्दा है जिसे श्री अाडवाणी ने राजनीति में रंग कर धार्मिक स्वरूप दे दिया था। अतः श्री राम के मन्दिर को अगर हिन्दू समाज विवादित स्थल पर बनाना चाहता है तो इसे धार्मिक दायरे से बाहर निकाल कर सामाजिक दायरे में लाना चाहिए और धर्म निरपेक्ष भारत के सभी धर्मों के मानने वाले लोगों को विशाल हृदय का परिचय देना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय तो केवल जमीन के मालिकाना हक का ही फैसला कर सकता है। राम पर किसी भी प्रकार की राजनीति करने का हक भारत का संविधान किसी भी राजनैतिक दल को नहीं देता है। मुस्लिम समुदाय को भी करोड़ों भारतीयों की आस्था के प्रतीक श्रीराम के मंदिर निर्माण में योगदान देकर सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए।