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प्राइवेट स्कूल : लूट की कोई हद नहीं

कोरोना काल में हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है लेकिन जितना नुक्सान शिक्षा के क्षेत्र में हुआ है, उसकी भरपाई मुश्किल लग रही है। यद्यपि कोरोना काल में सामाजिक-आर्थिक ढांचे का रूपांतरण हुआ।

कोरोना काल में हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है लेकिन जितना नुक्सान शिक्षा के क्षेत्र में हुआ है, उसकी भरपाई मुश्किल लग रही है। यद्यपि कोरोना काल में सामाजिक-आर्थिक ढांचे का रूपांतरण हुआ। इस दौरान शिक्षा के पारम्परिक ढांचे में पूरी तरह परिवर्तन हो गया। शिक्षण की परम्परागत यद्यपि फेस टू फेस यानि स्कूल की कक्षाओं का ढांचा आनलाइन शिक्षा में बदल चुका है। आनलाइन टीचिंग नए-नए विकल्पों के साथ शिक्षा जगत में उभरी चुनौतियों काे अवसरों में बदलने के लिए नए-नए प्रयास कर रही है। यह भी कहा जा सकता है कि आनलाइन शिक्षण की डिजिटल पद्धति ने शिक्षा संस्कृति को उलट कर रख दिया है। हम सब गुरुकुल से गूगल तक के सफर के साक्षी रहे हैं। अब तो शिक्षा में बदलावों की जरूरत महसूस करते हुए यूजीसी ने स्मार्ट क्लासरूम ई-पाठशाला, आडियो-वीडियो और डिजिटल शिक्षा के नए-नए केन्द्र स्थापित करने शुरू कर दिए हैं। जरूरतों को देखते हुए भारतीय भी अपने बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था कर रहे हैं, परन्तु उन पर दबाव काफी बढ़ गया है। कोरोना काल में अनेक लोगों की नौकरी चली गई, काम-धंधे बंद हो गए। उनके सामने आर्थिक संकट पहाड़ बनकर खड़ा है। उनकी सारी बचत लॉकडाउन के दौरान खर्च हो चुकी है। केन्द्र सरकार ने लगभग हर क्षेत्र को फिर से खड़ा करने के लिए ‘आत्मनिर्भर भारत’ के अन्तर्गत करोड़ों के पैकेज दिए हैं। आम आदमी को भी राहत की दरकार है। लेकिन उनकी परेशानियों में निजी स्कूलों ने बहुत ज्यादा इजाफा कर दिया है। लॉकडाउन अनलॉक होने के बाद लोगों को अपने पांवों पर खड़ा होने के लिए कुछ और वक्त की जरूरत है लेकिन निजी स्कूल उन्हें लूटने में लगे हैं आैर इस लूट की कोई हद भी नहीं है। कोरोना संकट तो मानो निजी स्कूलों के लिए लूट का अवसर बन गया है। भारत में निजी स्कूलों की लूट तो उदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ 90 के दशक से ही शुरू हो गई थी जब शिक्षा का प्राइवेटाइजेशन होना शुरू हो गया था, लेकिन अब तो पूरी मनमानी चल रही है।
कोरोना संकट के बीच दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों ने अपनी फीस में बेहतहाशा बढ़ौतरी कर दी है। केन्द्र सरकार ने लॉकडाउन के वक्त स्कूलों को आदेश तो दिया था कि वो ट्यूशन फीस के अलावा कोई और फीस चार्ज न करें, लेकिन इसके लिए कोई कानून नहीं बनाया गया। जिसका परिणाम यह रहा कि निजी स्कूल अब उगाही करने में लगे हैं। अभिभावक बताते हैं कि फीस भरने के लिए ऑनलाइन पोर्टल खोलने पर पता चलता है कि फीस करीब 4 हजार रुपए तक बढ़ाई जा चुुकी है। पहले दो बच्चों की फीस 9100 रुपए जाती थी, अब उन्हें 14 हजार रुपए देने पड़ते हैं। अभिभावक परेशान हैं कि कैसे वह बढ़ी हुई फीस स्कूल में जमा कराएं। महामारी की वजह से उनकी कमाई भी अब पहले जैसी नहीं। कुछ प्राइवेट स्कूलों ने तो अभिभावकों को नोटिस दिए बिना ही मनमानी फी​स वसूलनी शुरू कर दी है।
