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लोकसभा की लोक वाणी

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भारत की संसद के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि लोकसभा की चलती हुई बैठक को गूंगा- बहरा और पंगु बना दिया गया है। यह भी पहली बार हो रहा है कि संसदीय कार्यमन्त्री रोज सदन में ही खड़े होकर अपने स्थानों पर बैठे हुए विपक्षी दलों के सांसदों पर सदन न चलने देने का आरोप लगाता है और अध्यक्ष के आसन के निकट आकर नारेबाजी करने वाली पार्टी के सांसदों से मुखातिब नहीं होता। यह भी पहली बार हो रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद सरकार उसके फैसले पर अमल करने से बन्धे होने के बावजूद सदन में उसे लागू करने की घोषणा नहीं कर रही है। यह भी पहली बार हो रहा है कि बार-बार मन्त्रिमंडल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की सारी शर्तें और नियम पूरे किये जाने के बावजूद उस पर सदन में बहस नहीं हो पा रही है।

संसदीय व्यवस्था को हम जिस तरह बलात् धकेल रहे हैं उसके लिए आने वाली पीढि़यां हमें कभी माफ नहीं करेंगी क्योंकि हम उस मतदाता का खुला अपमान करने की जुर्रत कर रहे हैं जिसने अपने एक वोट का इस्तेमाल करके 545 सदस्यीय लोकसभा का गठन किया है। उसका मत पाने वालों में सत्ताधारी और विपक्ष दोनों ही पार्टियों के सांसद हैं। लोकसभा में अध्यक्ष के आसन के निकट नारेबाजी करने वाले सदस्य अब केवल अन्नाद्रमुक पार्टी के रह गये हैं। ये सभी तमिलनाडू के हैं जो कावेरी जल बंटवारे हेतु प्रबन्धन बोर्ड की मांग कर रहे हैं जो इस नदी के पानी का कर्नाटक समेत केरल व तमिलनाडु में बंटवारा करेगा। इस बोर्ड का गठन 31 मार्च तक हो जाना चाहिए।

कर्नाटक में विधानसभा के लिए 12 मई को मतदान होगा। यहां कांग्रेस पार्टी की सरकार श्री सिद्धारमैया के नेतृत्व में काम कर रही है। केन्द्र में भाजपा की सरकार है जिसे जल प्रबन्धन बोर्ड का गठन करना है मगर इसके लिए देश की संसद को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। संसद के चलते देश का कानून मन्त्री संसद से बाहर आरोप लगा रहा है कि ब्रिटिश कम्पनी कैम्ब्रिज एनालिटिका की चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने मदद ली, जवाब में कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि यह भाजपा और उसके सहयोगी दल हैं जिन्होंने यह काम किया।

रोजाना इस मोर्चे पर मीडिया में नये-नये रहस्योद्घाटन करने के करतब हो रहे हैं और लोकसभा रोजाना ही निढाल होकर अगले दिन के लिए तम्बू खोल रही है। रोजाना अन्नाद्रमुक के सांसदों की नारेबाजी के बीच अविश्वास प्रस्ताव प्राप्त करने की सूचना लोकसभा अध्यक्ष देती हैं और सदन के अव्यवस्थित होने की वजह से इसकी प्रक्रिया पूरी करने में स्वयं को असमर्थ पाती हैं मगर 31 मार्च तक यह स्थिति नहीं रहनी चाहिए क्योंकि केन्द्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का पालन करते हुए कावेरी जल प्रबन्धन बोर्ड का गठन करना ही होगा। इसके गठन की घोषणा होने के बाद अन्नाद्रमुक सांसदों के हाथ से लोकसभा की कार्यवाही बाधित करने का अस्त्र छिन जायेगा लेकिन क्या कोई यह गारंटी दे सकता है कि इसके बावजूद लोकसभा की कार्यवाही सुचारू चलेगी और अविश्वास प्रस्ताव पर बहस शुरू होगी ?

इस बात की गारंटी केवल संसदीय कार्यमन्त्री को ही करनी होगी कि वह आगामी सोमवार को लोकसभा की बैठक शुरू होने से पहले सभी विपक्षी व भाजपा के सहयोगी दलों से बातचीत करके एेसा माहौल बनायें जिससे अध्यक्ष के आसन के निकट आकर कोई भी सांसद शोर-शराबा या नारेबाजी न करे और अपनी बात संसदीय प्रणाली के तहत दिये गये नियमों के तहत रखे। अपनी साख को आम जनता के बीच बुलन्द रखने के लिए इसी लोकसभा में कई सरकारों ने अपना इकबाल बरकरार रखने के लिए खुद ही ‘विश्वास’ प्रस्ताव लाने का रास्ता निकाला जबकि संविधान में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। भारत की अभी तक की सबसे शक्तिशाली प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी रही हैं और उनकी सरकारों के खिलाफ 15 बार अविश्वास प्रस्ताव लाये गये।

प्रत्येक अविश्वास प्रस्ताव में वह विजयी रहीं। स्व. लाल बहादुर शास्त्री की सरकार के खिलाफ 18 महीनों में तीन अविश्वास प्रस्ताव आये। उस समय तो दलबदल कानून भी नहीं था मगर इन नेताओं को अपने ऊपर विश्वास था। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि केवल लोकसभा के पास यह संवैधानिक अधिकार है कि वह सरकार का गठन करती है और उसे खत्म भी कर सकती है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने आम जनता का विश्वास हमेशा लोकतन्त्र में बने रहने के लिए ही यह उपाय किया था और उच्च सदन कहे जाने वाले राज्यसभा को यह अधिकार नहीं दिया था। इसकी वजह यही थी कि लोकसभा का गठन प्रत्यक्ष रूप से आम मतदाता के वोट से होता है। हमें इस सदन की प्रतिष्ठा का अन्दाजा इस हकीकत से लगाना चाहिए कि समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने कसम खाई थी कि वह राज्यसभा में नहीं जाएंगे और जब भी जाएंगे लोकसभा में ही जाएंगे जबकि वह आजादी के बाद कभी भी उच्च सदन के सदस्य बन सकते थे मगर उन्होंने 1963 तक इंतजार किया और उत्तर प्रदेश के फतेहपुर से उपचुनाव में विजयी होकर लोकसभा में पहुंचे।

डा. लोहिया का मानना था कि लोकसभा में जब कोई सांसद बोलता है तो वह लाखों मतदाताओं की तरफ से सीधे सरकार की जवाबतलबी करता है और जब भी लोकसभा में डा. लोहिया बोलने खड़े हुए तो स्वयं तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू उन्हें सुनने के लिए लोकसभा में मौजूद रहते थे और अपनी कटु आलोचना प्रसन्न मुद्रा में सुनते थे। यही तो है भारत का लोकतन्त्र।

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