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प्रदूषण, पटाखे और बेरोजगारी

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देश की सर्वोच्च अदालत ने देशभर में पटाखों के इस्तेमाल पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने के लिए दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान सवाल किया कि लोग पटाखा उद्योग के पीछे क्यों पड़े हैं जबकि ऐसा लगता है कि इसके लिए वाहन प्रदूषण कहीं अधिक बड़ा स्रोत है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र से जानना चाहा कि क्या उसने पटाखों और ऑटोमोबाइल से होने वाले प्रदूषण के बीच कोई तुलनात्मक अध्ययन कराया है? शीर्ष अदालत ने इस सम्बन्ध में रिपोर्ट भी मांगी है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान बेरोजगारी का प्रश्न भी उठाया। पीठ ने सवाल उठाया कि पटाखों के निर्माण पर प्रतिबंध कैसे लगाया जा सकता है यदि यह कारोबार वैध है और लोगों के पास कारोबार करने का लाइसेंस भी है। किसी ने भी अनुच्छेद 19 (जो कहता है कि नागरिकों को कोई भी पेशा अपनाने या नौकरी, कारोबार या व्यापार करने का अधिकार है) के सम्बन्ध में इस पहलू को नहीं परखा। हमें लोगों को बेरोजगार और भूखा नहीं रख सकते। हम रोजगार गंवाने वालों को पैसा नहीं दे सकते। हम उनके परिवार को सहारा नहीं दे सकते। यह बेरोजगारी है।

प्रदूषण को लेकर काफी बहस हो चुकी है लेकिन शीर्ष अदालत ने मानवीय दृष्टिकोण भी अपनाया है। इससे पहले पिछले वर्ष न्यायालय ने हरित पटाखाें के निर्माण व बिक्री की अनुमति दी थी। बेरोजगारी इस समय देश में सबसे बड़ा मुद्दा है। भारतीय अर्थव्यवस्था के निगरानी केन्द्र (सीएमआईई) के अनुसार बेरोजगारी की दर 7.2 प्रतिशत हो गई है जबकि वर्ष 2016 में बेरोजगारी की दर 5.9 फीसदी थी। अन्य एजैंसियों ने भी ऐसे ही आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। सरकार के अपने दावे हैं। आंकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर युद्ध चल रहा है। देशभर में पटाखा उद्योग एक बड़ा उद्योग है। लाखों लोग इससे जुड़े हुए हैं। पटाखों की ​बिक्री पर प्र​तिबंध लगाए जाने से लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे। बेहतर होगा कि पटाखा उद्योग ऐसे पटाखों का निर्माण करे जिनमें रसायनों का प्रयोग कम हो और प्रदूषण भी कम फैले।

दूसरी तरफ हम सड़कों पर बेतहाशा बढ़ रही वाहनों की ओर ध्यान ही नहीं दे रहे। राजधानी दिल्ली में हर दिन 1900 नए वाहन रजिस्टर हाेते हैं। अगर छुट्टी का दिन भी शामिल कर लें तो हर दिन 1145 वाहन पंजीकृत होते हैं। दिल्ली में 28 फरवरी 2019 तक रजिस्टर्ड वाहनों की संख्या 1,13,62,952 पहुंच गई है। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय सीमा (पैट्रोल 15 वर्ष आैर डीजल 10 वर्ष) को मानें तो वैध रजिस्ट्रेशन वाले वाहनों की संख्या 74.63 लाख है। एक सितम्बर 2018 से 28 फरवरी 2019 के बीच 3,22,921 वाहन बढ़ गए हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ बताते हैं कि​ दिल्ली के प्रदूषण में 18 फीसदी भागीदारी वाहनों के प्रदूषण की है। ऐसे में शेष 82 फीसदी प्रदूषण का सही आकलन जरूरी है। सर्दियों में दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने से भी प्रदूषण बढ़ता है जबकि 56 फीसदी समय में हवा पश्चिमी रहती है तो फिर पंजाब की हवा यहां कैसे पहुंचती है। दिल्ली वाले कई वर्षों से जहर निगल रहे हैं। यहां के बच्चों के फेफड़े कमजोर हो रहे हैं और वह प्रदूषण से गम्भीर बीमारियों में जकड़ जाते हैं लेकिन हम कोई ठोस उपाय नहीं कर रहे।

पीएम-10 सबसे ज्यादा एनएचएआई निर्माण, पीडब्ल्यूडी व डीएमआरसी के कास्टिंग यार्ड में छिड़काव नहीं हाेने से भी बढ़ता है। दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण विमानों से बढ़ता है। विमान एक मिनट में 240 लीटर एटीएफ खर्च करते हैं। उड़ान भरते ही दिल्ली के ऊपर 10-15 मिनट तक रहते हैं। ऐसे में रोज लगभग 1200 विमानों में 42 लाख लीटर एटीएफ जलता है। एयर बस 300 डीजल कार के बराबर प्रदूषण के कण छोड़ती है। यदि सभी को जोड़ लें तो यह आंकड़ा 3.13 लाख डीजल कार के प्रदूषण के बराबर पहुंचता है। इस पर किसी का ध्यान ही नहीं है। प्रदूषण अब केवल दिल्ली की ही समस्या नहीं। यह समस्या महानगरों से लेकर औद्योगिक शहरों तक बढ़ चुकी है। हम उपाय नहीं कर रहे अपितु अभी तक कारण ही तलाश रहे हैं।

हर वर्ष स्कूल-कॉलेजों में छुट्टियां कर, कुछ दिन के लिए निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाकर इतिश्री कर लेते हैं। दरअसल अल्पकालिक उपायों की बजाय हमें प्रदूषण नियंत्रण के लिए ठोस उपाय करने चाहिएं। अब दिल्ली आैर आसपास अनेक राजमार्गों का निर्माण हो चुका है फिर भी प्रदूषण कम होने का नाम नहीं ले रहा। प्रदूषण नियंत्रण के साथ हमें यह भी देखना होगा कि कहीं हम बेरोजगारी तो पैदा नहीं कर रहे। प्रदूषण कम करने के लिए उद्योग जगत के साथ-साथ हम सभी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। हमारी कोशिश यह भी होनी चाहिए कि हम निजी वाहनों का प्रयोग कम से कम करें।

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