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भ्रष्टाचार में फंसी ‘क्रय क्षमता’

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भारत हमेशा संकटों से उभर कर अपनी लगातार प्रगति करता रहा है जो उससे रंजिश रखने वाले देश उसके सामने पेश करते रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी ताकत इस देश का वह लोकतन्त्र है जिसने इसके लोगों को मजबूत बनाने का काम किया है। यह कार्य हमने बहु-राजनैतिक दलीय प्रणाली के अन्तर्गत ही किया है। दरअसल यह प्रणाली भारत के विकास में प्रतियोगिता का माहौल इस प्रकार बनाती है कि आम जनता के सामने विकल्पों की कोई कमी नहीं रहती। इसके साथ भारत ने जिस प्रकार त्रिस्तरीय प्रशासन प्रणाली (स्थानीय निकाय, राज्य सरकार व केन्द्र सरकार) को अपनाकर आम आदमी की समस्याओं का समाधान निकालने का रास्ता अपनाया उससे भी हमारे विकास की गति को बल मिला है।

कुछ लोग इसके आलोचक इसलिए हैं क्योंकि तीनों ही स्तर पर भ्रष्टाचार भी लगातार बढ़ता जा रहा है मगर इसकी वजह आम जनता बिल्कुल नहीं है बल्कि राजनैतिक दल हैं जिन्होंने सत्ता प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचार को ही एक संस्थागत रूप दे दिया है। इस कार्य में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने भी जमकर योगदान किया है। हर स्तर पर ठेका प्रथा और विकास कार्यों में निजी क्षेत्र की लगातार बढ़ती भागीदारी से भ्रष्टाचार का स्वरूप इस प्रकार बदला है कि देश की कुल सम्पत्ति में उन एक प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ती जा रही है जिन्हें पूंजीपति या धन्नासेठ कहा जाता है और दूसरी तरफ उन लोगों की सम्पत्ति लगातार घटती जा रही है जिन्हें सामान्य लोग कहा जाता है।

2014 तक इन एक प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति का हिस्सा 54 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 73 प्रतिशत हो गया है। बेशक देश की सम्पत्ति में भी वृद्धि हुई है मगर इसमें आम लोगों का हिस्सा कम होता जा रहा है। अतः यह बेवजह नहीं है कि ग्रामीण व कृषि क्षेत्र के लोगों में बेचैनी है और उनका जीवन लगातार मुश्किल होता जा रहा है। जाहिर है कि सम्पत्ति में वृद्धि होने का लाभ जिस तरह एक प्रतिशत लोगों को मिल रहा है उसमें अर्थव्यवस्था के वर्तमान ढांचे का सीधा लेना-देना है। यह लेना-देना यह है कि विकास के जो भी कार्य इस ढांचे के तहत किये जाते हैं उनका सबसे बड़ा लाभ इस विकास को करने वाले लोगों को ही मिलता है। ये लोग जाहिर तौर पर राजनीितज्ञ और धन्ना सेठ ही होते हैं। लोकतन्त्र यही सुनिश्चित करता है कि सामान्य व्यक्ति की जिम्मेदारी सबसे पहले उसी की चुनी हुई सरकार ले और इस प्रकार ले​ कि सामान्य व्यक्ति की समृद्ध में भागीदारी तय हो।

डा. राम मनोहर लोहिया इसी समाजवाद के हिमायती थे और भारत का संविधान भी इसी समाजवाद का हिमायती है परन्तु सुखद आश्चर्य भी यही व्यवस्था हमें देती है। मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ ने यह कहकर भारत के संविधान की उस आत्मा को जगा दिया जब उन्होंने किसानों की कर्ज माफी के प्रमाणपत्र बांटते हुए यह कहा कि किसानों की आर्थिक हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक उनकी क्रय क्षमता में बढ़ोत्तरी न की जाये। इस बढ़ोत्तरी से ही उनके राज्य की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी क्योंकि मध्य प्रदेश के 70 प्रतिशत लोग खेती पर ही निर्भर करते हैं। जमीनी सच यही है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था केवल विकास वृद्धि दर बढ़ने पर निर्भर नहीं करती बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि औसत आदमी की क्रय क्षमता में कितनी वृद्धि हुई है।

इसे निकालने का पैमाना थोड़ा पेचीदा है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर और रुपये की आनुपातिक कीमत और आय में बढ़ोत्तरी के आनुपातिक हिसाब पर यह निर्भर करती है। मोटे तौर पर किसान की क्रय क्षमता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उसे अपने खेतों में बीज बोने के लिए भी उधारी लेनी पड़ती है। एक किसान पर भूमिहीन मजदूर भी निर्भर करते हैं। अतः उनकी क्रय क्षमता तो रोज का पेट भर आटा-दाल खरीदने की भी नहीं हो सकती। इस क्रय क्षमता का सीधा सम्बन्ध भी भ्रष्टाचार से है क्योंकि एक प्रतिशत लोगों की बढ़ी सम्पत्ति और हिस्सेदारी पाने के लिए नौकरशाही से लेकर राजनैतिक वर्ग में भ्रष्टाचार को पनपाती चलती है जिसकी वजह से हम जो विकास वृद्धि के आंकड़े जारी करते रहते हैं, वे इन एक प्रतिशत लोगों की बढ़ी हुई सम्पत्ति को समाहित करके ही जारी करते हैं।

यही वजह थी कि मनमोहन सरकार के जमाने से ही यह आर्थिक विमर्श उभरना शुरू हुआ था कि समावेशी विकास के लिए कौन से उपाय किये जायें और उसी दौरान लक्षित गरीबों के खाते में सीधे रकम (अनुदान) डालने की विधि विकसित की गई थी। यह भ्रष्टाचार को सबसे निचले स्तर पर समाप्त करने की वि​धि तो हो सकती थी मगर बाजार के कारोबार पर निर्भर अर्थव्यवस्था के ढांचे में वैध जगह बनाये बैठे भ्रष्टाचार को नहीं। सितम यह है कि यह भ्रष्टाचार राष्ट्रीय सम्पत्ति के ही उस बंटवारे में किया जाता है जिसमें आम आदमी की बराबर की हिस्सेदारी होती है। हमें यही विचार करना है कि इस आम आदमी की क्रय क्षमता में वृद्धि किस प्रकार होगी जिसकी 73 प्रतिशत रकम तो एक प्रतिशत लोगों की जेब में चली जाती है।

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