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लोकतन्त्र में लोक-अभिव्यक्ति

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लोकसभा चुनावों के लिए आचार संहिता लागू हो जाने के बाद यह बहुत जरूरी हो गया है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार का प्रयोग संवैधानिक सीमाओं के भीतर इस प्रकार करें कि सूचनाओं को प्राप्त करने के हमारे हक के तहत इनकी सम्यक समीक्षा हो सके। अतः बहुत जरूरी यह भी है कि सार्वजनिक हित की किसी भी सूचना को किसी भी स्तर पर बेरोक-टोक तरीके से प्रसारित किया जाए। यह बेवजह नहीं है कि भारत की आजादी के आंदोलन के शुरूआती दिनों में 1920 में ही महात्मा गांधी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तुलना ‘पानी’ से करते हुए कहा था कि यह ऐसी स्वतंत्रता है जिसमें कोई भी दूसरी चीज नहीं मिलाई जा सकती है जबकि पानी किसी भी दूसरी चीज में मिलाया जा सकता है।

इसका मतलब यही निकलता है कि महात्मा गांधी ने पहले ही साफ कर दिया था कि आजाद भारत में इस अधिकार को ​किसी भी रूप में ‘मिलावटी’ नहीं बनाया जा सकता। इसकी व्यवस्था हमारे संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर ने बखूबी की किन्तु एक चूक हो गई कि अहिंसा और अहिंसक विचारों को लोकतान्त्रिक भारत की सत्ता की प्राथमिक शर्त बताने वाली इस पुस्तक में हिंसा का रास्ता अपनाते हुए सत्ता बदल के विचारों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के दायरे से बाहर रखने का पुख्ता प्रावधानों पर विचार करना नजर में नहीं आया। यह भूल सबसे पहले पं. जवाहर लाल नेहरू की पकड़ में आई और उन्होंने इसका इलाज 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद करना बहुत जरूरी समझा।

तब तक प्रथम लोकसभा चुनाव नहीं हुए थे और 1945 में चुनी गई संविधान सभा को ही लोकसभा में परिवर्तित कर दिया गया था। अतः देश के प्रधानमन्त्री के तौर पर पं. नेहरू ने संविधान में प्रथम संशोधन प्रस्तुत किया और हिंसक विचारों के प्रतिपादन या प्रसार पर रोक लगा दी। आश्चर्यजनक यह रहा कि इसे सर्वोच्च न्यायालय में तब के हिन्दू महासभा के नेता स्व. एन.सी.चटर्जी ने चुनौती दी। इससे पूर्व ही पं. नेहरू ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को इस आधार पर प्रतिबन्धित कर दिया था कि उसकी विचारधारा में हिंसा को हथियार मान कर सत्ता बदल की वकालत की जाती है लेकिन चुनौती कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से नहीं बल्कि हिन्दू महासभा की तरफ से अदालत में दी गई थी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया और कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने संविधान में संसदीय लोकतन्त्र में चुनाव प्रणाली के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए हिंसा के वैचारिक हिस्से को खारिज कर दिया। मगर इसकी पृष्ठभूमि बहुत रोचक है।

आजादी के बाद के अगले वर्ष 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी के कोलकाता में हुए सम्मेलन में कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता परिवर्तन में हथियारों के इस्तेमाल को जायज ठहराया जिसका पुरजोर विरोध इसी पार्टी के तत्कालीन महासचिव स्व. पी.सी. जोशी ने किया और पं. नेहरू की कांग्रेस से सहयोग की वकालत की। इस पर उनकी कटु आलोचना हुई और उन्हें महासचिव पद से भी हटा दिया गया। इस घटना ने पं. नेहरू को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की समीक्षा करने के लिए बाधित किया और उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबन्धित करते हुए संविधान में संशोधन किया। गौर करने वाली बात यह है कि यदि दूरदृष्टा नेहरू ने नवजात स्वतन्त्र भारत के भविष्य को निरापद बनाये रखने के लिए यह कदम न उठाया होता तो आज देश की सामाजिक-राजनीतिक हालत क्या होती? जिस प्रकार आज कभी गाय के नाम पर और कभी धर्म के नाम पर हिंसक वातावरण बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, क्या उन्हें हम कानून के सामने सिर झुकाने को मजबूर कर सकते थे ?

बात भी समझी जा सकती है क्यों हिन्दू महासभा के नेता एन.सी. चटर्जी ने प्रथम संविधान संशोधन को चुनौती दी थी। हिन्दू सभा तो हिन्दुओं के सैनिकीकरण की पैरवी करती थी जबकि कम्युनिस्ट व हिन्दू सभा का कहीं भी कोई मेल नहीं था। इस ऐतिहासिक घटना को कुछ लोग नेहरू विरोध के नाम पर तोड़-मरोड़ कर इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं जिससे आज की पीढ़ी को यह लगे नेहरू ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित किया। किन्तु वर्तमान सन्दर्भों में इसका जबर्दस्त महत्व है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर राजद्रोह के लिए जो मुकद्दमा सरकार द्वारा चलाया जा रहा है उसका सम्बन्ध इसी संविधान संशोधन से है जबकि स्वयं कन्हैया कुमार आज पूरे देश में घूम-घूम कर नेहरू के विचारों की ही रक्षा कर रहे हैं और संविधान की रक्षा करने की मुहिम चलाए हुए हैं। लेकिन ऐसी मुहिम अकेले वह ही चला रहे हों ऐसा नहीं है। लोकतान्त्रिक जनता दल के अध्यक्ष श्री शरद यादव भी ऐसी ही मुहिम पिछले दो साल से चला रहे हैं और सभी विपक्षी दलों को इसमें शामिल कर रहे हैं। इससे इतना तो साबित हो ही रहा है कि सूचना और अभिव्यक्ति का तालमेल गड़बड़ा रहा है।

लोगों को यह जानने का अधिकार भी है कि आम जनता की मेहनत की कमाई को गड़प करने वाले बिल्डर आम्रपाली समूह के कर्ताधर्ताओं की न्यायालय में पैरवी किस राजनीतिक पार्टी का प्रवक्ता बन कर टीवी चैनलों में गला फाड़ने वाला वकील कर रहा है? क्या उत्तर प्रदेश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि अभी तक 2013 में पुलिस कांस्टेबल की परीक्षा पास किए अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र क्यों नहीं दिया जा रहा है। क्या महाराष्ट्र की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि शिक्षा के अधिकार के तहत स्कूलों में प्रवेश लिए गरीब छात्रों के हिस्से की फीस का भुगतान राज्य सरकार ने अभी तक स्कूलों को क्यों नहीं किया है? क्या देश की जनता यह पता नहीं लगना चाहिए कि कितने निजी विद्यालयों में सेवारत शिक्षकों को अब पूरा वेतन दिया जाता है? क्या आम जनता को यह नहीं बताया जाना चाहिए कि सरकारी दफ्तरों में भर्ती बन्द करने के बाद ठेके पर रखे जाने वाले कर्मचारियों की प्रथा शुरू करने के बाद सरकार को इस मद में कितनी बचत हुई है ?

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