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राष्ट्रपति का धन्यवाद प्रस्ताव

संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा शुरू हो चुकी है और देशवासियों के सामने वे तथ्य रखे जा रहे हैं जो मोदी सरकार के वरीयता क्रम में रहने चाहिए।

संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा शुरू हो चुकी है और देशवासियों के सामने वे तथ्य रखे जा रहे हैं जो मोदी सरकार के वरीयता क्रम में रहने चाहिए। भारत की संसदीय प्रणाली के तहत राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहुत महत्व होता है क्योंकि वर्ष में एक बार राष्ट्रपति महोदय संसद के संयुक्त सत्र को सम्बोधित करके ‘अपनी सरकार’ की उपलब्धियों और भविष्य की योजनाओं के बारे में बताते हैं। यह परंपरा केवल कोई रस्म नहीं है बल्कि इस देश में संविधान के शासन की सुस्थापना का वचन होती है। 
बेशक राष्ट्रपति संवैधानिक मुखिया होते हैं और प्रधानमंत्री कार्यकारी या अधिशासी प्रमुख होते हैं परन्तु भारत के लोगों द्वारा चुनी गई संसद के संरक्षक के रूप में भी राष्ट्रपति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि उनका भी चुनाव पांच वर्ष के लिए देश की जनता ही परोक्ष रूप से करती है। इस मायने में भारत की संसदीय प्रणाली ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से भिन्न है जहां संवैधानिक मुखिया ‘शाही परिवार’ का सदस्य जन्मजात रूप से होता है। अतः राष्ट्रपति का अभिभाषण काबिज सरकार द्वारा ही तैयार किये जाने के बावजूद जनता के नुमाइंदों का ही अभिलेख पत्र होता है। 
इस पर जनता द्वारा चुने गये नुमाइन्दे ही बहस करके इसके गुण-दोष पर अपने-अपने विचार व्यक्त करके राष्ट्रपति का धन्यवाद अदा करते हैं। यह परंपरा स्वयं में महान है और भारत को दुनिया के अन्य गणतन्त्रों में विशिष्टता प्रदान करती है। इसे सर्वसम्मति से पारित करने की परंपरा भी इसीलिए रखी गई है क्योंकि राष्ट्रपति पद पर आसीन व्यक्तित्व पूरी तरह ‘अराजनैतिक’ हो जाता है जिसका धर्म और कर्तव्य केवल संविधान का शासन देखना ही रह जाता है अतः नई 17वीं लोकसभा में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने ओडिशा से चुने गये सांसद श्री प्रताप चन्द्र सारंगी से चर्चा की शुरूआत कराकर पूरी बहस को जबर्दस्त तरीके से लोकोन्मुखी बनाने का प्रशंसनीय कार्य किया। 
श्री सांरगी राजनीति को जीवन समर्पित करने वाले ऐसे योद्धा माने जाते हैं जिनका उद्देश्य जनसमस्याओं के लिए जूझना रहा है। लोकतन्त्र में सादगी और सरलता व समर्पण का भी उन्हें प्रतीक माना जा सकता है और ‘धन बल’ के समक्ष ‘जन बल’ का पुरोधा भी। उन्होंने अपने वक्तव्य में जिस तरह भारतीय संस्कृति के समावेशी, सहिष्णु और सर्वजन सुखाय के बिन्दुओं को छुआ उसमें राष्ट्रवाद की वह धारा प्रवाहित होती है जिसने इस देश के निर्माण में उत्प्रेरक का काम किया है। महत्वपूर्ण यह रहा कि उन्होंने ‘भारत माता की जय’ के उद्घोष से जुड़े उन अर्थहीन कुतर्कों और वितर्कों को भी सिरे से ध्वस्त कर दिया जो कभी-कभी स्वयं भाजपा के अति उत्साही सदस्यों द्वारा ही पैदा कर दिये जाते हैं। 
