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पंजाब के किसान और खेती

कृषि क्षेत्र में बदलाव के लिए संसद के पिछले सत्र में पारित तीन विधेयकों के कानून बन जाने पर पूरे देश में इनसे किसानों की हालत पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है उससे भारत का संघीय ढांचा प्रभावित हो रहा है क्योंकि जिन राज्यों में कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं वे इन कानूनों के खिलाफ हैं।

कृषि क्षेत्र में बदलाव के लिए संसद के पिछले सत्र में पारित तीन विधेयकों के कानून बन जाने पर पूरे देश में इनसे किसानों की हालत पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है उससे भारत का संघीय ढांचा प्रभावित हो रहा है क्योंकि जिन राज्यों में कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं वे इन कानूनों के खिलाफ हैं।
विपक्षी दलों की सरकारें इन कानूनों को निरस्त करने के लिए अपने राज्यों की विधानसभाओं में ऐसे नये कानून बनाना चाहती हैं जिनसे पुरानी पद्धति पर कामकाज चालू रह सके। इस काम में पंजाब ने अग्रणी भूमिका ली है और इसके मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने आगामी 19 अक्टूबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया है।
बेशक कृषि राज्यों का विषय है मगर खाद्यान्न केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में भी आता है परन्तु असल मुद्दा किसानों की स्थिति सुधारने का है जिसका सम्बन्ध देश की किसी भी सरकार से सीधा-सीधा है। केन्द्र सरकार किसानों की विभिन्न उपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य इसीलिए घोषित करती है जिससे उन्हें उनकी मेहनत का पूरा लाभ मिल सके। असली लड़ाई इसी समर्थन मूल्य को लेकर हो रही है।
नये कानूनों में समर्थन मूल्य प्रणाली को समाप्त नहीं किया गया है बल्कि इसके समानान्तर एक निजी व्यापारिक खरीद प्रणाली खड़ी कर दी गई है। केन्द्र सरकार का कहना है कि इससे किसानों को अपनी उपज अपनी शर्तों पर बेचने में सुविधा होगी जबकि विरोधी पक्ष का मानना है कि इससे  किसान पुनः बड़े व्यापारियों और पूंजीपतियों के अधीन हो जायेंगे क्योंकि खेती का बाजार इकतरफा होता है।
इसकी वजह यह है कि किसान की फसल पकने का एक निश्चित समय होता है और जब वह इसे लेकर बाजार में जाता है तो केवल सप्लाई ही होती है और मांग इसकी अपेक्षा में बहुत कम होती है। असल में उसकी उपज की  मांग साल के 12 महीनो में बंटी रहती है।
अतः खेती का बाजार बिकवाल का बाजार माना जाता है, परन्तु समस्या का मूल वहां नहीं है जहां हम ढूंढ रहे हैं। इसका मूल बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में है जिसका नियम मांग व सप्लाई के अनुसार बाजार भाव तय करना होता है। चूंकि कृषि को बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बनाया गया जिसकी वजह से यह विरोधाभास सामने आ रहा है। अगर हम और गौर से देखें तो इसकी जड़  ‘विश्व व्यापार संगठन’ के उन नियामकों में है जिसका भारत सदस्य है।
इस संगठन में दुनिया के अमीर देशों खास कर अमेरिका, जर्मनी, जापान जैसे का दबदबा है। भारत में कृषि जन्य उत्पादों का आयात 2001 से ही खुल चुका है और परिमाणिक प्रतिबन्ध ( क्वान्टिटेटिव रेस्ट्रिक्शंस) भी खत्म हो चुके हैं जिन्हें देखते हुए विश्व व्यापार संगठन का लगातार जोर यह रहता है कि भारत अपने देश के किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी समाप्त करे जिससे कृषि जन्य उत्पादों के क्षेत्र में भी विश्वव्यापी प्रतियोगिता का माहौल बन सके।
यह दबाव 2001 से ही चला आ रहा है,  परन्तु भारत की सरकारें इस दबाव को टालती आ रही हैं और  कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी में भी लगातार कमी करती आ रही हैं, इससे भारत में भ्रम की स्थिति बनी है जो वर्तमान में प्रकट हो रही है।  खेती को ठेके पर कराना भी इसी का एक अंग है। यह व्यवस्था सबसे पहले पंजाब में ही आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने पर प्रायोगिक तौर पर शुरू की गई थी जिसके परिणाम खट्टे-मीठे रहे। यही वजह थी कि वाजपेयी सरकार में जब आज के बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार कृषि मन्त्री थे तो वह राष्ट्रीय कृषि नीति लाये थे।
वह यह नीति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खेती के सामने आ रही नई चुनौतियों का सामना करने के लिए ही लाये थे परन्तु इसका असर केवल इतना हुआ कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के घेरे में पहले से ज्यादा फसलें आ गईं, परन्तु कृषि क्षेत्र में पूंजी का सृजन करने के नये प्रयास नहीं हो पाये मगर 2006-07 में विश्व व्यापार संगठन ने पुनः भारत और इस जैसे अन्य कृषि प्रधान देशों पर दबाव डाला कि वे कृषि क्षेत्र को बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का अंग बनाने के लिए इसे सरकारी मदद देना कम करें। उस समय देश के वाणिज्य मन्त्री मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ थे।
उन्होंने संगठन के इन प्रयासों का पुरजोर विरोध किया और कृषि प्रधान देशों का समूह बना कर संगठन को साफ कर दिया कि जब तक भारत जैसे देश के किसान की वित्तीय हालत यूरोपीय किसान जैसी नहीं हो जाती तब तक सरकार किसानों की मदद करना बन्द नहीं कर सकती, परन्तु यह कार्य यथास्थिति को बनाये रख कर नहीं हो सकता इसीलिए वर्तमान केन्द्र सरकार किसानों के लिए एक समानान्तर बाजार प्रणाली लेकर आयी है जिसमें किसान अपनी फसल का भाव-ताव व्यापारियों से कर सके और अपने माल की कीमत खुद तय कर सके।
दरअसल यह एक कदम आगे उठाने की कोशिश है मगर इसमें जोखिम भी निश्चित रूप से हैं। खेती को निजी पूंजीपतियों के आसरे छोड़ने पर फसलों का वाणिज्यिकरण तो होगा मगर इसका अंतिम लाभ किसान को ही मिलेगा इसकी गारंटी नहीं की जा सकती कि यह सब बाजार की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
जाहिर तौर पर बाजार की परिस्थितियां पूंजी ही तय करती है जिसकी वजह से किसानों में घबराहट है, परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं है कि एक देश में दो-दो कानून चलें। सोचने वाली बात यही है कि क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं अथवा अपने ही बनाये रास्तों में भटक जाना चाहते हैं।
हमें समय के अनुरूप विकास भी करना है और किसानों की आमदनी भी बढ़ानी है, साथ ही उन्हें अपनी जमीन का मालिक भी बनाये रखना है।  इसलिए भारत की भौगोलिक विविधता को ध्यान में रखते हुए हमें कृषि व्यापार को व्यापक बनाना ही होगा।

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