राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के पदमुक्त होने पर पूरा देश सोच रहा है कि जिस तरह पूरे पांच वर्ष तक वह राजनीतिक बदलाव का दौर चलने के बावजूद संविधान की सत्ता के मुहाफिज बने रहे और लोकतंत्र की अजीम ताकत का अहसास कराते रहे क्या उसने राष्ट्रपति भवन को आम आदमी की अपेक्षाओं का केन्द्र नहीं बना दिया है। श्री मुखर्जी अपने पीछे ऐसी विरासत छोड़ कर जा रहे हैं जिसमें इस देश के प्रथम नागरिक और अंतिम छोर पर खड़े हुए नागरिक की अपेक्षाएं लोकतंत्र के विराट सागर में एकाकार होती हैं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि गांधी के इस देश में सरकार लोक कल्याणकारी हो सकती है जिसमें संविधान से प्राप्त शक्तियों का इस्तेमाल पूरे न्यायपूर्ण तरीके से किया जाता है। यही भारत की सबसे बड़ी ताकत है जो इस बहु-विविधता से परिपूर्ण देश को एक सूत्र में बांधे हुए हैं क्योंकि संविधान किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करता है और राष्ट्रपति इसी के संरक्षक होते हैं। उनकी भूमिका संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि वह संसद के माध्यम से चलने वाली सरकार के अभिभावक होंगे। अत: जब भी भारत में सांप्रदायिक सद्भाव खराब होने या सामाजिक ताना-बाना बिखरने का माहौल बना तो राष्ट्रपति भवन से ऐलान हुआ कि ”पांच हजार वर्षों से भी ज्यादा पुरानी संस्कृति के भारत में सभी धर्मों और वर्गों के लोग शांति व सौहार्द के साथ रहते आए हैं और एक-दूसरे का सम्मान करते आये हैं।
सहिष्णुता इस देश की रग-रग में बसी हुई है।” प्रणव दा से बड़ा फिलहाल कोई राजनेता नहीं है जिनकी दूरदर्शिता को कोई चुनौती देने की हिम्मत कर सके। यह बेवजह नहीं था कि 1936 में ब्रिटेन के ‘हाऊस आफ लाड्र्स में दो अंग्रेज विद्वान सांसदों ने जब यह कहा था कि भारत ने संसदीय प्रणाली अपनाने को अपनी सहमति देकर अंधेरे में छलांग लगाने का फैसला कर लिया है। भविष्य के गर्त में क्या छिपा है कोई नहीं जानता मगर इसी सदन में एक दूसरे अंग्रेज विद्वान ने भारत के इस फैसले की तारीफ की थी और कहा था कि उसके इस कदम से पूरे एशिया महाद्वीप में नव क्रांति का दौर शुरू होगा और दबे-कुचले व दासता की जंजीरों में जकड़े हुए देशों में आत्म अधिकार का भाव जागृत होगा। जाहिर तौर पर यह ब्रिटेन की लेबर पार्टी के सांसद ही थे। ब्रिटेन की संसद भारत के मुद्दे पर तब बहस कर रही थी जब इस देश में स्व. पं. मोतीलाल नेहरू ने भारतीय संविधान का प्रारूप लिख दिया था और यहां प्रान्तीय असैम्बलियों के चुनाव इसी संविधान के अनुसार हो रहे थे। इसमें समूचे भारत को विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों का संघीय एकल देश लिखा गया था जिसे अंग्रेजों ने मान्यता प्रदान की थी और नया ‘भारत सरकार कानून’ बनाया था।
भारत के लोगों की लोकतंत्र के लिए ललक स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही केन्द्र में थी जिसमें आम नागरिकों की सत्ता मुख्य ध्येय था मगर जब कांग्रेस पार्टी के साये में ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1975 में इमरजैंसी लगाकर इसे समाप्त किया तो इसका प्रतिफल जो निकला उसका बयान श्री मुखर्जी ने कल संसद में अपने विदाई समारोह में दिए गए भाषण में बहुत ही शास्त्रीय ढंग से देकर साफ कर दिया कि लोकतंत्र भारतीयों के शरीर में बहने वाले रक्त की तरह जीवनदायक का काम करता है क्योंकि इमरजैंसी लगाने वाली इंदिरा गांधी से ही जब लंदन में कुछ पत्रकारों ने यह पूछा कि उन्होंने इमरजैंसी लगाकर क्या हासिल किया तो उन्होंने जवाब दिया कि ”हमने बड़े ही सुगठित तरीके से भारत के सभी वर्गों के लोगों को अपने खिलाफ कर लिया” इंदिरा जी की यह स्वीकारोक्ति थी कि भारत के लोग सब-कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं मगर तानाशाही या अधिनायकवाद नहीं। इसके साथ ही उन्होंने संसद की लोकतंत्र में भूमिका को भी पुन: रेखांकित करते हुए कहा कि व्यवधान लोगों की समस्याएं निपटाने का कोई तरीका नहीं हो सकता बल्कि यह विपक्ष द्वारा अपने अधिकारों का खुद ही दमन हो सकता है।
संसद में नीतिगत तर्कशास्त्र के सिद्धांत पर बहस-मुहाबिसे व चर्चा होनी चाहिए जिससे सरकार की जवाबदेही लगातार जनता के प्रति बनाई रखी जा सके। उन्होंने इस संदर्भ में राज्यसभा के अपने सदस्यकाल के दौरान ऐसे सांसदों का जिक्र भी किया जिनकी पार्टी बेशक कोई भी रही हो मगर उनका लक्ष्य जनता की चिंताएं ही रहीं इनमें भाकपा के नेता स्व. भूपेश गुप्ता का उल्लेख महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि श्री गुप्ता जीवन पर्यन्त कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ रहे जो कि प्रणव दा की पार्टी थी। वह अटल बिहारी वाजपेयी की भाषणकला से प्रभावित रहे और श्रीमती इंदिरा गांधी उनकी राजनीतिक गुरु रहीं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारत को बदलने की जिज्ञासा को उन्होंने सराहा, श्रीमती सोनिया गांधी के सहयोग के लिए धन्यवाद दिया मगर यह भारत की मिट्टी की ताकत ही है कि प. बंगाल के एक छोटे से गांव ‘मिराती’ की धूल-मिट्टी में खेल कर बड़ा हुआ, अपने पिता से एक साइकिल खरीद कर देने की जिद्द करने वाला यह बालक देश के सर्वोच्च सत्ता प्रतिष्ठान में पहुंच कर भी गांवों की सौंधी सुगंध से दूर नहीं रह पाया और हर दुर्गा-पूजा पर उसने अपने गांव में जाकर ही अपने पुरखों की मुख्य पुजारी होने की भूमिका का भी निर्वाह किया। पूरा देश राष्ट्रपति के रूप में उन्हें पाकर गौरवान्वित हुआ।
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