इस उद्घोष का किसी धर्म से कोई नाता नहीं हो सकता क्योंकि यह धरती पुण्य भूमि मानी जाती है जिसे अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए हिन्दू, मुसलमान, सिखों व ईसाइयों समेत सभी मतावलम्बियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। श्री सारंगी बेशक कुछ लिखे हुए को भी साथ-साथ पढ़ रहे थे परन्तु वह जो भी कुछ कह रहे थे वह भारत की जमीनी हकीकत को समझ कर दिल से बोल रहे थे। इसके साथ ही भाजपा ने आदिवासी समाज की युवा नेत्री डा. हिना गावित को उनके बाद मैदान में उतारा। इससे भी यह सिद्ध हुआ कि भाजपा संसद के भीतर समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों की आवाज को महत्व देना चाहती है। 
बेशक दोनों वक्ताओं ने प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की जमकर तारीफ की और पिछले पांच साल में उनकी सरकार द्वारा किये गये जनहित के कार्यों पर प्रकाश डाला और उपलब्धियों का बखान भी किया। यह पूरी तरह जायज कहा जा सकता है क्योंकि भाजपा ने लोकसभा चुनाव केवल उनके व्यक्तित्व के भरोसे ही जीता है और संसदीय राजनीति में यह वाजिब भी है, लेकिन विपक्षी पार्टी कांग्रेस की तरफ से जब इसके नेता श्री अधीर रंजन चौधरी ने अपना वक्तव्य दिया तो उन्होंने भारत के विकास में प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की भूमिका को नजरंदाज किये जाने पर सख्त ऐतराज करते हुए वह फेहरिस्त गिना दी जिसकी वजह से आजादी मिलने के बाद से भारत आज दुनिया के शक्तिशाली देशों में गिना जाता है और विभिन्न आधारभूत क्षेत्रों में इसने आत्मनिर्भरता प्राप्त की है। 
इस बहस को इस वजह से परंपरा से हटकर देखा जाना चाहिए क्योंकि पक्ष व विपक्ष दोनों ही तरफ से विद्वता का तमगा लटकाये लोग इसे आगे नहीं बढ़ा रहे हैं बल्कि आम जनता के बीच से उठकर संघर्ष करने वाले लोग अपने-अपने हिसाब से भारत की विकास यात्रा और इसकी शक्ति का बखान कर रहे हैं। श्री चौधरी ने पहला अवसर मिलते ही सिद्ध कर दिया कि सदन में उन्हें कांग्रेस ने अपना नेता बनाकर सरकार को हमेशा सावधान रखने की तजवीज ढूंढ ली है। हालांकि उन्हें उस तुलना से बचना चाहिए था जो उन्होंने भाजपा सदस्यों द्वारा की गई प्रधानमंत्री श्री मोदी की प्रशंसा के खिलाफ कहे थे। पार्टी के प्रति निष्ठा का सम्बन्ध विरोधी पार्टी के नेता के अपमान से नहीं होता है बल्कि शालीनता के दायरे में तर्कपूर्ण विवेचना से होता है। 
जाहिर है कि भारत ने 2014 से ही तरक्की शुरू नहीं की है बल्कि इससे पहले भी यह लगातार तरक्की करता रहा है जिसका विवरण भी श्री चौधरी ने बखूबी पेश किया किन्तु शुरू में ही श्री मोदी के प्रति अपमानजनक प्रतीकात्मक टिप्पणी करके उन्होंने अपने बयान की ‘तीरगी’ को अलोकप्रिय बना डाला। भविष्य में उन्हें ऐसी तुलनाओं से बचना चाहिए। इस मामले में उन्हें श्री सारंगी से ही प्रेरणा लेनी चाहिए थी जिन्होंने अपनी बात इस ढंग से रखी कि विपक्ष भी ‘तिलमिला’ गया और उन पर कोई आंच भी नहीं आयी। ‘संसदीय वकृतत्व कला’ कोई आसान काम नहीं है क्योंकि यह वह कला होती है जिसमें ‘विरोधी को गले लगाये रखकर उसे पुचकारते हुए डांट पिलानी पड़ती है।’ इस सबके बावजूद नई लोकसभा का आगाज खुशनुमा कहा जायेगा। विपक्ष की ओर से बेशक इसमें संशोधन पेश किये गये हैं जिन्हें संसदीय परंपरा के अनुसार निरस्त कर दिया जायेगा। क्योंकि सामान्यतः स्वस्थ परंपरा बनाये रखने हेतु कोई भी सदस्य संशोधन पर जोर नहीं डालता है।

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