तीन तलाक के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस जारी है और पूरी दुनिया की नजरें इस ऐतिहासिक न्यायिक कार्यवाही पर लगी हुई हैं। धर्मनिरपेक्ष भारत में महिलाओं को धर्म के नाम पर उनके वाजिब संवैधानिक अधिकारों से महरूम रखने की चली आ रही रवायतों के खिलाफ यह जंग से कम नहीं है। यह जंग मजहब और हुकूमत के बीच में नहीं हो रही है बल्कि इंसानियत के दायरे को हर मजहब के दायरे से ऊपर रखने के लिए हो रही है। भारत में हर व्यक्ति को निजी तौर पर अपने यकीन के मुताबिक किसी भी मजहब को मानने का हक है मगर इसका मतलब यह कहीं नहीं निकलता कि उस मजहब के मानने वाले दूसरे लोग उसे अपनी मर्जी के मुताबिक उस मजहब में बनाई गई रवायतों पर चलने के लिए मजबूर करें। भारतीय संविधान में धर्म पूरी तरह निजी मामला है। चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, किसी को भी यह अधिकार संविधान नहीं देता है कि वह इनके समाज की गढ़ी गई रवायतों का पाबन्द हो। किसी भी समाज के व्यक्ति को निजी आधार पर अपनी जिन्दगी अपने ढंग से जीने का हक संविधान में मिला हुआ है।
अत: किसी भी मुस्लिम महिला को इस बात के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता कि मुसलमान होने की वजह से वह तीन तलाक की हुक्मबरदारी में रहे। भारत के एक शहरी होने के मुताबिक वह संविधान की राह पकड़ कर अपना वह हक मांग सकती है जो उसे मर्द के बराबर के हुकूक अता करता है। यह हुकूमत का मजहब में दखल नहीं हो सकता बल्कि मजहब का हुकूमत को कानून से बेपरवाही बरतने का पयाम जरूर हो सकता है। दीगर सवाल यह है कि किसी महिला के मुसलमान होने से उसके कानूनन हक कैसे बदल सकते हैं? औरतों को जो हक कानून से मिले हुए हैं उनमें बदलाव कैसे आ सकता है? क्या मुसलमान होने से किसी औरत को कुदरत से मिले हुए फनो में फर्क पैदा हो सकता है? मगर मजहबी रवायतों के नाम पर उसके साथ फर्क उसकी उस हस्ती को नकारने के अलावा और कुछ नहीं है जो संविधान ने उसे दी हुई है और वह यह है कि उसके हक मर्द से कमतर नहीं हैं। इसलिए मजहब को बीच में लाने की जो लोग कोशिश कर रहे हैं वे औरत के हौंसले को तोलना चाहते हैं और दिखाना चाहते हैं कि मजहब के नाम पर उसकी हस्ती कमजोर ही लिख दी गई है।
क्या सितम है कि इस्लामी मुल्कों में औरत वजीरे आजम के औहदे पर बैठ सकती है मगर भारत में अपनी किस्मत को खुद नहीं लिख सकती। उसे हर कदम पर ताकीद की जाती है कि वह कौन से कपड़े पहने, किस तरह अपनी जिन्दगी के फैसले ले और किस फन को हासिल करे या न करे। मुल्ला और कथित उलेमा उसके हर कदम की पैमाइश करेंगे और बतायेंगे कि उसकी मजहब में क्या हैसियत है। माफ कीजिये हर हिन्दू-मुसलमान पहले हिन्दोस्तानी है और उस पर इसी मुल्क का कानून लागू होता है। कोई भी मजहब मुल्क से ऊपर नहीं हो सकता मगर पिछले सत्तर सालों से अगर सबसे बड़ी बेइंसाफी किसी के साथ की गई है तो वह मुसलमानों के साथ ही की गई है। इस पूरी कौम को जहालत में ही रखने के इन्तजाम सियासी तौर पर इतने पुख्ता तरीके से किये गये कि वे बदलती दुनिया के साथ कदम ताल करने के लायक ही न रहें। अफसोस यह काम पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे राजनेता इस गलतफहमी में कर गये कि पाकिस्तान बन जाने के बाद यहां बचे हुए मुसलमान अपनी अलग पहचान के साथ रह सकें मगर बेइंसाफी यह हो गयी कि यह समाज अपने उन समाजी पुख्ता हकों से लापरवाह हो गया जो संविधान ने हर शहरी को दिये हैं और यह काम हुकूमत के साये में मुल्ला और मौलानाओं ने बड़ी खूबी के साथ किया और पूरी कौम को मजहब के मुलम्मे से बाहर ही नहीं निकलने दिया जबकि बहुत साफ है कि मजहब का दायरा निजी तौर-तरीकों तक ही सिमटा हुआ है। संविधान में पूरी साफगोई के साथ लिखा हुआ है कि हुकूमत सभी शहरियों में वैज्ञानिक नजरिया पैदा करने के लिए काम करेगी और हर मुफलिस को इन्साफ दिलाने के इन्तजाम करेगी। मुस्लिम औरतों को तो इसी मुल्क में मुफलिसी की इन्तेहा के मुहाने पर खड़ा रखा गया है और जब वह अपना हक मांगने के लिए उठ खड़ी हुई है तो मजहब के ठेकेदारों के होश फाख्ता हो रहे हैं।