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राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी

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राष्ट्रपति पद के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सर्वसम्मति बनाने के लिए प्रयास चल रहे हैं मगर अभी तक किसी प्रत्याशी का नाम सामने नहीं आया है। सत्ताधारी ‘एनडीए’ के विभिन्न घटक दलों के बीच भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि प्रत्याशी किस ‘हस्ती’ को बनाया जाये। मीडिया में कयासों का बाजार तब तक गर्म रहेगा जब तक कि इस बारे में किसी नाम की घोषणा नहीं हो जाती। बेशक मोदी सरकार की तरफ से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने विपक्षी व क्षेत्रीय दलों से इस बाबत बातचीत करने के लिए एक तीन सदस्यीय समिति का गठन कर दिया है जो विभिन्न पार्टियों के नेताओं से बातचीत कर रही है मगर सवाल यह है कि बातचीत किस मुद्दे पर हो रही है जबकि प्रत्याशी का नाम ही नहीं है? जाहिर है कि सत्ताधारी दल वक्त से पहले अपने पत्ते खोलना नहीं चाहता है और वह विभिन्न दलों से इस बारे में बातचीत कर रहा है कि प्रत्याशी किस प्रकार का हो। मसलन राजनीतिक हस्ती हो या गैर राजनीतिक। भारत के लोकतन्त्र में सबसे बड़ा और वाजिब सवाल यह है कि राजनीतिक दलों की प्रशासन प्रणाली पर आधारित लोकतन्त्र के लिए क्या किसी अराजनीतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति पद पर बिठाया जाना उचित होगा? इसके साथ ही संविधान के संरक्षक होने के नाते क्या किसी भी राष्ट्रपति को इसकी पेचीदगियों का सामान्य ज्ञान नहीं होना चाहिए? यह बेसबब नहीं था कि स्वतन्त्रता मिलने के बाद भारत का प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद को बनाया गया था।

इसकी असली वजह यह थी कि राजेन्द्र बाबू आजादी के दौर में संविधान सभा के अध्यक्ष थे और सामाजिक तौर पर भारत के एक साधारण नागरिक का प्रतिनिधित्व करते थे। हकीकत यह भी है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि स्वतन्त्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल स्व. राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाये जाने से सत्ता की ‘सत्ता’ बनी रहती क्योंकि नई दिल्ली के वायसराय निवास को ही राष्ट्रपति भवन में परिवर्तित होना था और तब तक वायसराय कौंसिल की बैठकें वायसराय हाऊस (राष्ट्रपति भवन) में होने की वजह से आजाद भारत के मन्त्रिमंडल की बैठकें भी इसी भवन में हुआ करती थीं। श्री राजगोपालाचारी के राष्ट्रपति बनने पर एक प्रकार की सुगमता पं. नेहरू देख रहे थे और साथ ही यह भी सोच रहे थे कि उनके इस पद पर आने से दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व भी प्रकट रूप से मुखरित होगा मगर तब कांग्रेस कार्यसमिति ने उनके इस विचार के विरुद्ध राजेन्द्र बाबू को राष्ट्रपति बनाया और डा. राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद पर बिठा कर उन्हें राज्यसभा का चेयरमैन बनाया बल्कि इतना ही नहीं राजेन्द्र बाबू को पुन: 1957 में भी राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया। तब तक राजा जी अपनी अलग ‘स्वतन्त्र पार्टी’ गठित कर चुके थे।

