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शहादत को इबादत

जब भी मैं अपने परिवार का इतिहास पढ़ता हूं तो मुझे खुद पर गर्व होता है। गर्व इसलिए होता है क्योंकि मैं उस परिवार का हिस्सा हूं जिसके पूर्वजों ने देश की आजादी के लिए तो संघर्ष किया ही, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी देश की एकता और अखंडता के लिए अपना बलिदान दे दिया।

है अमर शहीदों की पूजा, हर एक राष्ट्र की परम्परा है।
उनसे है मां की कोख धन्य, उनको पाकर धन्य धरा है।
गिरता है उनका रक्त जहां, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं।
वे रक्त बीज अपने जैसों की, नई फसल दे जाते हैं।
जब भी मैं अपने परिवार का इतिहास पढ़ता हूं तो मुझे खुद पर गर्व होता है। गर्व इसलिए होता है क्योंकि मैं उस परिवार का हिस्सा हूं जिसके पूर्वजों ने देश की आजादी के लिए तो संघर्ष किया ही, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी देश की एकता और अखंडता के लिए अपना बलिदान दे दिया। जब भी 12 मई का दिन आता  मेरे पिता स्वर्गीय श्री अश्विनी कुमार जी भावुक हो जाते। उनका भावुक होना स्वाभाविक भी था। 12 मई 1984 को उनके पिता और मेरे पूज्नीय दादा रमेश चंद्र जी को जालंधर में आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बना दिया था। उनकी शहादत के वक्त मैं बहुत छोटा था, बड़ा हुआ तो मैं पिता की पीड़ा को अनुभव करने लगा था कि पिताविहीन बेटे का दर्द क्या होता है। हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ऐसे क्षण आते हैं जब वह वक्त द्वारा किये गए निर्णय के सामने स्वयं को असहाय पाता है और वह निर्णय के सामने सिर झुका देता है। हम इसे वक्त की नियति कह सकते हैं। इससे पहले मेरे पड़दादा लाला जगत नारायण जी को आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया था। इतने आघात सहकर न तो मेरे पिता श्री अश्विनी कुमार का मनोबल टूटा और न ही उन्होंने परिवार का मनोबल कम होने दिया। 
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मेरे पिता की टेबल पर मेरे पितामह की डायरी और पेन पड़ा रहता था। आज भी मैं उनकी डायरी के पन्नों को देख लेता हूं तो मुझे श्रीमद् भागवत गीता, गुरुबाणी और रामचरित मानस की पंक्तियां अंकित मिलती हैं। मेरे और मेरे अनुज अर्जुन और आकाश दादा जी के स्नेह से वंचित रहे, इस बात का रंज हमें है लेकिन उनकी शहादत को आज 38 वर्ष भी हो चुके हैं लेकिन उनकी शहादत और उनके बाद के क्षणों के समाज, देश और पेशे के प्रति जीवन के अंतिम क्षणों तक पूरी तमन्ना के साथ संघर्ष करने और अपने उद्देश्य को अंतिम सौपान पर पहुंचने की प्रेरणा परिवार को तब मिली थी, वह इतने वर्षों बाद भी अक्षुण्य है और इस जीवन में रहते अक्षुण्य ही रहेगी। पितामह की शहादत के बाद परिवार पर क्या बीती इसकी पूरी कहानी मेरे पिता ही मुझे बताते रहे। 
पितामह रमेश चंद्र जी जो कुछ भी लिखते अर्थपूर्ण लिखते थे, जो भी कहते उसका कुछ अर्थ होता था। पंजाब में पत्रकारिता को निडर एवं साहसी बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उनकी दूरदर्शिता, जनहित को समर्पित लेखनी विलक्षण थी। सादा जीवन पक्षपात से दूर और क्रोधरहित भाव रखना बहुत कम लोगों के वश की बात होती है। असत्य से नाता जोड़ना उन्हें कतई पसंद नहीं था। 16 वर्ष की आयु में जिस व्यक्ति ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया हो तो वे असत्य से नाता कैसे जोड़ सकते थे। रमेश जी ने अपने लेखों में आतंकवाद के खिलाफ समाज को जागृत करने का काम किया। वहीं वे लगातार राजनीतिज्ञों को अपनी लेखनी के माध्यम से चेतावनी देते रहते थे। आग और खून का खेल खेलने वाले यह भूल गए कि यह आग जो वो जाने-अनजाने में लगा रहे हैं एक दिन उनके घरों तक भी पहुंच जाएगी।
रमेश जी का अंतिम लेख था ‘एति मार पइ कुरलाने तैंकी दर्द न आया।’ यह लेख उनके हृदय की वेदना थी, मानवता के लिए उठती टीस और शांति एवं भाईचारे के लिए उमड़ा प्यार था, रमेश चंद्र बड़े कोमल हृदय के स्वामी थे। उन्हें भविष्य की भयावह स्थिति का आभास होने लगा था। वेद में कहा गया है-‘माहिंसियातसर्वा भूतानि’ अर्थात सर्वभूत प्राणीमात्र पर हिंसा मत करो, इसी प्रकार हर एक धर्म ग्रंथ में घृणा से दूर रहने को कहा गया है। इसे पाप माना गया है, श्री रमेश जी पत्रकारिता के दीप स्तम्भ ही थे। वह विधायक भी रहे, बहुत सारी सभा सोसाइटियों के पदाधिकारी भी लेकिन उन्हें अहंकार कभी छूकर भी नहीं गया था। हर एक का दुःख वे अपना दुःख समझा करते थे। गरीब हो अथवा अमीर वह समान रूप से उनकी बात सुना करते, कठिनाइयों को दूर करने का भरसक प्रयास भी करते थे। उन्हें देश की हर छोटी-बड़ी समस्या की पूर्ण जानकारी होती थी। आतंकवाद के दानव ने एक प्रतिभाशाली पत्रकार को हमसे छीन लिया परंतु उनके आदर्श हमसे न छीन सके। आतंकवाद आज ​जिस रूप में संसार के सामने खड़ा हो गया है उसके बारे में सोचकर ही आत्मा कांप उठती है। आज संसार में शायद ही कोई देश इस राक्षसी कृत्य से सुर​िक्षत रह सका हो। कई देश तो निरंतर इस राक्षस से जूझते रहते हैं। 
आज भी पंजाब में राष्ट्र विरोधी ताकतें सक्रिय हैं। आतंकी हमलों की साजिशें एक के बाद एक सामने आ रही हैं। बड़ी मुश्किल से पंजाब आतंकवाद के काले दिनों से निकलकर बाहर आया था लेकिन अब फिर से पंजाब में आतंकवाद का अंधकार फैलाने की साजिशें रची जा रही हैं। ऐसे में राष्ट्र विरोधी ताकतों से टकराने के लिए पितामह जैसी लेखनी की जरूरत है। सोचता हूं कहां गए वो लोग जो अपने आदर्शों की खातिर अपनी जान की बाजी लगाने से भी नहीं डरते थे। आज उनकी शहादत की इबादत करने का दिन है और मेरी मां श्रीमती किरण चोपड़ा और अनुज अर्जुन और आकाश शहादत की इबादत कर रहे हैं। शहादत की विरासत को संभालना हमारा दायित्व भी है।

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