विकासशील देश से विकसित देश की ओर अग्रसर भारत के सामने अभी भी सामाजिक और धार्मिक समस्याएं हैं। इस समय देखा जाए तो देश की सबसे बड़ी विकराल समस्या है इसकी बढ़ती हुई आबादी। 2011 में सम्पन्न हुई 15वीं राष्ट्रीय जनगणना के जो आंकड़े सामने आए थे उन्हें देख कर पता चला कि वैसे तो तमाम क्षेत्रों में हम उम्मीदों के लक्ष्यों से बहुत सीधे चल रहे हैं, फिर भी यह राहत और संतोष की बात रही कि 1911 और 1921 के दशक को छोड़ दिया जाए तो यह पहला मौका था जब जनसंख्या की दर दशकीय कमी के साथ दर्ज की गई थी। 1911-1921 का जनसंख्या वृद्धि के लिहाज से पहला ऐसा दशक था जब जनसंख्या में वृद्धि होने की बजाय 0.31 फीसदी की कमी आई। इसका कारण जनसंख्या रोकने के लिए हमारे प्रयास नहीं बल्कि कई तरह की प्राकृतिक आपदायें थी। अकाल, सूखा और कई तरह की महामारियों के चलते इस दशक में जनसंख्या वृद्धि दर थम गई थी। इसके बाद तो भारत की जनसंख्या में लगातार बढ़ोतरी होती गई। 1947 में विभाजन हो जाने के बाद भी भारत में जनसंख्या की वृद्धि दर में कोई कमी नहीं आई।
देश की बढ़ती आबादी का मामला पहले भी कई बार अदालतों में पहंचा। सुप्रीम कोर्ट में देश की बढ़ती आबादी पर नियंत्रण के लिए दो बच्चों के नियम समेत कुछ कदम उठाने की मांग करने वाली याचिका पर प्रतिक्रिया देते हुए केन्द्र ने कहा है कि भारत देश के लोगों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने के साफ तौर पर विरोध में है और निश्चित संख्या में बच्चों को जन्म देने में किसी भी तरह की बाध्यता हानिकारक होगी एवं जन सांख्यिकीय विकार पैदा करेगी। स्वास्थ्य मंत्रालय ने हल्फनामे में कहा है कि देश का परिवार कल्याण कार्यक्रम स्वैच्छिक है जिसमें अपने परिवार के आकार का फैसला खुद दम्पति करते हैं।
यह सत्य है कि सन् 1975-76 के आपातकाल के दौरान तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने भारत में बढ़ती हुई जनसंख्या की भयावह स्थिति को सबसे गंभीर समझा था और फिर जनसंख्या नियंत्रण के प्रभावी उपायों के रूप में नसबंदी नीति को प्रोत्साहन तो दिया परन्तु इस दौरान बहुत ज्यादतियां भी हुईं। नसबंदी नीति के सरकारी दुरुपयोग के उदाहरण आपातकाल के इतिहास से भरे पड़े हैं। अनेक अविवाहित युवाओं और सरकारी कर्मचारियों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई। तत्कालीन सरकार द्वारा नसबंदी के लिए निर्धारित लक्ष्य को तो अफसरों ने जोर-जबरदस्ती से पूरा कर लिया लेकिन इससे इंदिरा गांधी के शासन के विरुद्ध देशभर में आक्रोश फैल गया। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने 1978 में ही पुनः संशोधित जनसंख्या नीति की घोषणा कर दी। संभवतः जनसंख्या नीति में सन् 1978 का यह संशोधन सन् 1976 में राष्ट्रीय इमरजैंसी के दौरान पदस्थ कांग्रेस सरकार की कड़ी जनसंख्या नीति के दुष्प्रभावों को सुधार के लिए किया गया था।
वर्तमान भाजपा नीत एनडीए सरकार पुराने अनुभवों को जानती है। 11 मई सन् 2000 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का गठन किया गया था। अटल जी की सरकार ने जनसंख्या नीति 2000 में कई प्रमुख बिन्दु शामिल किए थे जिसमें विवाह की न्यूनतम उम्र लड़की की 18 वर्ष और लड़के के मामले में 21 वर्ष करने का फैसला किया था। इसमें जनसंख्या नीति के सिद्धान्तों को अपनाने वाले दम्पतियों को संबंधित पंचायतों, जिला परिषदों व सरकार के अधीन विभागों द्वारा पुरस्कृत करने की योजना, बाल विवाह निरोधक कानून के प्रावधानों को सख्ती से लागू करना और विवाह, गर्भावस्था तथा जन्म-मृत्यु पंजीकरण को अनिवार्य बनाना आदि शामिल था। परिवार नियोजन कार्यक्रमों पर लगातार जारी जन जागरण से सालाना दर ने आबादी के मोर्चे पर कुछ राहत की सांस लेने का मौका दिया है। भारत में प्रजनन दर घट रही है। परिवार नियोजन को लेकर लोगों में न सिर्फ जागरूकता आई बल्कि ज्यादा बच्चों की वजह से होने वाली आर्थिक परेशानियों को लेकर भी जागरूकता आई है। खास तौर पर गरीब लोगों में यह जागरूकता आ रही है कि वो अपने बच्चों को अगर अच्छा पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं तो फिर बच्चे कम ही होने चाहिये। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि 2047 तक भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश की जनसंख्या करीब 1.61 अरब होगी। भारत तब दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश होगा।
कोरोना काल से पहले बेरोजगारी की दर 45 वर्ष के अपने सबसे चरम पर थी और कोरोना काल में यह दर और बढ़ गई। महामारी ने हमारी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह हिला कर रख दिया है। इतनी बड़ी आबादी को कोरोना वैक्सीन उपलब्ध कराना अपने आप में बड़ी चुनौती है। अगर विकास दर और रोजगार दर के मौजूदा हालात ऐसे ही बने रहे तो हमें भयंकर गरीबी का सामना करना पड़ेगा। इसलिए प्रजनन दर को शून्य तक लाने की जरूरत है जो किसी भी हालत में संभव नहीं होगा। जनसंख्या नियंत्रण के लिए सरकार कड़े कदम नहीं उठा सकती। कोई भी सरकारी नीति तभी कारगर होती है जबकि वह वहां के नागरिकों द्वारा स्वेच्छा और सहजता से अपनाई जाती है न कि जोर-जबरदस्ती से। अब समय आ गया है कि भारतीय रूढ़िवादिता से बाहर निकलें और जनसंख्या वृद्धि के विस्फोट को रोकने के लिए स्वेच्छा से आगे बढ़ें। देश के सभी नागरिकों को शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध भोजन और पर्याप्त आवास और अच्छी जीवन शैली से जीना है तो उन्हें जनसंख्या नियंत्रण के लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा। अगर जनसंख्या विस्फोट हो गया तो फिर देश के विकास का लाभ किसी को नहीं मिलने वाला। अराजकता और रुग्णता की स्थिति पैदा हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। सरकार का बेहतर प्रबंधन और लोगों में जनसंख्या वृद्धि को लेकर चेतना के समन्वय से अच्छे परिणाम आ सकते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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