डा. राजेन्द्र प्रसाद बिहार के एक छोटे कस्बे ‘सीवान’ से उठ कर स्वतन्त्रता आन्दोलन की राजनीति में आये थे परन्तु दूसरी तरफ यह भी भारतीय लोकतन्त्र की सच्चाई है कि राष्ट्रपति पद पर प्रधानमन्त्री की निजी पसन्द की हस्ती को ही बिठाया जाना मुफीद रहता है क्योंकि भारत के राष्ट्रपति संविधान के साथ ही संसद के भी संरक्षक होते हैं। इसी वजह से संसद का सत्र उनकी अनुमति के साथ ही शुरू होता है और उनकी स्वीकृति मिलने पर ही इसका सत्रावसान होता है मगर यह सारा कार्य वह प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में चलने वाले मन्त्रिमंडल की सलाह से ही करते हैं। जाहिर तौर पर वह अधिशासी शासक नहीं होते मगर ‘रबर स्टाम्प’ भी नहीं होते। संसद द्वारा पारित किसी भी विधेयक को रोक सकते हैं और इसे रोके रखने की कोई ‘अवधि’ सुनिश्चित नहीं होती। बेशक वह एक बार ही पुनर्विचार के लिए किसी विधेयक को सरकार के पास वापस कर सकते हैं मगर यह काम वह कब करेंगे इसकी कोई अवधि संविधान में उल्लिखित नहीं है। अत: प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति के बीच सम्बन्धों की मधुरता भी भारत के लोकतन्त्र के अविरल प्रवाहित होने की एक शर्त है मगर जिस तरह ‘एनडीए’ नाम का खुलासा नहीं कर रही है उसी तरह पिछली बार केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार के समय भी सत्ताधारी ‘यूपीए’ इस मामले में आखिरी दम तक पर्दा रखना चाहती थी। तब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी यूपीए घटक दलों में सर्वसम्मति बनाये जाने के नाम पर सभी दलों से विचार-विमर्श कर रही थीं।

अगर 2012 में मुलायम सिंह यादव ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को ही राष्ट्रपति बनाये जाने का प्रस्ताव आगे न बढ़ाया होता और ममता बनर्जी ने यूपीए की बैठक में नाम जानने की जिद न की होती तो अन्तिम समय तक संभवत: प्रत्याशी के नाम पर रहस्य का पर्दा ही पड़ा रहता। अत: आज जब एनडीए सत्ता में है तो कांग्रेस का नाम जानने के लिए उत्साहित होना गैर जरूरी है मगर निश्चित तौर पर एनडीए के घटक दलों को प्रत्याशी का नाम जानने का अधिकार है लेकिन इसके घटक ‘लोक जनशक्ति पार्टी’ के नेता रामविलास पासवान ने साफ कह दिया है कि वह उस प्रत्याशी का समर्थन करेंगे जिसे प्रधानमन्त्री का समर्थन प्राप्त होगा। कमोबेश यही स्थिति भाजपा के हर सहयोगी दल की है मगर भाजपा को ‘शिवसेना’ को मनाना पड़ेगा जिसने संघ प्रमुख मोहन भागवत का नाम पहली वरीयता पर रखा है, दूसरा नाम एम.एस. स्वामीनाथन का है मगर यह राजनीतिक चोंचलेबाजी नहीं है क्योंकि शिवसेना ने पिछली बार विपक्ष की एकता को तोड़ते हुए कांग्रेस के प्रत्याशी प्रणव मुखर्जी को वोट दिया था मगर सवाल यह भी है कि जब पिछली बार श्री मुखर्जी जैसे सुयोग्य प्रत्याशी पर भाजपा ने सर्वसम्मति बनाने से इंकार कर दिया था तो अब कांग्रेस क्यों भाजपा को उपकृत करे बशर्ते पहले प्रत्याशी के नाम का खुलासा न हो और उस पर उसे एतराज न हो। अत: चुनाव होना जरूरी लग रहा है।

अभी तक केवल 1977 में स्व. नीलम संजीव रेड्डी ही निर्विरोध चुने गये थे और वह भी तब जबकि उनके विरुद्ध दाखिल सभी नामांकन पत्र रद्द हो गये थे। राजेन्द्र बाबू भी निर्विरोध नहीं चुने जा सके थे। राष्ट्रपति भारत में क्यों सजावटी पद नहीं है इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उन्हें ही संविधान ने ‘प्रधानमन्त्री नियुक्त’ करने का अधिकार दिया है। बेशक यह कार्य लोकसभा के माध्यम से किसी भी दल या गठबन्धन को मिले चुनावी बहुमत के आधार पर ही किया जाता है मगर भारत ने वह राजनीतिक उठा-पटक का दौर भी देखा है जब राष्ट्रपति ने प्रधानमन्त्री पद का दावा करने वाले राजनीतिज्ञों से बहुमत का सबूत मांगा था या उन्हें लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए सुनिश्चित अवधि का समय दिया था। अत: राष्ट्रपति का चुनाव किसी नौकरशाह या विद्वान अथवा शोहरत बटोरने वाले इंसान का मसला नहीं है बल्कि यह भारत के लोकतन्त्र को समझने वाली ‘दानिशमन्द हस्ती’ की खोज है।

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