स्कूल अब पीटीए फंड, स्कॉल​रशिप फंड, आपरेशनल चार्ज, टैक्नोलोजी चार्ज, डेवलपमेंट फीस और एनुअल चार्ज के नाम पर फीस बना रहे हैं। कुछ अभिभावकों ने आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए फीस में छूट की मांग की तो स्कूल प्रबंधन ने अभिभावकों से इसके सबूत मांग लिए। अब कुछ स्कूलों ने उगाही का नया तरीका ढूंढा है। अभिभावकों को स्कूल प्रबंधन की तरफ से पत्र भेजे जा रहे हैं। यह अभिभावकों की जेब पर डकैती के समान है। पत्र में लिखा गया है कि अप्रैल से स्कूल ऑनलाइन शिक्षा के लिए ट्यूशन फीस के अलावा कुछ नहीं ले रहे, स्कूल फिजीकली चल नहीं रहे लेकिन आप्रेटिंग का खर्च पहले जितना ही है। शिक्षकों और दूसरे स्टाफ को वेतन भी देना पड़ रहा है। अभिभावकों से अपील की गई है कि वह 50 हजार रुपए डोनेशन के तौर पर स्कूल के खाते में ट्रांसफर करें। 
अब सवाल यह है कि एक कक्षा में औसतन 40 बच्चे होते हैं और उनके पांच-पांच सैक्शन होते हैं। अगर इन सबको जोड़ा जाए तो पहले से लेकर 12वीं कक्षा तक के छात्रों की संख्या हजारों में बैठती है। अगर हर अभिभावक एक बच्चे का 50 हजार रुपए अदा करेगा तो स्कूल करोड़ों की उगाही कर लेंगे। कोरोना काल में निजी स्कूलों की चांदी हो रही है, अभिभावकों के हिस्से तो रोना ही आया है। शिक्षा का बढ़ता व्यवसायीकरण चिंता का ​विषय है। अदालतें भी नकेल नहीं डाल पा रहीं और न ही शिक्षा से जुड़े नियामक। आप सब जानते हैं कि जो अभिभावक डोनेशन नहीं देगा तब तक उनके बच्चों से स्कूल कैसा व्यवहार करेगा। इसलिए डरकर सब चुपचाप डोनेशन देने को मजबूर हैं।
शिक्षा बाजार लगा हुआ है और लूट मची हुई है। शिक्षा तो ज्ञान का माध्यम है। ज्ञान की भावना पैसे से और उत्पाद की गुणवत्ता से जुड़ गई। माता-पिता की पहचान भी संस्कार और गुणों से नहीं विद्यालयों की फीस, इमारतों और सुविधाओं से होने लगी। शिक्षा के बाजारीकरण ने भारत आैर इंडिया जैसे दो वर्ग पैदा कर दिए। गरीब तबके में आक्रोश बढ़ रहा है, वे या तो हीनभावना का शिकार हो रहे हैं या फिर अवसाद का शिकार हो रहे हैं। सबको समान शिक्षा कैसे मिले यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। स्कूलों का तो इस समय संकटकाल में अभिभावकों से सहयोग करना चाहिए था लेकिन उनकी लूट-खसोट से तो अभिभावकों का धैर्य ​जवाब देने लगा है। शिक्षा मंत्रालय को ठोस कदम उठाने होंगे अन्यथा देश में बहुत बड़ी खाई उत्पन्न हो जाएगी, जिसे पाटना मुश्किल होगा। शिक्षा सस्ती और सहज सुलभ होनी ही चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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